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
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भले ही नेताओं (Political Leaders) के रिश्तेदारों से आज भारत (India) में लोग परेशान हैं
अजय झा
भले ही नेताओं (Political Leaders) के रिश्तेदारों से आज भारत (India) में लोग परेशान हैं. क्योकि उन्हें आगे बढ़ाने के चक्कर में कई होनहार नेताओं को हाशिए पर धकेल दिया जाता है. यह रोग सिर्फ कांग्रेस पार्टी (Congress Party) तक ही सीमित नहीं है, नज़र घुमाएं तो हर राज्य और हर दल में ऐसे नेता मिल जाएंगे जो अपनी योग्यता के बल पर नहीं बल्कि अपने परिवार के नाम पर नेता बने हुए हैं. आज हम उन परिवारों की बात नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उनके बारे में सभी जानते हैं. आज हम नज़र डालते हैं कि कैसे भारत में नेता जनता से रिश्तेदारी निभा कर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं.
इस परंपरा की शुरुआत हुई जब मोहनदास करमचंद गांधी पहले महात्मा गांधी बन गए और बाद में लोग उन्हें बापू यानि पिता बुलाने लगे. आज कोई युवक किसी अधेड़ उम्र के इंसान को अगर अंकल कहे तो उसे बुरा लगता है, महात्मा गांधी को हम उम्र भी अगर बापू कह कर बुलाता था तो उन्हें अच्छा लगता था. और जब गांधी देश के बापू बन गए तो उनके सबसे प्रिय नेता जवाहरलाल नेहरू कैसे पीछे रह जाते. पिता के छोटे भाई को चाचा कहने की परंपरा है, लिहाजा नेहरू, चाचा नेहरू बन गए.
बाबूजी और चचा की कहानी
नेहरू के समय में ही एक नेता होते थे जगजीवन राम. डॉ. भीमराव अम्बेडकर के निधन के बाद जगजीवन राम दलितों के सबसे बड़े नेता बने. चाचा नेहरू के मंत्रीमंडल के सदस्य जगजीवन राम को लोग बाबूजी के नाम से जानते थे. चाचा नेहरू और बाद में इंदिरा गांधी को भी इससे कोई परेशानी नहीं थी, क्योंकि अगर उन्हें बाबूजी कहकर कांग्रेस पार्टी को दलितों का वोट मिल रहा था, तो उन्हें ऐसी राजनीति करने से परहेज नहीं थी. बाबूजी बिहार और कई अन्य हिन्दीभाषी राज्यों में पिता को कहा जाता है.
उन्ही दिनों बिहार से एक और नेता का उदय होना शुरू हुआ था – सीताराम केसरी. चूंकि बाबूजी उन्हें अपने छोटे भाई की तरह मानते थे लिहाजा सीताराम केसरी लोगों के चचा बन गए. बिहार में चाचा को लोग अक्सर चचा ही बुलाते हैं. चचा केसरी वैसे इंदिरा गांधी के काफी करीबी नेताओं में गिने जाते थे और कांग्रेस पार्टी के कोषाध्यक्ष के पद पर रहते हुए कांग्रेस पार्टी और इंदिरा गांधी के सभी कालेधन का हिसाब रखते थे. कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता जो कभी पार्टी के महासचिव होते थे पर अब इस दुनिया में नहीं हैं, उन्होंने मुझे बताया था कि उन दिनों चंदा या रिश्वत का पैसा ब्रीफ़केस या अटैची में कांग्रेस मुख्यालय में आता था, जिसपर एक स्टिकर चिपका दिया जाता था. उस स्टिकर में एक गुप्त भाषा में कुछ लिखा होता था, जिसका मतलब सिर्फ चचा केसरी को ही पता होता था. उस गुप्त भाषा में लिखा होता था कि ब्रीफ़केस या एटैची में कितने पैसे हैं.
उनकी कभी गिनती नहीं होती थी. और जब इंदिरा गांधी का फरमान आता था कि फलां नेता या व्यक्ति को कितने पैसे देने हैं, चचा केसरी उस स्टिकर को देख कर वह ब्रीफ़केस या अटैची उसे सौंप देते थे. चचा की उनदिनों कांग्रेस में खूब चलती थी, क्योंकि राजनीति हमेशा से ही पैसे का खेल रहा है और सत्ताधारी दल का सारा पैसा उन्हीं के पास होता था. चचा के बारे में कहावत विख्यात है नाखाता ना बही, जो कहें चचा केसरी वही सही, यानि उनके सिवा किसी को कुछ नहीं पता होता था पैसों के बारे में. बाद में चचा केसरी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष भी बने और इंदिरा गांधी की पुत्रवधू सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की जल्दीबाजी में उन्हें किस तरह बेइज्जत करके और धक्का मार कर कांग्रेस पार्टी की मुख्यालय से निकाला गया वह कांग्रेस इतिहास का एक काला अध्याय माना जाता है.
ताऊ से दीदी तक की कहानी
ऐसा भी नहीं है कि रिश्तेदारी निभाने में परंपरा सिर्फ कांग्रेस पार्टी तक ही सीमित थी. जब राजनीति में बापू, बाबूजी, चाचा, चचा हो गए तो फिर परिवार में एक पदखाली था पिता के बड़े भाई का जिसे उत्तर भारत में लोग ताऊ कह कर बुलाते हैं. हरियाणा के लोग चौधरी देवीलाल को ताऊ कह कर बुलाते थे और जब वह विश्वनाथ प्रताप सिंह मंत्रीमंडल में उपप्रधानमंत्री बने तो देवीलाल गर्व से पूरे देश के ताऊ बन गए. फिर बारी आई 90 के दशक में शीला दीक्षित की जब वह दिल्ली की मुख्यमंत्री बनीं. उनके चेहरे पर हमेशा करुणा की माया छलकती दिखती थी और दिल्ली में, खासकर कांग्रेस पार्टी के युवा नेता उन्हें बुआ, यानि पिता की बहन के नाम से पुकारने लगे.
उन्हीं दिनों पश्चिम बंगाल की राजनीति में एक ओजश्वी और जुझारू नेता का उदय हो रहा था जिस के साथ युवा वर्ग जुड़ रहा था. उनका नाम था ममता बनर्जी, जिन्हें शुरू में युवा दीदी के नाम से बुलाने लगे और अब तो उनसे भी उम्र में बड़े लोग ममता बनर्जी को दीदी के नाम ही से जानते हैं. पश्चिम बंगाल में यह किसी अपराध से कम नहीं हैं अगर किसी ने ममता बनर्जी को दीदी ना कह कर उन्हें उनके नाम से संबोधित कर दिया.
जैसे कि एक ह नाम के दो अभिनेता नहीं होते, राजनीति में भी कुछ ऐसा ही होता है. लिहाजा जब मायावती का उत्तर प्रदेश और भारत की राजनीति में उदय होना शुरू हुआ तो लोग उन्हें दीदी ना कह कर बहनजी कहने लगे. राजनीतिक हलकों में उन्हें मायावती के नाम से कम और बहनजी के नाम से ही ज्यादाजाना जाता है. बिना नाम लिए भी अगर किसी ने दीदी कहा तो सभी जानते हैं कि वह ममता बनर्जी हैं और अगर बहनजी कहा तो वह मायावती के सिवा कोई और हो ही नहीं सकता. बता दें कि चमचे किस्म के चापलूस लोगों के बीच नेताओं को नाम से नहीं बल्कि भाईजी या भाईसाहब कहने की पुरानी प्रथा आज भी चल रही है. हां, यह बताना भी ज़रूरी है कि बापू की पत्नी कस्तूरबा गांधी को लोग बा कह कर बुलाते थे. गुजरात में बा मां को कहा जाता है.
मामा से मौसी तक की कहानी
अगर परिवार पर नज़र डालें तो भारत की राजनीति एक पूरे भरे पूरे परिवार की तरह लगता है. पर रुकिए, कुछ कमी थी. किसी भी परिवार में मामा का अहम् किरदार होता है. मामा की कमी को मध्य प्रदेश के लोगों ने पूरा कर दिया है. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लोग लम्बे अर्से से मामा के नाम से जानते थे, पर पिछले कुछ महीनों से पूरा देश अब उन्हें मामा कहने लगा है.
योगी आदित्यनाथ से प्रेरित होकर शिवराज सिंह चौहान भी इन दिनों अपराधियों के दिल में बुलडोज़र का खौफ ज़माने में लग गए हैं और अब शिवराज सिंह चौहान पूरे देश में बुलडोजर मामा के रूप में विख्यात होने लगे हैं. शिवराज सिंह चौहान के अनुसार जब वह मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने कन्यायों के सामाजिक उत्थान पर पूरा जोर दिया, जिस कारण उन्हें मध्य प्रदेश की लड़कियों ने मामा कहना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे वह पूरे प्रदेश के मामा बन गये. उन्हें इसका कोई मलाल नहीं है क्योंकि वह कहते हैं कि मध्य प्रदेश की सभी जनता को वह अपना परिवार मानते हैं.
लगता है कि पूरे परिवार में बस एक ही पद खाली है मौसी का. जिस तरह इन दिनों प्रियंका गांधी महिलाओं की राजनीति करने की कोशिश कर रही हैं, वह दिन दूर नहीं कि एक दिन उन्हें लोग अपने परिवार का सदस्य मान कर मौसी कहना शुरू कर दें. बस अभी वह उम्र में इतनी बड़ी नहीं हुई हैं, पर भविष्य में उम्मीद है कि प्रियंका गांधी एक दिन प्रियंका मौसी बन जायेंगी. वैसे अब समझा में आया कि क्यों हमारे पूर्वज वसुधैव कुटुम्बकम् की बात करते थे. यह कहावत कहीं और लागू भले ही ना हो, राजनीति में इसका पूर्णतया पालन होता है, यह दिखाने के लिए कि नेता हमारे परिवार के सदस्य की तरह है और बदले में हमारा वोट चाहते हैं. अब पता नहीं क्यों बीजेपी परिवारवाद के पीछे हाथ धो कर पड़ी हुई है!
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Rani Sahu
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