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- तमाशबीन निराश हैं
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मेंढा होना आसान नहीं, फिर भी उस दिन मेंढों को यह गुरूर हो गया कि वे दुनिया जीत सकते हैं। उनके पास सींग हैं और वक्त आने पर कहीं भी इन्हें लड़ा सकते हैं। दरअसल कोई भी युद्ध और कोई भी युग सींगों के बिना नहीं चला। सींग हमारे आसपास प्रतिष्ठा का सवाल खड़ा कर रहे हैं। समाज में भी सींग उगाने की प्रतियोगिता चल रही है। जब तरक्की सींग हो जाए, फिर देखें कैसे लहूलुहान हुआ जा सकता है। हमारे पड़ोसी ने जरूरत से लंबी और गली से चौड़ी कार ले रखी है और इसके कारण सारी बस्ती को यह सींग कभी चलने में तो कभी आंखों में खलने लगा है। वैसे आज के समाज में सींगधारी कम नहीं। एक से बचेंगे, तो अनेक मिलेंगे। बहरहाल मेंढों के झुंड में से दो का पारा चढ़ा हुआ था, इसलिए रास्ता बदलकर खुले मेें आ गए। यह वर्ण और वर्ग के टकराव की तरह ही का आमना-सामना था। गुस्से में पहली टक्कर किसने-किसको मारी, जब यह इनसानों को पता नहीं चलता, फिर ये तो जानवर थे। अब दोनों के पास लड़ाई का ही चारा था, क्योंकि टक्कर लग चुकी थी। दोनों तरफ से सींग टकरा रहे थे। मेंढे पूरी शिद्दत से अपनी नस्ल का प्रदर्शन कर रहे थे, फिर भी एक जैसे नहीं थे। एक बिल्कुल काला और दूसरा सफेद बर्फ की तरह। एक के सींग पूरी तरह घूम गए थे, जबकि दूसरे के थोड़े सीधे भी थे। मेंढों की लड़ाई लंबी हो रही थी और उनके इर्द-गिर्द तमाशबीनों की कतार भी। तमाशबीन होना भी कमाल का धर्म है। यह कहीं भी, कुछ भी देख सकता है।
आश्चर्य तब होता है जब मरा हुआ सांप भी तमाशबीन बटोर लेता है। अब देश के लिए तमाशबीनों की जरूरत बढऩे लगी है। आजादी के 75 सालों बाद हम दावे से कह सकते हैं कि हर गांव से हर शहर तक ऐसे तमाशबीन पैदा हो चुके हैं, जो बिना कुछ किए समय गुजार सकते हैं या देश अगर समय गुजारता-गुजारता आगे बढ़ रहा है, तो उसके लिए इनका योगदान सबसे ऊपर है। अब तो सोशल मीडिया की कथनी और करनी में केवल तमाशबीनों का राज है, इसलिए जब चाहो इनसे ताली बजवा लो, किसी शांत बस्ती की कुंडी खडक़ा लो या देश में हडक़ंप मचा लो। सुना है राजनीतिक पार्टियों की निगाह इन्हीं पर है, इसलिए मतदाता सूचियों पर लगे लाल निशान सिर्फ तमाशबीन ढूंढ रहे हैं।
यकीन मानिए अब तो ईवीएम को भी इंतजार रहता है कि पांच साल बाद कितने तमाशबीन और आएंगे। भविष्य में जो पार्टी ज्यादा तमाशबीन पैदा करेगी, वही देश पर राज करेगी। इसलिए सत्ता के करीब पहुंचना है, तो तमाशबीन बन जाओ। इधर मेंढों को भी अच्छा लग रहा था कि उनके नसीब में भी तमाशबीन आ गए हैं। हर लड़ाई का कोई न कोई स्वामी होता है, लिहाजा दोनों मेंढों के मालिक वहां पहुंच गए। अब मेंढे लड़ रहे थे और स्वामी जीतने की उम्मीद कर रहे थे। आश्चर्य यह कि लोगों ने मुसलमान रामदीन के मेंढे को मुस्लिम मान लिया, जबकि हिंदू राम कुमार का मेंढा पूरी तरह हिंदू लग रहा था। अब तक तमाशबीन बंट चुके थे और इस युद्ध के नियम भी। तभी मेंढे लड़ते-लड़ते कीचड़ में घुस गए। न काला-काला रहा और न ही सफेद खुद की सफेदी बचा सका। किसी तरह मेंढों को बाहर निकाला गया, लेकिन तमाशबीन निराश थे कि अब बदरंग माहौल में किसे हिंदू और किसे मुस्लिम मानें। मेंढे कांप रहे थे, लोग उनकी खाल से धर्म निकालने की कोशिश कर रहे थे।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu
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