सम्पादकीय

होरी हो ब्रजराज में समाई भारतीय उत्सवी परंपरा की खनक

Gulabi Jagat
18 March 2022 1:59 PM GMT
होरी हो ब्रजराज में समाई भारतीय उत्सवी परंपरा की खनक
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पर्वों की उर्वरा भूमि भारत में फागुनी मौसम वासंती रंग-उमंग और उल्लास लिए उतरता है
पर्वों की उर्वरा भूमि भारत में फागुनी मौसम वासंती रंग-उमंग और उल्लास लिए उतरता है. इसका चरम होली में दिखाई देता है. होली इस देश की मिट्टी का उत्सव है. होली आती है तो हम लौटते हैं अपने संस्कारों की टोह में. एक बार फिर जी भरकर अपनी मिट्टी को छूते हैं और समूची देह में उसकी सौंधी सुवास को भर लेते हैं. भारत का ऐसा कोई जनपद नहीं, जहाँ इस फाग पर्व के साथ प्रेम और श्रृंगार के गीतों की गुंजार न बिखरती हो, ढोल-मृदंग पर थाप न पड़ती हों और अनगढ़ पाँव नृत्यमय थिरकन से झंकृत न होते हों. इसी उत्सवधर्मी परंपरा के गीतों के बहाने लोकरंगी स्मृतियों को संजोने और उसमें आनंद के साथ शामिल होने का संयोग- 'होरी हो ब्रजराज' में उद्घाटित हुआ है. मंशा यह कि आधुनिक संदर्भों में हम उस लोक विरासत की भी सुध लें जहाँ जीवन बनावटी राग-विराग से परे सच्चे अर्थों में आत्मीयता का पैगाम है.
इस पृष्ठभूमि के साथ ब्रज क्षेत्र के लगभग 250 होली गीतों का उनकी पारंपरिक धुनों के साथ आईसेक्ट स्टूडियो, भोपाल ने संग्रह किया और उनकी देशज पहचान को बरकरार रखते हुए नई सज-धज के साथ ध्वन्यांकित किया. यहाँ काव्य, संगीत और नृत्य का मिलाजुला रोमांच है. लोक का खुला मीठा स्वर है तो लय-ताल और साज-बाज की गमक के साथ शास्त्रीय राग-रागिनियों की हमजोली भी. कहीं रसिया और धमार की अल्हड़ता और मस्ती है तो कहीं विहाग और काफी की कोमल सुर लहरियों में झरती मिलन-बिछोह के मनछूते प्रसंगों की करूणा. ब्रज भूमि का संदर्भ आते ही कृष्ण-राधा की लीला छवियाँ आँखों में तैरने लगती है.
'होरी हो ब्रजराज' के गीतों की खासियत है खुला हृदय और फैली बाहें. यहाँ फाग की मस्ती और हँसी-ठिठौली है, थिरकन है तो कहीं कृष्ण भक्ति के रस में डुबोती कानों में घुलती मिठास है. यहीं कहीं मुरली माधव है, यहीं कहीं रसिक प्रिया राधा है, यही-कहीं छिपे है गोकुल के ग्वाल-बाल. केसर, अबीर और गुलाल की उड़ानों से आसमान अटा है. ढोल और मृदंग की थापों के बीच उमड़ते फागों के प्रेम-रस में तरबतर होकर आत्मा को रंगने की गुहार है- 'होरी हो ब्रजराज'. इस रस-रंगमयी रूपक को दृश्य-छवियों में ढालने का कलात्मक उपक्रम किया है प्रसिद्ध कोरियोग्राफर और कथक नृत्यांगना क्षमा मालवीय ने. परंपरा में गहरे तक रची-बसी होलियों के कुछ लोक रंगों को चुनते हुए क्षमा ने अपनी कल्पनाशीलता से नृत्य संरचना का एक नया ही वितान रचा है. एक अर्थ में यह परंपरा और आधुनिकता के बीच रोचक आदिम संवाद भी है.
होरी हो ब्रजराज… यानी रस-रंगों की छलकती वो गागर जिसमें भारतीय उत्सवी परंपरा की खनक है. संस्कृति की तन्मय तान है. विरासत का विजय गान है. मनुष्यता का पैगाम है.
कहते हैं- गीत मन के मीत होते हैं, धूप-छाँही जीवन का हर लम्हा, इनके दामन में धड़कता है. जब ये धड़कनें साज-बाज की सोहबत में फिज़ाओं में गूंजती है, तो जैसे मिट्टी के सौंधे अहसास भीतर तक बज उठते हैं. धरती के ये रंग-रसीले छंद दरअसल हमारी कामनाओं के कलश हैं. यहाँ प्यार है, मनुहार है, मासूम जि़दें हैं, शिकवे शिकायत हैं.
हजारों बरस पहले हमारे अनाम, अज्ञात पुरखों के कंठों ने इसे पाला-पोसा और आने वाली पीढि़यों को विरासत की तरह सौंप दिया. होली का गीत-संगीत भी इसी वाचिक परंपरा का हिस्सा है.
मालूम हुआ कि आईसेक्ट की टीम ने लगभग दो-तीन बरसों तक ब्रज और मैनपुरी की गाँव-गलियों की खाक छानी और लोक गीतों का उसकी मौलिक धुनों के साथ संग्रह किया. दिलचस्प ये कि दो-चार-दस नहीं, सैकड़ों होली गीतों का ज़ख़ीरा हाथ लगा. फिर शुरू हुआ सिलसिला उन्हें गौर से सुनने और करीने से सँवारने का. इस दौरान महसूस हुआ कि ये गीत महज शब्द और स्वरों का संयोजन भर नहीं है, ये भारतीय संस्कृति और उत्सवधर्मी परंपरा के प्रतिबिंब है, जिनमें हमारी ही भूली-बिसरी यादों के अक्स झिलमिलाते हैं. अचानक कोई सुर हमारी आत्मा को छू जाता है, और हम गा उठते हैं.
ये गीत साबित करते हैं कि तमाम विसंगतियों और निराशाओं के बीच हमारी संस्कृति, परंपराओं और कलाओं के वासंती रंग अभी धूसर नहीं पड़े हैं. हमारे जीवन और कर्म में, संस्कारों और आचरण में, पर्व-त्योहार और अनुष्ठानों में आज भी परंपरा की ये पवित्र आवाज़ें सुनाई देती है. बात फागुन पर्व होली की करें तो रस-रंगों की एक ऐसी गागर छलकती है कि देह और आत्मा अमन, एकता और आपसदारी को मचल पड़ते हैं.
ये उल्लास और भीतर तक हिलोरें मारती उमंगें तब और परवान चढ़ती हैं जब किसी गाँव की चौपाल या आंगन से ढोलक-मृदंग की थाप और होरी की फागों का मीठा-मादक स्वर गूंजने लगता है. पुरानी यादों का झरना बह निकलता है. केसर-अबीर और गुलाल के लहराते बादल और तमाम राग द्वेष को भुलाकर मिलन को मचलती टोलियों के दृश्य हमारे ज़ेहन में कौंधने लगते हैं.
'होरी हो ब्रजराज' परंपरा के आंगन में उमड़ते ऐसे सुरों को थामकर आपको स्मृतियों के अनोखे संसार में ले जाने की कोशिश है. इस रंग-बिरंगे रूपक में लोक का खुला, मीठा संगीत है तो लय-ताल और साज-बाज की गमक के साथ शास्त्रीय राग-रागिनियों की हमजोली भी. इस बीच दिलचस्प पहलू नृत्य और अभिनय का भी जुड़ा. यानी गीत, संगीत और नृत्य का मिला-जुला रोमांच. जिसे हम आज की भाषा में फ्यूज़न कहते हैं, दरअसल किसी पराए मुल्क की कल्पना और प्रयोग नहीं, हमारी ही देशज परंपरा में परस्परता का पैगाम देती कला है.
चलो सखी यमुना पे मची आज होरी
…तो यहीं-कहीं मुरली माधव है, यहीं कहीं रसिक प्रिया राधा है, यहीं कहीं छिपे हैं गोकुल की ग्वाल-गोपियाँ. केशर, अबीर और गुलाल की उड़ानों से आसमान भर जाएगा. ढोल और मृदंग की थापे होंगी. फागों का अल्हड़ संगीत उमड़ेगा और नृत्य की थिरकन हम सबको उल्लास के आगोश में भर लेगी.
कान्हा की मुरली की तान छिड़ी तो पूरा माहौल बासंती हो उठा है. यमुना के इस वंशी तट पर बृज के हुरियारे कृष्ण-राधा के संग होली खेलने आ चुके हैं. प्रेम के अनंत रस और संगीत की लीलाओं में भीगने का ये मादक-मीठा मौसम है. एक सखि ने कृष्ण को देखा तो उत्साह के मचल पड़ी. कहने लगी- 'लिए कर में गुलाल, आयो जसुदा को लाल, चलै अलबेली चाल, नाचें दें दें के ताल, मारें पिचकारी कहे-होरी, होरी, चलो सखी जमुना पे मची आज होरी'.
इंसानी दुनिया की शायद ही ऐसी कोई तस्वीर और तारीख हो, जो होरी इन गीतों में न धड़कती हो. इस इन्द्रधनुषी आयोजन में होली के दो अलहदा पहलू हैं. एक ओर लोक गीतों से जुड़ी विशुद्ध वाचिक परंपरा के पहलू को छूने की कोशिश और गीत, संगीत, नृत्य तथा अभिनय की आपसदारी में जीवन और उत्सव की लालिमा को समेटने की कोशिश.
उत्तरप्रदेश के जनपदीय विस्तार में मैनपुरी क्षेत्र की अपनी ख़ासियत है. वाणी, वेश और परिवेश के अलग-अलग रंग हैं, महक है. होली के गीत जो जैसे हमारी तहज़ीब का आईना है. नज़रें जाकर मिलती हैं तो वृन्दावन की छवियाँ मुस्कुराने लगती हैं. कृष्ण और राधा हमारी मधुमय संस्कृति के स्थाई भाव है. कला की कोई भी विधा हो मुरली-माधव… नटवर-माखनचोर.. लालित्य के चितेरे कृष्ण और उनकी प्रिया राधा के बिना जैसे उसका रूप अधूरा है.
होली आयी तो यमुना का किनारा फागुनी रंगों से सराबोर हो गया. प्रेम का गुलाबी अहसास परवान चढ़ने लगा. ज़ाहिर है… कृष्ण हैं तो जैसे सारे रंग उनकी छवि के आसपास सिमट आए.
परंपरा के चटख रंगों के उल्लास से उमगती इन होलियों में मैनपुरी की मीठी-मादक होली के रंग भी शुमार किए हैं. विषय वस्तु की समानता के बावजूद इनकी तासीर कुछ जु़दा है. यह अल्हदापन उनकी धुनों को लेकर हैं. यहाँ संगीत में शास्त्रीयता का पुट है. स्वर-लय और ताल को संयम से साधने का अपना अंदाज़ है. भाव के लिहाज से देखें तो मानवीय प्रेम की प्रबल-प्रगाढ़ आकांक्षाएँ इनमें मुखरित होती है. मोहन पे रंग डारो री…. इस गीत को सुनते हुए हुरियारों की होली का दृश्य तो आँखों में तैरता है लेकिन उनकी ठुमकती हुई देह के साथ ताल का आनंद भी अनोखा है. इसी होली में एक आकर मिलता है श्रृंगार का एक और अहसास. कान्हा की एक और मनछूती छवि, जिस पर राधा का प्रेम और संदेह दोनों ही झलक रहा है. संबंधों के संसार में अपनापन ऐसी ही रंगत से भरा होता है जैसा कृष्ण और राधा का इस होरी में.
होली के गीतों की गुंजार भी लोकजीवन की सुरम्य विरासत की कथा सुनाती है. यहाँ जि़क्र उस लोक संगीत का जिसमें मिट्टी से उठती महक का सौंधापन गीतों की कडि़यों और लय की लडि़यों में झंकृत होता है. इस संगीत की सारी मिठास, उसका सारा ताना-बाना प्रकृति का दिया वरदान है. लोक संगीत की इसी सहज, स्वच्छंद और सुरीली संपदा को शास्त्रीय संगीत ने अपनी तरह से अपनाया. बेमिसाल बंदिशों की सौगातें दीं. ब्रज-मैनपुरी के इलाक़े में गायी-सुनी जा रही होली की बंदिशों में, यही खनक सदियों से कायम है. बृज मंडल की इन फागों का आकर्षण होते हैं राधा-कृष्ण. इस सुन्दर जोड़ी के आसपास समूचा गाँव सिमट आया है. मृदंग, झांझ, ढफ की थापों पर सब थिरक रहे हैं. रंग-गुलाल उड़ रहा हैं, सब हिल-मिल कर फाग खेल रहे हैं तो बरजोरी भी है.
ये बरजोरी का रंग डालना और भीतर तक भीगना सिर्फ देह के दायरे तक सिमटी होली का अहसास नहीं है, यह आत्मा के उस कोने तक बिखरा प्रेम का रोमांच है, जिसमें जन्म-जन्मांतरों के सुख का सागर लहरा उठता है. मैनपुरी की मटियारी महक का मनछूता झोंका भी कुछ ऐसा ही हैं. जितना अल्हड़ और अलमस्ती भरा गीत, उतनी ही मोहक बंदिश. संगीत के जानकारों का मज़ा दुगुना होगा यह जानकर, कि इस होरी गीत में राग तिलंग और विहाग का मिश्रण है. ध्रुपद, तराने और सरगम का पुट भी, जो बंदिश को और भी चमकदार बना देता है.
बृज प्रदेश में होली संगीत की प्राचीन और समृद्ध परंपरा रही है. होली के इस उल्लास मय पर्व पर मथुरा के आसपास के गांवों में गम्मतों का आयोजन किया जाता है. ये बैठकें एक तरह की संगीत गोष्ठी होती हैं. माघ शुक्ल पंचमी के शुभ दिन बसंत बंधने से होली गायन का श्रीगणेश होता हैं. हर दिन कहीं न कहीं बैठक जमती है. जैसे-जैसे होली का पर्व पास आता है इन संगीत गोष्ठियों का रंग तथा उल्लास और गहरा होता चला जाता है. गंभीर रागों के साथ हल्की फुल्की रचनाओं का दौर भी चलता है. यूँ, गम्मत एक नई गमक से भर उठती है- 'यशोदा नंद कौ, हमें तो जोगिनिया बनाई गयो रे…'.
होली की गम्मतों की अपनी अलग और अनूठी शैली होती है. इनमें शब्दों और भावों की सुन्दर कसीदाकारी होती है. शुरू में गंभीर तथा विलंबित तालों पर गाए जाने वाले काफी, पीलू आदि रागों का गायन होता है. इन्हें होरी या होली के नाम से जाना जाता है. भाव तथा बंदिश की दृष्टि से यह संगीत अपनी विविधता में अनूठा है. सात सुरों की संगत में भाव गीतों की ये दुनिया फागुन के बहाने द्वापर युग का एक ऐसा द्वार खोलती है जहाँ कृष्ण भारतीय जीवन और संस्कृति के सुनहरे अध्याय की तरह खड़े दिखाई देते हैं.
बृज की होलियों में उत्सव है, शिकायते हैं, हास-परिहास है, भक्तिभाव है. …जाहिर है कि यह सब है तो कृष्ण-गोपियाँ भी होंगी ही. …कृष्ण द्वारिका चले गये हैं. गोपिकाएँ हताश और व्यथित हैं. ब्रज में जैसे कुछ रहा ही नहीं. गोपिकाओं को कृष्ण के लौट आने की आशा भी नहीं है. लेकिन फिर भी मन के किसी कोने में एक प्रतीक्षा है. अगर कृष्ण लौट आये तो डटकर होली खेली जायेगी.
श्रीकृष्ण के विरह और संयोग की अद्भुत छटायें बृज की होलियों में देखने मिलती हैं. मुरलीधर माधव के वियोग की मारी एक ऐसी ही नायिका है जो विरह की एक शाश्वत कसक का प्रतीक बन गई है. पता नहीं, इस विरहिणी की प्रतीक्षा का कोई अंत है भी या नहीं. और अंत भी क्यों हो प्रतीक्षा का? यही तो उसके जीवन की अमर साधना है. ये वो तपस्या है जिसने गोपियों को सहज योग की दीक्षा दी. योग की अनुपम साधना ही है जो अद्वैत और आत्मीयता के उस चरम पर ले जाती है जहाँ राधा और कृष्ण एकमेक हो जाते हैं. …रूठने और मनाने की मीठी हमजोली इस होरी को और भी सुंदर बना देती है. 'राग पहाड़ी' की रूमानियत से भरे और 'दीपचंदी' की दिलचस्प चाल में निबद्ध इस मनुहारी गीत में प्रेम की उमगती कामना है तो रूठे हुए को मना लेने की मीठी सी उम्मीद भी है- 'बहुत-दिनन सौं रूठे श्याम… चलो होरी में मनाए लौ री…'.
प्रेम गहरी तल्लीनता और समर्पण चाहता है. जब ये रंग और गहरे होते चले जाते हैं तो इनका हर क़तरा इबादत बन जाता है.
सदियाँ बीत गयीं पर होरी के गीतों की गागर से छलकता मधु रस आज भी शिराओं में घुलकर बुझी, बेचैनी और हताश जि़ंदगी के चेहरे पर उम्मीद की चमक लौटाता है. "डगर बिच कैसे चलूँ मग रोके कन्हैया…" होरी के इस गीत में कान्हा और गोपी के बीच डर पर दिलचस्प मुलाक़ात का चित्रण हैं. सब कुछ इतना हार्दिक और मनोरम कि सुध-बुध खोकर इसी में रम जाने को जी चाहता है.
यहाँ शुभ और मंगल की कामनाओं के वंदनवार सज उठते हैं. समता, ममता और एकता के मंत्र मुखरित हो उठते हैं. यही है होली का सच.




(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)

विनय उपाध्याय कला समीक्षक, मीडियाकर्मी एवं उद्घोषक
कला समीक्षक और मीडियाकर्मी. कई अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए काम किया. संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगकर्म पर लेखन. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उद्घोषक की भूमिका निभाते रहे हैं.
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