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बाहरी ताकतों को उपद्रव फैलाने का तीन दशक पहले जैसा मौका न मिले
शेखर गुप्ता उत्तर प्रदेश में लखीमपुर खीरी कांड के कारण जो संकट पैदा हुआ है उसका राजनीतिक नतीजा क्या हो सकता है यह समझने के लिए मैं अगर यह कहूं कि आप पंजाब के हाल पर नज़र डालिए तो कैसा रहे? या पंजाब में जो कुछ हुआ है उसके परिणाम को समझने के लिए कश्मीर घाटी में मारे जा रहे अल्पसंख्यकों की संख्या गिनने को कहूं, और इन सबके नतीजों को समझने के लिए आपको तीन दशक पीछे जाने के लिए कहूं तो?
आगे बढ़ने से पहले जरा सोचिए कि 1990-91 में हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा का हाल क्या था। कश्मीर और पंजाब, दोनों में भारी उथलपुथल मची थी। पाकिस्तान के आईएसआई का इन दोनों, सबसे संवेदनशील राज्यों पर बोलबाला था। पंजाब के सिख भी उतने ही असंतुष्ट थे जितने घाटी के मुसलमान गुस्से में थे। जैसे आज तालिबान ने अमेरिका को परास्त कर दिया है, उसी तरह तब मुजाहिदीन ने रूसियों को खदेड़ दिया था और पाकिस्तान तथा आईएसआई खुद को सर्वशक्तिमान समझ रहे थे।
उस समय भारत में भी काफी राजनीतिक अस्थिरता थी। वी.पी. सिंह व चंद्रशेखर की सरकारें जल्दी-जल्दी विदा हो चुकी थीं, राजीव गांधी की हत्या के बाद पी.वी. नरसिम्हा राव अल्पमत वाली सरकार चला रहे थे। तूफान ऐसा ही तो होता है। आज हमारी हालत वैसी कतई नहीं है। केंद्र में आज एक मजबूत सरकार है।
पाकिस्तान काफी कमजोर हो चुका है। पंजाब में शांति बनी रही है और कश्मीर बड़े उपद्रव से मुक्त है। लेकिन कोई भी देश अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता करना तब नहीं शुरू करता जब पानी गले तक ऊपर आ गया हो। आप खामियों और चेतावनियों को पहले ही पहचानने लगते हैं। इनमें से कुछ ये रहीं...
लखीमपुर खीरी कांड से उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को बहुत नुकसान नहीं होगा। चूंकि यह सिख बनाम अन्य में तब्दील हो गया है इसलिए यह उलटे योगी के लिए अनुकूल ही साबित होगा। लखीमपुर खीरी में सिखों की आबादी करीब 3 फीसदी है। राज्य के किसी जिले में उनकी इससे ज्यादा आबादी नहीं है। इसलिए योगी सोच सकते हैं कि वे इस मसले को आसानी से निपटा सकते हैं।
लेकिन इसका पंजाब पर असर देखिए। इसने इस राज्य की राजनीति में खलबली मचा दी है, क्योंकि सिखों को उत्पीड़ित के तौर पर देखा जा रहा है। सिखों ने इस इलाके को भारत के सबसे उपजाऊ कृषि क्षेत्र में तब्दील कर दिया, लेकिन अपने मूल प्रदेश से गहरा रिश्ता भी बनाए रखा। इसीलिए कांग्रेस से लेकर शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी तक लखीमपुर खीरी की ओर दौड़ पड़ी है। वही पार्टी वहां नहीं गई है, जिसका पंजाब में कुछ दांव पर नहीं लगा। दूसरी पार्टियां अगर इसका फायदा उठा रही हैं तो उन्हें दोष मत दीजिए। उपरोक्त तीनों पार्टियों के दांव अगले साल केवल पंजाब में होंगे, उत्तर प्रदेश में फिलहाल तो नहीं हैं।
तीन दशक बाद पहली बार यह ऐसे समय में हुआ है जब पंजाब को बांधे रखने वाली राजनीतिक धुरी की कमी है। कांग्रेस ने अपने ही घर में आग लगा दी है। उसे एक लड़खड़ाती, दिग्भ्रमित, हताश इकाई के रूप में देखा जा रहा है। वह पंजाबियों में कोई उम्मीद नहीं जगा रही है। अकालियों ने भी कुछ समय पहले खुद को बर्बाद कर लिया था। सो, आज की स्थिति में एक स्थिर, एक-दलीय सरकार की उम्मीद नहीं की जा रही है। वैसे, पंजाब दो दलों वाला राज्य रहा है, मगर वे दोनों दल सिकुड़ते जा रहे हैं इसलिए, अगले कुछ महीनों में उत्तर के इन दोनों संवेदनशील राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता देखने के लिए तैयार रहिए।
कश्मीर घाटी में आतंकियों की करतूतें स्पष्ट हैं। वे वहां के अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर उन्हें फिर पलायन के लिए मजबूर करके 1990 को दोहराना चाहते हैं। यह केंद्रीय सरकार की साख को कमजोर करेगा और सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काएगा। आईएसआई के नए प्रमुख के लिए यह कम लागत, कम जोखिम और ऊंचा लाभ देने वाली चाल होगी, खासकर जब भारत के महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। दोबारा पलायन को अगर अभी नहीं रोका गया तो जम्मू-कश्मीर में चुनाव, परिसीमन करवाना, और उसे पूर्ण राज्य का दर्जा लौटाना मुश्किल हो जाएगा।
पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह चेतावनी देते रहे हैं लेकिन उनकी अनसुनी की जाती रही है। क्या हमें यह याद दिलाने के लिए उनकी जरूरत है कि घाटी ऑटोमेटिक हथियारों से अंटी पड़ी है? पिछले एक साल में भारी संख्या में ऐसे हथियार ड्रोन से पंजाब में गिराए जा चुके हैं? इस घातक मिश्रण में एक ही चीज की कमी है, इन हथियारों को उठा लेने वाले नाराज सिख युवकों की। ऐसा हुआ तो सोचिए कि क्या होगा।
उत्तर प्रदेश में पीलीभीत और लखीमपुर खीरी, पड़ोसी उत्तराखंड में उधम सिंह नगर ऐसे इलाके हैं जहां समृद्ध सिखों की अच्छी-ख़ासी आबादी है। सिख सख्त जिंदगी जीने के आदी होते हैं। पंजाब में आतंकवाद वाले दिनों का काफी असर यहां भी हुआ था और कुछ फर्जी एनकाउंटर भी हुए थे। यहां तक कि 2016 में भी ऐसे एक एनकाउंटर के लिए उत्तर प्रदेश के 47 पुलिसवालों को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई गई, जिन्होंने 1991 में पंजाब से लौट रहे 10 सिख तीर्थयात्रियों को आतंकवादी बताकर उनकी हत्या कर दी थी।
सिख, खासकर पंजाब के, नाराज और हताश हैं। इसमें कुछ सच्चाई है कि पंजाब के सिख किसान आंदोलन की जान हैं।और यहां सिख वोटों को महत्व नहीं दिया जाता। लेकिन क्या आप उनकी उपेक्षा कर सकते हैं, क्या उनका गुस्सा इतना भड़कने दे सकते हैं, जैसा लखीमपुर खीरी में भड़का? या क्या उन्हें खालिस्तानी घोषित करते रह सकते हैं? कोई सहानुभूति नहीं, कोई मरहम नहीं?
अब मैं आपको बताऊंगा कि आज यह सब मेरे दिमाग में क्यों उभरा। मैं निर्माता रॉनी लाहिड़ी और निर्देशक शूजित सरकार की फिल्म 'सरदार उधम' के कलाकारों से बात कर रहा था। शहीद उधम सिंह को, जिनका किरदार विकी कौशल ने निभाया है, पीढ़ियों से इसलिए पूजा जाता रहा है कि उन्होंने जालियांवाला बाग नरसंहार का बदला लेने के लिए इसके दोषी माइकल ओ'डायर की 21 साल बाद ब्रिटेन में हत्या की थी। उनकी स्मृति के सम्मान में ही लखीमपुर खीरी के पास के जिले का नाम उधम सिंह नगर रखा गया।
इस बारे में हम और ज्यादा कुछ न कहें। पंजाब के संदर्भ में मैं कई बार कह चुका हूं कि कभी भी नकारात्मक तस्वीर न पेश करें। होशियार पीढ़ियां उन चिनगारियों को हवा नहीं देतीं जिन्हें उन्होंने देश में आग लगाते देखा है और फिर अपने जीवनकाल में उसे बुझाते रहे हैं। कश्मीर की पुरानी समस्या की हल है पंजाब में अमन। 30 साल पहले जानी-पहचानी बाहरी कुटिल ताकतों को दोनों राज्यों में आग लगाने का मौका मिल गया था। वह मौका फिर नहीं देना चाहिए।
जल्द पहचानें खामियां
जरा सोचिए कि 1990-91 में हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा का हाल क्या था। कश्मीर और पंजाब, दोनों में भारी उथलपुथल मची थी। आज हमारी हालत वैसी कतई नहीं है। केंद्र में आज एक मजबूत सरकार है। पाकिस्तान काफी कमजोर हो चुका है। पंजाब में शांति बनी रही है और कश्मीर बड़े उपद्रव से मुक्त है। लेकिन कोई भी देश अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता करना तब नहीं शुरू करता जब पानी गले तक ऊपर आ गया हो। आप खामियों और चेतावनियों को पहले ही पहचानने लगते हैं।
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