सम्पादकीय

बिखरने लगी कांगड़ा की मिट्टी

Gulabi
9 Dec 2021 5:36 AM GMT
बिखरने लगी कांगड़ा की मिट्टी
x
पंजाब पुनर्गठन के बाद हिमाचल को विशालता देने वाले कांगड़ा को सत्ता की नाराजगी झेलनी पड़ी है
दिव्याहिमाचल.
राजनीतिक असंतुलन, क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षा, कमजोर नेतृत्व और भितरघात के दलदल में फंसे कांगड़ा से फिर दम घुटने की आवाजें और नई मुरादें सामने आ रही हैं। यह दीगर है कि पहले ही विधायक रमेश धवाला को अनसुना किया गया और बतौर मंत्री सरवीण चौधरी सत्ता की सबसे कमजोर कड़ी बनी दिखाई देती हैं। अपने संघर्ष के सारथी पूर्व मंत्री एवं सांसद रहे डा. राजन सुशांत ने फतेहपुर उपचुनाव में पुन: कांगड़ा का आक्रोश आकर्षित किया है। नूरपुर में भले ही बतौर मंत्री राकेश पठानिया ने खुद को बुलंद करने के फार्मूले ईजाद किए हैं, लेकिन रणवीर सिंह 'निक्का की हुंकार सारे संदर्भों की सूरत बिगाडऩे के लिए काफी है। चुनाव के आगमन से पूर्व पुन: विजय सिंह मनकोटिया राजनीतिक घास काटते हुए नजर न आएं, यह असंभव है और वह अपने अरमानों की दीवार पर कांगड़ा का आक्रोश लटका कर घंटी बजा रहे हैं। वह कांगड़ा एयरपोर्ट विस्तार, धर्मशाला को दूसरी राजधानी का दर्जा तथा तपोवन विधानसभा में सत्र का दो हफ्ते का विस्तार चाहते हुए, अपनी सियासी मिलकीयत खड़ी करना चाहते हैं।
पंजाब पुनर्गठन के बाद हिमाचल को विशालता देने वाले कांगड़ा को सत्ता की नाराजगी झेलनी पड़ी है या यह कहें कि इस क्षेत्र ने तमाम नालायक नेता पैदा किए या आपसी द्वंद्व में नेताओं की हस्ती मिटती रही, जब-जब अवसर दस्तक देता रहा। स्व. पंडित सालिग राम के पक्ष में इतने आंकड़े थे कि वह स्व. वाईएस परमार के मुकाबले मुख्यमंत्री बन सकते थे, लेकिन सत महाजन के सियासी आखेट के शिकार हो गए। दो बार भाजपा के मुख्यमंत्री बनकर भी शांता कुमार अगर पूरी यात्रा न कर पाए, तो उन्हें गिराने में ऐसा ही तंत्र सक्रिय रहा जिसने उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल से भी नीचे पटक दिया था। क्या शांता कुमार की सियासत से कांगड़ा की राजनीतिक उर्वरता बढ़ी या यह जिला मुख्यमंत्री की दावेदारी की क्षमता ही क्षीण करने के कगार पर पहुंच गया है। क्या स्व. जीएस बाली अपनी दावेदारी में मुख्यमंत्री पद के भरोसेमंद पात्र बने या वह भी स्व. संतराम की तरह यह नहीं चाहते थे कि कांगड़ा से कोई और नेता दिग्गज बन जाए।
कांगड़ा की राजनीति का खुद ही कांगड़ा इसलिए भी दुश्मन बनता रहा क्योंकि जातीय और वर्गों से ऊपर कोई नेता नहीं उठा। बेशक जीएस बाली ने ओबीसी बहुल इलाके का दिल जीता या सत महाजन ने राजपूत क्षेत्र में पैठ बनाई, वरना यह अवसर किसी गद्दी या ओबीसी नेता को भी पारंगत कर सकता था। ओबीसी नेता केवल चौधरी बने रहे, तो गद्दी नेताओं ने भी अपने समुदाय को ही सिंचित किया। सबसे अधिक अवसर किशन कपूर को मिले, लेकिन उन्होंने भी अपना दायरा संकुचित या सियासी संकीर्णता का ही परिचय दिया। इस बार उनकी सियासत को राजनीति के पिंजरे में बंद करने के पीछे जो खेला हुआ, उसकी वजह से कांगड़ा तो अब मुखौटा विहीन भी हो गया। विपिन सिंह परमार अपने व्यक्तित्व के संतुलन और राजनीति की सौम्यता ओढ़ते हुए दिखाई दिए, लेकिन इस सफर की भी कतरब्योंत हो गई।
जाहिर है कांगड़ा की राजनीतिक अक्षमता के कारण दूर-दूर तक मुख्यमंत्री का पद हासिल होता नहीं दिखाई देता। इस दोष के लिए विजय सिंह मनकोटिया भी आत्मचिंतन करें कि उनकी राजनीति के ध्रुव किस तरह अनिश्चय पैदा करते रहे। दलबदल की पराकाष्ठा में मनकोटिया ने तमाम संभावनाओं की होली जलाई, तो अब फसल काटने की उम्मीद में फिर से बिन पैंदे के लोटा ही साबित होंगे। उनका एक ही लक्ष्य सार्थक हो सकता है और अगर शाहपुर की जनता फिर मोहित होती है, तो वह भाजपा के उम्मीदवार को जिता कर खुश हो सकते हैं। यह दीगर है कि मनकोटिया तीसरे मोर्चे का चेहरा बनने का प्रयास करते रहे हैं। कभी तिरंगिनी टोपी पहनकर या कभी मायावती का हाथ पकड़ कर, लेकिन जमीनी यथार्थ को नहीं बदल पाए। कांगड़ा की सियासत का दूसरा भूकंप डा. सुशांत ने पैदा किया और वह भी तीसरे मोर्चे की फितरत में पहुंच कर बनते-बिगड़ते रहे, लेकिन इस बार उनका कौशल फतेहपुर में भाजपा को रुला गया।
वह इस उम्मीद में कांगड़ा की कितनी मिट्टी बटोर पाते हैं और अगर उनके पीछे तीसरे मोर्चे की क्षमता चल पड़ती है, तो इस बार वह पंडित सुखराम की तर्ज पर कांगड़ा का सियासी सामथ्र्य खड़ा कर सकते हैं। रणवीर सिंह 'निक्का जैसे प्रभावशाली उम्मीदवार निश्चित रूप से तीसरे मोर्चे की जीत का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। कांगड़ा को जिस नई सियासत की जरूरत है, उसे भाजपा का डिजाइन निराश कर रहा है, जबकि वीरभद्र सिंह की मौत के बाद कांग्रेस के सबसे अधिक सन्नाटे व प्रश्न कांगड़ा में ही उभर रहे हैं।
Next Story