सम्पादकीय

पहाड़ की सादगी और जीवन: सभ्यता जहां सांसे ले रही है और मनुष्यता सबसे पवित्र स्वरूप में है..!

Gulabi
1 Jan 2022 5:20 PM GMT
पहाड़ की सादगी और जीवन: सभ्यता जहां सांसे ले रही है और मनुष्यता सबसे पवित्र स्वरूप में है..!
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पहाड़ की सादगी और जीवन
सभ्यता की पराकाष्ठा को छूती हुई इंसानी बस्तियों से जब कभी इंसानियत की दम घोंटू आवाज हमारे सभ्य होने की तंद्रा को झकझोर देती है, तो हम यह सोचने को विवश हो जाते हैं कि क्या इंसान को इंसान का दर्जा देने वाली इंसानियत अभी जिंदा है? मानवता पर लगे इस बड़े प्रश्न चिन्ह को सिरे से नकारती हुई दो घटनाओं को मैं आपके साथ साझा करना चाहूंगा।
दरअसल, पिछले दिनों अपने हर की दून की यात्रा पर मुझे यह सुखद अनुभव हुआ ओसला गांव से 2 घंटे पैदल चलने के बाद हर की दून मार्ग पर 10 हजार फीट की ऊंचाई पर एक बूढ़ा आदमी, जिसका एक बेटा विकलांग है और जो अपने परिवार का एकमात्र रोजी-रोटी का आसरा है, वह एक प्लास्टिक के टेंट में आने जाने वाले यात्रियों के लिए चाय की स्टाल चलाता है वह हाड़ कंपाने वाली इस ठंड में ग्राहकों का इंतजार करता है जिससे उसका घर चल सके। 3 वर्ष पहले उसे अपना आधार कार्ड बनवाने के लिए कुछ सहायता चाहिए थी और मैंने इस कार्य में बस का मार्गदर्शन किया था।
इस बार जब मैं उसके पास पहुंचा तो उसकी सहायता करने की इच्छा से उसे कुछ पैसे देना चाहता था, इसलिए मैंने उसे अपने और अपने मित्र के लिए दो चाय मंगवाई और उसे ₹100 देने चाहे पर मेरे आश्चर्य की सीमा न रही उस अवर्णनीय कष्टों में अपना जीवन यापन करने वाले साधारण से दिखने वाले व्यक्ति ने पैसे लेने से स्पष्ट मना कर दिया। मेरी भरसक और अथक कोशिशों के बाद भी उसने वह पैसे मुझसे नहीं लिए जबकि मेरी उस छोटी सी सहायता के बदले, जो मुझे शायद याद भी नहीं थी।
इस घटना ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया। हमारे तथाकथित सभ्य समाज से आने वाला मैं आज उस चाय वाले बुजुर्ग के सामने अपने आप को बहुत बौना महसूस कर रहा था। वो व्यक्ति जो हमारे सभ्य और सुसंस्कृत समाज में सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से मुझसे कहीं बहुत पीछे खड़ा था, पर मानवता को मानव होने की पहचान देने वाली मानवता की कसौटी पर वो एक खरे सोने की तरह चमक रहा था, जिसकी चमक मुझे आश्वस्त कर रही थी कि मानवता अभी जिंदा है।
ऐसी ही एक और घटना ने मुझे इन सरल, स्वार्थहीन पहाड़ी लोगों के स्नेह के मोहपाश में बांध दिया। ओसला हर की दून घाटी के इस छोटे से पहाड़ी कस्बे में न जाने क्या आकर्षण है जो निरंतर मुझे अपनी ओर खींचती रही है।
एक अत्यंत कठिन पहाड़ी मार्ग पर स्थित 1 घंटे की यात्रा और कम से कम 5 घंटे की कठिन और दुष्कर चढ़ाई के बाद यहां पहुंचना संभव होता है। कड़कड़ाती ठंड और संसाधनों की कमी में अपने मवेशियों के लिए घास काटकर लाना, पानी को दूर से भरकर लाना, जलाने और खाना पकाने के लिए जंगल से लकड़ियां काट कर लाना, दादी परदादी के किस्से कहानियों का हिस्सा लगने वाले इस जीवन को यहां पर पांच, छः दिन बिताने के बाद ही समझा जा सकता है कि ऐसी स्थिति में किसी परिवार का उसके जीविका कमाने वाले सदस्य के बिना जीवन कैसा होगा?
जाहिर है इसकी शायद हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
इस बार की यात्रा पर मेरे गाइड ने मुझे एक परिवार की ऐसी दुखद त्रासदी के विषय में बताया, जहां पर एक महिला, जिसके पति की असमय मृत्यु हो गई थी और कुछ महीनों पहले उसकी मां की एक आंख की रोशनी भी चली गई थी। अपने तीन बच्चों, जो कि सभी 10 वर्ष से कम आयु के थे। उनके साथ इन कष्ट साध्य परिस्थितियों में जीवन यापन करने को बाध्य थी। मैंने अपने गाइड से वहां ले चलने को कहा मैं वहां जाकर उस के माध्यम से उनके द्वारा उगाया जाने वाला राजमा लेकर उसके बदले में कुछ पैसे देकर उसकी मदद करना चाहता था।
उसकी सहायता का भाव लिए हम दोनों उसके घर पहुंचे और उससे बातचीत करने लगे। उसने बहुत प्रेम से हमें चाय पिलाई फिर मेरे गाइड ने उससे राजमा देने को कहा तो वो बहुत ही प्रसन्नता और सम्मान से चार पांच किलो राजमा लेकर आई। मैंने उसके बदले में जब उसे पैसे देने चाहे तो उसने अत्यंत करुण स्वर में पैसे लेने से मना कर दिया और मेरे दोबारा कहने पर वह हाथ जोड़कर रोने लगी और जब उसने अपने आर्त स्वर और निष्कपट भाव से कहा कि उसके पास मुझे देने के लिए इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है, तो उसकी इस सरल और सच्ची वाणी ने मुझे एक बार फिर से आश्वस्त किया कि जिसको मरा हुआ समझकर हम कब का दफ़ना चुके हैं वह इंसानियत जीवन की कठिनतम परिस्थितियों में जीवन यापन करते इन फरिश्तों में आज भी जिंदा है।
आज के छल कपट से भरे समय में ऐसे निष्कपट व्यक्तियों से मिलकर मैं हतप्रभ था। अब जब मैं सोचता हूं तो समझ पाता हूं कि हमारी तथाकथित सभ्य सुसंस्कृत तकनीकी जंजाल में उलझी इस दुनिया से दूर रहने के कारण ही शायद मानवता का अस्तित्व इन लोगों के अंदर अभी बरकरार है। लेकिन ये कसक फिर भी मुझ में बनी हुई है कि-
क्यों बस दर्द और अंधियारे में इंसानियत जिंदा है?
क्यों नहीं हम खुद में उसके मर जाने पर शर्मिंदा हैं?
अमर उजाला
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