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राजनीतिक पार्टियों का चमचमाता स्वर्ण महल
विजय त्रिवेदी.
उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) का एक शहर है कन्नौज, जो इत्र उद्योग के लिए जाना जाता है. कन्नौज (Kannauj) के नाम से ही इत्र की महक महसूस होने लगती है और ना केवल देश में बल्कि दुनिया भर में यहां के इत्र की काफी मांग रहती है. पिछले दिनों समाजवादी पार्टी ने अपने चुनाव प्रचार के लिए भी एक समाजवादी इत्र लॉन्च किया था. पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने कहा कि समाजवादी इत्र की महक पूरे प्रदेश को महका देगी, लेकिन थोड़े दिनों बाद ही इस शहर के दो बड़े इत्र व्यापारियों के यहां पड़े छापों ने इसकी महक को दुर्गंध में बदल दिया. इन व्यापारियों के घरों और व्यावसायिक ठिकानों पर पड़े छापों में करोड़ों की काली कमाई मिली.
आरोप लगा कि इनका संबंध समाजवादी पार्टी से है, अखिलेश यादव ने आरोप लगाया कि बीजेपी ने अपने ही मित्र व्यापारी के यहां गलती से छापा पड़वा दिया. मसला कुछ भी हो, लेकिन इत्र व्यवसाय की महक पर असर ज़रूर पड़ा. कुछ दिनों बाद कन्नौज की राजनीति में एक और बड़ा धमाका सा हुआ. यहां पर भारतीय जनता पार्टी ने कन्नौज सदर से पूर्व आईपीएस अधिकारी असीम अरुण को चुनाव मैदान में उतार दिया. इत्र व्यापारियों के कानपुर ठिकानों पर जब वित्तीय एजेंसियां छापामारी कर रही थीं, उस वक्त असीम अरुण कानपुर में पुलिस के मुखिया थे. इसके कुछ दिनों बाद अरुण साहब ने सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा दिया और बीजेपी में शामिल हो गए. अब बीजेपी के कन्नौज सदर से उम्मीदवार हैं. वो भी बीजेपी ने अपने पुराने उम्मीदवार को हटा कर उन्हें टिकट दिया है.
"देने वाले भी श्याम जी और लेने वाले भी श्याम जी"
कन्नौज के इत्र व्यापारियों के यहां छापे और पुलिस अफसर रहे असीम अरुण में भले ही कोई सीधा रिश्ता ना रहा हो, लेकिन बीजेपी ने एक 'ईमानदार' छवि के तौर पर उन्हें चुनाव मैदान में उतारा है. इससे भी खास बात यह है कि अरुण साहब ने अपने मतदाताओं के नाम अपील जारी करके कहा है कि वो उन्हे चुनाव लड़ने के लिए चंदा दें, पैसे की मदद करें क्योंकि वो 'ईमानदारी की राजनीति' करने के लिए आए हैं. इस अपील में उन्होंने अपना बैंक खाता भी दे रखा है, जिसमें पैसा जमा कराया जा सकता है. खैर मुद्दा यहां यह नही है कि समाजवादी पार्टी की इस मजबूत सीट पर क्या बीजेपी जीतेगी या सपा का झंडा कायम रहेगा. मुद्दा है 'ईमानदार राजनीति' का, क्या आज यह दावा किया जा सकता है कि देश में राजनीति के लिए पैसे की ज़रुरत नहीं है?
असीम अरुण उस बीजेपी से उम्मीदवार हैं जो आज देश की सबसे अमीर पार्टी है तो क्या पार्टी अपने ईमानदार उम्मीदवार को चुनाव लड़ने में मदद नहीं करती? जब चुनाव इतने खर्चीले हो गए हों कि चुनाव आयोग को भी औपचारिक तौर पर चुनाव खर्च की सीमा बढ़ानी पड़ी हो, भले ही ज़्यादातर लोग मानते हैं कि उस चुनाव खर्च सीमा से कई गुणा ज़्यादा पैसा उम्मीदवार और राजनीतिक दल खर्च करते हैं तो ऐसे में एक महीने पहले राजनीतिक दल में शामिल हुए उम्मीदवार का जनता के पैसे से चुनाव लड़ा जाना क्या मुमकिन है? क्या राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार की मदद नहीं करते हैं?
माना जाता है कि बहुत से राजनीतिक दल तो सिर्फ़ पैसा कमाने का खेल चलाने के लिए ही राजनीति में आते हैं, इनमें छोटे दलों की तादाद ज़्यादा है, लेकिन बड़े राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की रकम से भी साफ हो जाता है कि 80 फीसदी गरीब आबादी वाले देश में राजनीतिक दलों के खजाने कैसे भरे हुए हैं और उसमें भी ज़्यादातर पैसा ऐसा है जिसको पारदर्शी नहीं कहा जा सकता. उस पैसे के देने वाले का नाम और लेने वाले का नाम सार्वजनिक नहीं होता, चुनाव आयोग को भी इसकी जानकारी नहीं होती, यानी वो कहावत सटीक उतरती है कि, "देने वाले भी श्याम जी और लेने वाले भी श्याम जी".
सबसे अमीर पार्टी बीजेपी है
पहले जान लेते हैं कि इस समय राजनीतिक दलों के पास अंदाजन कितना पैसा है और फिर समझेंगे कि यह पैसा कहां से आता है और क्यों आता है. चुनाव सुधारों की वकालत करने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट की माने तो भारतीय जनता पार्टी देश की सबसे अमीर पार्टी है. साल 2019-20 में बीजेपी ने अपनी संपत्ति 4 हज़ार 847 करोड़ रुपए घोषित की थी. दूसरी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस तीसरे स्थान पर है, जिसकी संपत्ति 588 करोड़ रुपए बताई गई है, लेकिन दूसरे नंबर पर बहुजन समाज की नुमाइंदगी का दावा करने वाली बहुजन समाज पार्टी है जिसकी संपत्ति 698 करोड़ से ज़्यादा है.
रिपोर्ट के मुताबिक सात राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की घोषित कुल संपत्ति 6 हज़ार 988 करोड़ रुपए है, जबकि 44 क्षेत्रीय दलों की घोषित संपत्ति 2 हज़ार 129 करोड़ रुपए से ज़्यादा है. बीजेपी की हिस्सेदारी सात दलों की कुल संपत्ति में 69 फीसदी है. क्षेत्रीय दलों में सबसे ज़्यादा संपत्ति समाजवादी पार्टी की 563 करोड़ रुपए है. 301 करोड़ की संपत्ति घोषित करने वाली तेलंगाना राष्ट्र समिति दूसरे नंबर पर है. इनमें दस क्षेत्रीय दलों के पास 95 फीसदी से ज़्यादा की हिस्सेदारी है. आम आदमी भले ही अपने भविष्य के लिए पैसा नहीं जुटा पाता हो, लेकिन राजनीतिक दलों ने अपना भविष्य कम से कम आर्थिक तौर पर तो सुरक्षित कर लिया है. राजनीतिक दलों में बीजेपी ने 3,253 करोड़ रुपए, बीएसपी ने 618 करोड़ रुपए और कांग्रेस ने 240 करोड़ से ज़्यादा रुपए सावधि खातों में जमा कर रखे हैं.
सितम्बर,2021 तक देश में कुल दो हज़ार 829 रजिस्टर्ड राजनीतिक दल हैं. रजिस्टर्ड राजनीतिक दलों को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है, पहली पंजीकृत या रिक्गनाइज्ड पॉलिटिकल पार्टी और दूसरी गैर पंजीकृत पार्टी. इनमें 97 प्रतिशत गैर-पंजीकृत राजनीतिक दल क्षेत्रीय और छोटे राजनीतिक दल बताए जाते हैं. अकेले उत्तर प्रदेश में 767 गैर-पंजीकृत राजनीतिक दल हैं. सभी रजिस्टर्ड राजनीतिक दलों को चंदा से पैसा जुटाने का अधिकार होता है. माना जाता है कि छोटी पार्टियां कैश यानि नकद में पैसा लेकर घोटाला करती हैं, क्योंकि दो हज़ार रुपए तक का चंदा लेने पर रसीद देने की ज़रुरत नहीं होती और बीस हज़ार तक चंदा देने वाले का नाम उजागर करने की आवश्यकता नहीं है.
इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से काले धन को क़ानूनी जामा पहनाया जा सकता है
बड़े राजनीतिक दलों के लिए गुप्त दान हासिल करने का रास्ता इलेक्टोरल बॉन्ड्स और इलेक्टोरल ट्रस्ट होते हैं, इसमें ज़्यादातर पैसा इलेक्टोरल बॉन्ड्स के जरिए लिया जाता है. साल 2018 में ये बॉन्ड शुरु हुए थे, चार साल में कुल 9 हज़ार 207 करोड़ रुपए का चंदा राजनीतिक दलों को इन बॉन्ड के जरिए मिला है. इस साल जनवरी में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से एक हज़ार 213 रुपए के बॉन्ड बिके हैं. इन बॉन्ड की खासियत यह है कि इनमें पैसा कहां से आया और किसने दिया, किस राजनीतिक दल को दिया, इसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं की जाती. सत्ता में बैठी पार्टी वित्त मंत्रालय के माध्यम से यह जानकारी हासिल कर सकती है कि किस पार्टी के खाते में और किसने यह पैसा दिया है, यानि वह कंपनियों पर भी नकेल कस सकती हैं.
साल 2018 से 2021 तक इन बॉन्ड्स से 7994 करोड़ रुपए दिए गए और राजनीतिक दलों ने यह पूरी रकम कैश करा ली है. ये पैसा कहां से आया और किसने दिया, इसका कोई अता-पता नहीं है. मौजूदा क़ानून के मुताबिक कोई भी रजिस्टर्ड राजनीतिक दल इलेक्टोरल बॉन्ड ले सकता है. इस राजनीतिक दल को बॉन्ड लेने से पहले हुए लोकसभा या विधानसभा चुनाव में कम से कम एक फ़ीसदी वोट मिले होने चाहिए. इन बॉन्ड को जारी होने के 15 दिनों के भीतर ही कैश किया जा सकता है वरना यह पैसा प्रधानमंत्री राहत कोष में चला जाता है. वैसे इस शर्त का कोई मायने नहीं है. सरकार चुनावी साल में राजनीतिक दलों को तीस दिन का अतिरिक्त वक्त भी इन्हें कैश करने के लिए दे सकती है.
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया, चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट ने भी इन बॉन्ड्स को क्लीन चिट नही दी है. चुनाव आयोग ने माना है कि चंदा देने वाले का नाम गुप्त रखने से यह पता लगाना मुमकिन नहीं होगा कि राजनीतिक दल ने धारा (29 B) का उल्लघंन करके चंदा लिया है या नहीं. विदेशी चंदा लेने वाला क़ानून भी इससे बेमायना हो जाएगा. सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से काले धन को क़ानूनी जामा पहनाया जा सकता है. माना जाता है कि जब इतनी बड़ी रकम कार्पोरेट घरानों से सरकार में बैठे राजनीतिक दलों या बड़े राजनीतिक दलों के खज़ाने में पहुंचती है तो इसका असर सरकार की नीतियों पर भी पड़ेगा,क्योंकि उद्योगपति बिना अपने फायदे के तो अपना पैसा किसी को देने वाले लगते नहीं है. उदाहरण के तौर पर समझिए कि वित्तीय वर्ष 2019-20 में कंपनियों को टैक्स और इंसेंटिव में छूट देने से सरकार के खज़ाने में करीब सवा दो लाख करोड़ रुपए कम आए और आम आदमी को सरकार के इस फ़ैसले के बारे में पता भी नहीं चला. इसमें दी जाने वाली रकम से विदेशी कंपनियां सरकारी नीतियों और राजनीतिक दलों पर असर डाल सकती हैं. रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के हिसाब से इससे 'मनी लॉन्डरिंग' को बढ़ावा मिल सकता है.
बड़े राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों की संपत्ति औसतन दस करोड़ रुपए है
देश के पांच बड़े राजनीतिक दलों को मिले चंदे का दो तिहाई से ज़्यादा हिस्सा इलेक्टोरल बॉन्ड से ही मिलता है. चंदे में भी सरकार ने जहां एनजीओ यानि समाजसेवी या स्वयंसेवी संस्थाओं को आयकर क़ानून के सेक्शन (80 G) से 50 प्रतिशत तक की छूट दी है, लेकिन राजनीतिक दलों को आयकर क़ानून में सेक्शन (80GGB) और (80GGC) के तहत सौ प्रतिशत तक की छूट दी है. इसके साथ ही सरकार ने विदेशों से चंदा लेने के लिए भी कई क़ानूनों में बदलाव कर दिए हैं. इस वक्त देश में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. चुनाव आयोग को दाख़िल किए गए हलफ़नामों को सही मानें तो पता चलता है कि चुनाव में हिस्सा लेने वाला हर तीसरा उम्मीदवार करोड़पति है. कई उम्मीदवारों की संपत्ति सौ करोड़ रुपए से भी ज़्यादा है. बड़े राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों की संपत्ति औसतन दस करोड़ रुपए है, जबकि आमतौर पर एक उम्मीदवार की औसत संपत्ति तीन करोड़ रुपए है.
साल 2019 के आम चुनावों को अब तक का सबसे महंगा चुनाव माना गया था. इस बार कोरोना गाइडलाइन्स की वजह से चुनाव प्रचार में एक बड़ा बदलाव आया है. ज़्यादातर राजनीतिक दलों को अब प्रचार के लिए 'वर्चुअल रैली' और 'सोशल मीडिया' का इस्तेमाल करना पड़ रहा है जो काफी खर्चीला माध्यम है. मतलब इसका फायदा बड़े राजनीतिक दलों को ही मिलेगा. छोटे राजनीतिक दल और निर्दलीय उम्मीदवार मुकाबले में पिछड़ सकते हैं. आजकल राजनीतिक दलों के प्रचार और सभाओं में जाने वाले स्टार प्रचारकों के कार्यक्रमों को देखें या फिर एक नज़र दिल्ली या किसी राजधानी के एयरपोर्ट पर डालेंगें तो समझ आएगा कि हर राजनेता 'चार्टेड' विमान या हेलिकॉप्टर से चुनाव प्रचार कर रहा है. अब राजनेता नियमित विमान सेवाओं का इस्तेमाल भी अपनी बेइज्जती मानते हैं, यानि चुनाव प्रचार दिनों-दिन महंगा होता जा रहा है तो फिर क्या राजनीति में ईमानदारी पर चर्चा करना बेमानी है या फिर यह दिखावा कि वो जनता के पैसे से चुनाव लड़ना चाहते हैं?
अब सादगी वाली नेतागिरी विलुप्त हो गई है
चलते-चलते एक किस्से का ज़िक्र करना ठीक लग रहा है. नब्बे के दशक में जब केन्द्र में वाजपेयी सरकार थी और राजस्थान में बीजेपी के नेता भैरोंसिंह शेखावत मुख्यमंत्री थे. वाजपेयी और शेखावत में गहरी दोस्ती थी. वाजपेयी के एक चहेते और पार्टी के बड़े नेता लोकसभा का आम चुनाव हार गए थे तो वाजपेयी ने शेखावत को कहा कि वो उन्हें बीजेपी की सबसे सुरक्षित मानी जाने वाली सीट जयपुर से जिता कर लोकसभा में भिजवा दें. शेखावत ने अगले दिन दिल्ली आ कर वाजपेयी से मुलाकात की और कहा कि वो उन नेता को राज्यसभा से भिजवा दें, क्योंकि जयपुर से चुनाव लड़ाने से उनकी पार्टी के कार्यकर्ता की संस्कृति ही बिगड़ जाएगी. शेखावत ने कहा कि अभी मेरा कार्यकर्ता खुद सभाओं में दरी बिछाता है, कुर्सी लगाता है और पूरी सब्जी खाकर अपने पैसे से सफ़र करता है. उन नेता को अगर जयपुर भेज दिया तो फिर यहां भी फाइव स्टार होटल कल्चर, बड़ी गाड़ियां और हेलिकॉप्टर या चार्टेड जहाज की आदत पड़ जाएगी, इसलिए माफ कीजिए.
क्या आप जानते हैं कि वाजपेयी ने उन नेता को राज्यसभा से भिजवा दिया. अब ना तो शेखावत हैं और ना ही वाजपेयी और ना ही उन जैसे दूसरे नेता जो प्रवास के दौरान होटलों के बजाय पार्टी कार्यकर्ता के घर रुकते थे. राजनीतिक व्यवस्था में यह बदलाव बहुत सारी चीज़ों का संकेत देता है, लेकिन अब इसे रोकने वाला कोई नहीं दिखता. राजनीतिक भ्रष्टाचार की यह गंगा दिनों दिन मैली होती जा रही है और अब इसकी सफाई की औपचारिक चिंता भी देखने को नहीं मिलती, क्या कह सकते हैं? फिलहाल उस बच्चे की तलाश है जो रथ पर बैठे राजा को बता सके कि…
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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