सम्पादकीय

हिंदी विरोध का दूसरा पहलू : स्थानीय भाषायी अस्मिता और राजनीतिक हित साधने की कोशिशों के मायने

Neha Dani
19 May 2022 1:42 AM GMT
हिंदी विरोध का दूसरा पहलू : स्थानीय भाषायी अस्मिता और राजनीतिक हित साधने की कोशिशों के मायने
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हिंदी अन्नादुरै की धरती पर भी धीरे-धीरे ही सही, अपनी राह तलाशने में जुटी हुई है।

तमिलनाडु के साथ हाल के दिनों में कर्नाटक में भी हिंदी विरोध में सुर उठने लगे हैं। यह बात और है कि दोनों ही जगहों पर आम लोगों का वैसा समर्थन अब नहीं मिल पाता, जैसा पिछली सदी के साठ के दशक में तमिलनाडु में दिखा था। यह बात और है कि इसी बहाने कुछ देर तक राजनेताओं द्वारा हिंदी का अपमान किया जाता है, स्थानीय भाषायी अस्मिता जगाई जाती है और अपने राजनीतिक हित साधे जाते हैं।

हिंदी को लेकर इस नकारात्मक बयानबाजी की वजह है बीते अप्रैल में संसदीय राजभाषा समिति को संबोधित करते हुए गृहमंत्री अमित शाह का वह बयान, जिसमें उन्होंने अंग्रेजी की जगह हिंदी को संपर्क भाषा के तौर पर स्वीकार करने की अपील की थी। उसके बाद हिंदी को विवादित और अपमानित करने की जैसे होड़ ही लग गई।
इसी कड़ी में किंचित ज्यादा विवादित और ताजा बयान है, तमिलनाडु के उच्च शिक्षामंत्री पोनमुडी का। उन्हें यह कहने में हिचक नहीं हुई कि हिंदी पढ़ने वालों को अगर नौकरी मिलती, तो वे पानी-पूरी क्यों बेच रहे होते? पोनमुडी ने न सिर्फ हिंदी पर तंज कसा है, बल्कि उन्होंने विशाल हिंदीभाषी वर्ग को कमतर दिखाने की कोशिश की है।
मगर वह भूल गए कि पांच सितारा होटलों और महंगे रेस्टोरेंटों में भी पानी-पूरी, गोल-गप्पे और टिक्की मिलते हैं और उन्हें बेचने वाले निखालिस अंग्रेजी बोलते हैं। तो क्या वे कमतर हो गए? नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। चेन्नई की हालिया यात्रा के दौरान पता चला कि हिंदी विरोधी राजनीति के प्रमुख स्तंभ करुणानिधि परिवार की भी स्कूलों की शृंखला चलती है, जहां हिंदी पढ़ाई जाती है।
हिंदी पढ़ाना वहां उसी तरह प्रतिष्ठा की बात है, जैसे उत्तर भारतीय अधकचरे स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाना। लेकिन तमिल राजनीति में अपना सिक्का जमाने के लिए करुणानिधि परिवार हिंदी विरोध का कोई मौका नहीं खोना चाहता। इस पाखंड को अब तमिलनाडु के लोग भी समझने लगे हैं। लेकिन ऐसे लोगों की संख्या अभी कम है।
नतीजतन हिंदी के समर्थन में जितनी तेज आवाजें वहां से उठनी चाहिए थीं, अभी नहीं उठ रहीं। हालांकि तमिलनाडु में लोग अब यह स्वीकार करने लगे हैं कि अगर हिंदी में तमिलनाडु की हेमा मालिनी नहीं आई होतीं, श्रीदेवी नहीं आई होतीं, रेखा को हिंदी से प्यार नहीं होता, कमल हासन हिंदी में अपने सिनेमा को लेकर नहीं आए होते, रजनीकांत की फिल्में हिंदी में रिलीज नहीं हुई होतीं, तो शायद ही उनकी अखिल भारतीय पहचान बनती।
अरविंद स्वामी, मणिरत्नम आदि तमाम नाम हैं, जिन्होंने हिंदी फिल्मों के जरिये नाम और दाम कमाया है। बेशक तमिलनाडु में हिंदी की पहुंच कम है, लेकिन वहां का पढ़ा-लिखा वर्ग भी अब मानने लगा है कि उसे कम से कम संपर्क भाषा के तौर पर हिंदी सीखनी ही होगी।
अखिल भारतीय सेवाओं के नए अधिकारी अब हिंदी सीखने पर जोर दे रहे हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि उन्हें हिंदीभाषी राज्यों में सेवा का मौका मिल सकता है और वे अपनी जिम्मेदारी तभी ठीक से निभा पाएंगे, जब उन्हें हिंदी का कामचलाऊ ज्ञान हो। हिंदी के लिए अक्सर कहा जाता है कि उसके विस्तार में सिनेमा का योगदान बड़ा है।
पर हमें याद रखना होगा कि भाषाओं के विस्तार में रोजी-रोटी से उसके जुड़ाव का महत्व कहीं गहरा होता है। इसका उदाहरण तमिलनाडु के मशहूर पर्यटक स्थल महाबलीपुरम में दिखा। वहां भिखारियों को जैसे ही पता चला कि सैलानियों का अमुक समूह उत्तर भारतीय है, तो वे ठेठ हिंदी में पैसे और खाने की मांग करने लगे। वहां छोटे-छोटे व्यवसायी भी उत्तर भारतीय सैलानी समूह को देखते ही हिंदी विरोध का कथित चोला उतार कर तत्काल हिंदी में बात करने लगते हैं।
साफ है कि तमिलनाडु में ही हिंदी को लेकर दो तरह की भावनाएं हैं। एक तरफ राजनीति है, जो हिंदी विरोध को उकसाती रहती है, तो दूसरी तरफ अखिल भारतीय नौकरी और व्यवसाय की चाहत रखने वाला वर्ग है, जिसे लगता है कि हिंदी ज्ञान जरूरी है। वह हिंदी सीख भी रहा है और हिंदी विरोध की राजनीति का विरोध भी कर रहा है। हिंदी अन्नादुरै की धरती पर भी धीरे-धीरे ही सही, अपनी राह तलाशने में जुटी हुई है।

सोर्स: अमर उजाला

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