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अफगानिस्तान में जो परिदृश्य बन रहा, वह भारत के लिए काफी खतरनाक
तिलकराज | अफगानिस्तान को साम्राज्यों की कब्रगाह कहा जाता है। जैसा अमेरिका के साथ हुआ, वैसा ही सोवियत संघ के साथ भी हुआ था। अफगानिस्तान की कम्युनिस्ट सरकार को बचाने के लिए 1979 में सोवियत संघ (अब रूस) ने अपनी सेनाएं भेजीं। पश्चिमी देशों को यह नागवार गुजरा। अमेरिका ने मुजाहिदीन को आधुनिकतम शस्त्रों से लैस कर उन्हें रूस से लड़ने के लिए प्रेरित किया। दस वर्षों तक भारी नुकसान सहने के बाद रूसी फौजें अपने देश वापस चली गईं। 11 सितंबर 2001 को अमेरिका में हुए आतंकी हमले के जवाब में अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया और वहां से तालिबान सरकार को उखाड़ फेंका। अमेरिका और नाटो की फौजें अफगानिस्तान में 20 वर्ष रहीं। एक अनुमान के अनुसार, इस अवधि में 2,443 अमेरिकी सैनिक मारे गए और अमेरिका का लगभग 2.3 टिलियन डालर खर्च हुआ। 14 अप्रैल 2021 को अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन ने एलान किया कि अफगानिस्तान से अमेरिका की फौजें 11 सितंबर तक वापस चली जाएंगी। जैसे-जैसे उनकी फौजें वापिस जाती रहीं, तालिबान के हमले बढ़ते रहे और करीब दस दिन में उन्होंने काबुल पर भी कब्जा कर लिया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह अमेरिका की बहुत बड़ी पराजय कही जा रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि भविष्य में अब चीन की बारी है। घटनाक्रम कैसे करवट लेगा और किन परिस्थितियों में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के दस्ते पाकिस्तान में आएंगे, यह अभी भविष्य के गर्भ में है।
तालिबान को पाकिस्तान की स्पेशल फोर्सेज और आइएसआइ का पूरा समर्थन
अफगान सरकार के विरुद्ध तालिबान की विजय तो निश्चित थी, परंतु यह इतनी शीघ्रता और आसानी से होगी, इसकी कल्पना अमेरिकी या भारतीय खुफिया एजेंसियों ने बिल्कुल नहीं की थी। तालिबान की जीत मुख्य रूप से तीन कारणों से हुई। पहला तो यह कि अमेरिकी सेनाओं के यकायक जाने से अफगान सुरक्षा बल हतोत्साहित हो गए। दूसरा कारण यह रहा कि तालिबान को पाकिस्तान की स्पेशल फोर्सेज और आइएसआइ का पूरा समर्थन था। तीसरा बड़ा कारण अफगान सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार से उपजा असंतोष था। कहा जाता है कि अफगान सैनिकों को समय पर वेतन तक नहीं मिलता था।
भारत ने अपनी तरफ से तालिबान को कभी मान्यता नहीं दी
यदि तालिबान से भारत के संबंधों पर दृष्टि डाली जाए तो स्पष्ट होगा कि दोनों के बीच सदैव असहमति ही नहीं, बल्कि वैमनस्य भी रहा है। 1999 में इंडियन एयरलाइंस के आइसी-814 विमान को आतंकियों ने हाईजैक कर लिया था और उसे कंधार ले गए थे। यहां तालिबान ने आतंकियों को संरक्षण दिया और उनकी मांग पूरी होने के पश्चात ही हवाई जहाज और यात्रियों को वापस भारत जाने दिया। 7 जुलाई 2008 को काबुल में भारतीय दूतावास पर हुए आत्मघाती हमले में 28 लोग मारे गए और 141 घायल हुए। 23 मई 2014 को चार आतंकियों ने हेरात में भारतीय महावाणिज्य दूतावास पर हमला किया। संक्षेप में, गत 20 वर्षों में भारतीय प्रतिष्ठानों या हितों पर तालिबान किसी न किसी प्रकार का आघात पहुंचाते रहे हैं। भारत ने अपनी तरफ से तालिबान को कभी मान्यता नहीं दी, उससे कभी औपचारिक स्तर पर वार्ता भी नहीं की। भारत की दलील थी कि तालिबान एक आतंकी संगठन है, इसलिए वह उससे संवाद नहीं कर सकता।
पाक के अलावा चीन, रूस, तुर्की और ईरान अफगान में पकड़ बना रहे
अफगानिस्तान में जो परिदृश्य बन रहा है, वह भारत के लिए काफी खतरनाक हो सकता है। पाकिस्तान के अलावा चीन, रूस, तुर्की और ईरान अफगानिस्तान में अपनी पकड़ बना रहे हैं। पाकिस्तान में तो जश्न का माहौल है। उसके नेताओं को इसकी प्रसन्नता है कि पूर्वी पाकिस्तान खोने के बाद अब उसे सामरिक पैठ मिली है। चीन ने भी खुलेआम कहा है कि वह तालिबान से दोस्ताना एवं सहयोगात्मक संबंध बनाएगा। चीन की दूरगामी नीति यह भी है कि वह अपनी बेल्ट एंड रोड परियोजना को अफगानिस्तान भी ले जाएगा। इसके अलावा अफगानिस्तान की खनिज संपदा का भी चीन को लोभ है। रूस को यह खुशी है कि अमेरिका ने उनके साथ जैसा किया था, वैसा ही उसके साथ भी हुआ। तुर्की की महत्वाकांक्षा यह है कि वह वैश्विक स्तर पर इस्लामिक देशों का नेतृत्व करे। ईरान का रवैया कुछ सतर्कतापूर्ण है। वहां के शिया नेता सुन्नी शक्तियों के उभार से बहुत खुश नहीं हो सकते।
क्या इतिहास की पुनरावृत्ति होगी
भारत की दृष्टि से पाकिस्तान, चीन और तुर्की का अफगानिस्तान में प्रभाव बढ़ना खतरे की घंटी है। ये तीनों देश भारत विरोधी हैं और हर प्रकार से भारत का अहित करना चाहेंगे। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार सुरक्षा की दृष्टि से भारत की सीमाओं पर आतंकियों का दबाव बढ़ेगा। पूर्व में पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के मुजाहिदीन कश्मीर में भेजे थे। क्या इतिहास की पुनरावृत्ति होगी? इसके अलावा, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मुहम्मद के हौसले अब पहले से ज्यादा बुलंद होंगे। ये दोनों संगठन कश्मीर में अपनी आतंकी गतिविधियां और तीव्र कर सकते हैं। इस्लामिक स्टेट फिलहाल अधिक सक्रिय नहीं है, परंतु अफगानिस्तान की जमीन में उसे फिर से पनपने के लिए अनुकूल वातावरण मिलेगा
भारत की प्रतिबद्धता और लगाव अफगान जनता के प्रति
अब भारत के सामने क्या विकल्प हैं? एक दूरदर्शी नेतृत्व कठिन परिस्थितियों में भी सफलता का रास्ता खोज लेता है। भारत को भी कुछ ऐसा ही करना होगा। सबसे पहले तालिबान से संपर्क कर यह बताना होगा कि हमारी प्रतिबद्धता और लगाव अफगान जनता के प्रति रहा है और भविष्य में भी रहेगा। विकास के लिए हमने जो करोड़ों रुपये वहां लगाए हैं, वह अफगान जनता की भलाई और प्रगति के लिए थे। हमें अपना दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से रखना पड़ेगा। अफगानिस्तान को बताना होगा कि उसकी भूमि का भारत में आतंक को बढ़ावा देने के लिए इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा आश्वासन मिलता है तो अच्छी तरह परखने के बाद भारत अफगानिस्तान की सरकार को मान्यता देने पर विचार कर सकता है। इसके अलावा हमारी खुफिया एजेंसियों को पश्तून राष्ट्रवादी तत्वों से संपर्क कर उन्हें सशक्त करने का प्रयास करना होगा। डूरंड रेखा को लेकर अफगानिस्तान और पाकिस्तान में मतभेद हैं, इसका लाभ उठाया जा सकता है। चीन उइगर मुसलमानों पर जो अत्याचार कर रहा है उसकी सही तस्वीर भी अफगानिस्तान की जनता और सरकार के सामने रखने का प्रयास होना चाहिए। चीन और तालिबान की दोस्ती विशुद्ध अवसरवादी है। वैचारिक स्तर पर दोनों विपरीत ध्रुवों पर हैं। इन दोनों पक्षों का अप्राकृतिक तालमेल जितना बिगड़े, उतना विश्व शांति के हित में होगा।