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- अपनों की आरी अपनों पर...
…तो वे कटती जड़ों वाले गिरते पेड़ की तरह मेरे पास आए। शुक्र खुदा का कि वे मुझ तक बिन गिरे पहुंच गए। पर अब जो वे मेरे सामने गिर भी जाते तो भी क्या होता! यहां तो आजकल हर दूसरा आदमी एक दूसरे के सामने मुस्कुराता शान से गिरा पड़ा है। इसीलिए न कोई गिरा अपने को उठवाने को किसी को अपने सामने खड़ा देख हाथ बढ़ा रहा है और न कोई खड़ा किसी गिरे को उठाने को हाथ ही बढ़ा रहा है। सबके हाथ सबकी जेबों में पड़े हैं। वैसे चरित्रवान से चरित्रवान की चरम परिणति गिरने में ही है। आज चरित्र की भाषा और परिभाषा दोनों बदल गए हैं। वैसे तय हैस जो उठेगा वह एक न एक दिन गिरेगा जरूर। अगर वह गिरे न भी तो उसे यार दोस्तों द्वारा तय मानिए वक्त से पहले शर्तिया गिरा दिया जाएगा। वैसे जब हम किसी को गिराते हैं खुद को तभी तो उठा पाते हैं। बिन किसी को गिराए खुद इंच भर भी अपने को कोई उठाकर बताए तो सही, लगे शर्त! किसी को गिराते गिराते कोई खुद भी तो गिर सकता है, पर किसी को उठाते उठाते कोई उठ नहीं सकता। अगर विश्वास न हो तो कोई किसी को गिराए बिना खुद को उठा कर दिखा दे तो उसके जूते से सड़ा पानी अमृत समझ पीऊं।
सोर्स- divyahimachal