- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- आसान नहीं शांति की
संजीव पांडेय; अफगानिस्तान में शांति चाहिए तो वहां मौजूद तमाम आतंकी संगठनों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि अफगान तालिबान के शासन में आतंकी संगठनों की गतिविधियां लगातार जोर पकड़ती जा रही हैं।
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के दस महीने बाद संयुक्त राष्ट्र की जो रिपोर्ट आई है, वह चिंता पैदा करने वाली है। इस रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अफगानिस्तान के भीतर अलकायदा, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठनों की गतिविधियां बेखौफ जारी हैं। इससे क्षेत्रीय शांति के लिए बड़ा खतरा खड़ा हो गया है।
रिपोर्ट के अनुसार अलकायदा के करीब चार सौ लड़ाके अफगानिस्तान के विभिन्न प्रांतों में मौजूद हैं और इनमें ज्यादातर लड़ाके पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश और म्यांमा के हैं। जाहिर है, आइएस वहां भाड़े के लड़ाके तैयार कर रहा है। इसके अलावा लश्कर और जैश के भी आतंकी प्रशिक्षण केंद्र वहां चल रहे हैं। अफगानिस्तान की धरती पर अगर यह सब हो रहा है तो बिना तालिबान सरकार की सहमति और मदद के यह संभव नहीं होगा। इसका मतलब साफ है कि तालिबान आतंकी संगठनों को पालने-पोसने की नीति पर चल रहा है।
हालांकि अफगानिस्तान को लेकर ईरान, भारत और ताजिकिस्तान सहित अन्य देशों की दुशान्बे में क्षेत्रीय सुरक्षा संवाद के चौथे दौर की बैठक हुई, लेकिन इसका कोई खास परिणाम सामने नहीं आया। पिछले साल नवंबर में आयोजित पहले क्षेत्रीय सुरक्षा संवाद में पाकिस्तान और चीन की भागीदारी नहीं थी। लेकिन इस बार दुशान्बे में चीन और रूस के प्रतिनिधि भी शामिल हुए।
चूंकि चीन और रूस शुरू से तालिबान सत्ता के समर्थक रहे हैं, इस लिहाज देखा जाए तो दुशान्बे की बैठक का अपना महत्त्व है। दरअसल अफगानिस्तान की शांति में सबसे बड़ी बाधा क्षेत्रीय शक्तियों का आपसी टकराव है। शांति प्रयासों को लेकर क्षेत्रीय विमर्श भले हो रहे हों, लेकिन इसमें भाग लेने वाले देशों के आपसी हितों के टकराव किसी से छिपे नहीं हैं। अफगानिस्तान में अपने हितों के लिए संघर्ष कर रहे भारत, पाकिस्तान और चीन का आपसी टकराव जगजाहिर है। इसी तरह ईरान-पाकिस्तान के बीच गतिरोध भी सामने हैं।
पर जब बात अफगानिस्तान की धरती के आतंकी इस्तेमाल और वहां मौजूद आतंकी संगठनों की गतिविधियों की आती है तो सभी देश अपने हितों को ध्यान में रखते हुए आतंकी संगठनों की पहचान कर उनके खात्मे पर जोर देने लगते हैं। चीन की चिंता अफगानिस्तान की धरती पर मौजूद उइगर आतंकी संगठनों को लेकर है। चीन सिर्फ ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट के खिलाफ ही कार्रवाई चाहता है। जबकि भारत की चिंता पाकिस्तान और अफगानिस्तान में सक्रिय जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा को लेकर है।
ये दोनों आतंकी संगठन पाकिस्तान सैन्य प्रतिष्ठान और खुफिया एजंसी आइएसआइ के संरक्षण में काम करते हैं और इनका निशाना केवल भारत है। जबकि पाकिस्तान की चिंता सिर्फ तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) को लेकर है। यानी हर देश केवल उसी आतंकी संगठन पर लगाम पर जोर देता है जिससे वह खुद परेशान है। चीन और पाकिस्तान जैश और लश्कर पर कार्रवाई को तैयार नहीं है। जबकि अलकायदा से लेकर अफगान तालिबान और हक्कानी नेटवर्क पाकिस्तान सत्ता तंत्र के नजदीक हैं। ईरान की अपनी अलग सोच है। पाकिस्तान के नजदीक जो भी आतंकी संगठन होगा, ईरान उसके खिलाफ है। ऐसे में आतंकी संगठनों का खात्मा और शांति की उम्मीद बेमानी लगने लगती है।
पर अब समय की मांग है कि चीन, पाकिस्तान, ईरान जैसे देश अपना नजरिया बदलें। अगर अफगानिस्तान में शांति चाहिए तो वहां मौजूद तमाम आतंकी संगठनों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि अफगान तालिबान के शासन में आतंकी संगठनों की गतिविधियां लगातार जोर पकड़ती जा रही हैं। अमेरिका से हुए शांति समझौते के वक्त अफगान तालिबान ने जो वादा किया था कि वह अपनी धरती से किसी भी आतंकी संगठन को काम नहीं करने देगा, वह झूठा साबित हुआ।
देखा जाए तो आतंकी संगठनों पर कार्रवाई को लेकर पश्चिमी ताकतें कभी गंभीर नहीं रहीं। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में अफगानिस्तान के भीतर अलकायदा, जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयब्बा के आतंकियों के मौजूद होने की रिपोर्ट महज खानापूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं लगती। फिर अब तो अमेरिकी फौज भी अफगानिस्तान की जमीन पर नहीं है। जब अफगानिस्तान की जमीन पर अमेरिकी सैनिक थे, तब भी अफगान तालिबान, अलकायदा, इस्लामिक स्टेट, लश्कर-ए-तैयब्बा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे संगठन पूरी ताकत के साथ काम कर रहे थे। अफगान तालिबान के संरक्षण में वहां अफीम की खेती और कारोबार होता ही रहा है और यह अब ज्यादा तेजी से फल-फूल रहा है।
अफगानिस्तान को लेकर क्षेत्रीय सुरक्षा संवाद के ठोस नतीजे नहीं आने का कारण यह भी है कि इसमें अफगानिस्तान के हितों पर गहराई से विचार विमर्श के बजाय जोर सबका अपने-अपने हितों पर ज्यादा रहता है। इस समय काबुल में पाकिस्तान के बिना कोई भी सुरक्षा विमर्श बेमानी है। वैसे तो कहा यही जा रहा है कि पाकिस्तान में नई सरकार सत्ता में आई है और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की नियुक्ति नहीं हो पाई थी, इसलिए पाकिस्तान बैठक में शामिल नहीं हुआ।
इसमें कोई शक नहीं है कि अफगानिस्तान को लेकर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ का नजरिया पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान से अलग होगा। शहबाज शरीफ बड़े कारोबारी भी हैं और वे क्षेत्रीय शांति का महत्त्व समझते हैं। पर अफगानिस्तान के मामलों में अंतिम फैसला बिना सेना की मर्जी के कर पाना संभव नहीं है। इमरान खान अफगान तालिबान के साथ-साथ तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के प्रति भी सहानभूति रखते थे। जबकि टीटीपी के प्रति पाकिस्तानी सेना का नजरिया बिल्कुल अलग है। पाकिस्तानी सेना टीटीपी के साथ किसी भी तरह की बातचीत और समझौते के खिलाफ रही है।
अफगान समाज की कबीलाई मानसिकता को समझे बिना अफगानिस्तान में शांति लाना मुश्किल है। अलकायदा, जैश और लश्कर ने अफगान समाज के कबीलाई विभाजन का जम कर फायदा उठाया है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में भी यह कहा गया है कि हाल में तालिबान के मुखिया हबेतुल्लाह अखुंदजाद ने कंधार में एक बैठक का आयोजन किया था, जिसमें तालिबान के लगभग एक सौ अस्सी वरिष्ठ कमांडर शामिल हुए थे। इस बैठक में कंधारी पश्तूनों और हक्कानी नेटवर्क के बीच मतभेद उभर कर सामने आए।
कुछ मुद्दों पर तालिबान के उदारवादी और कट्टर कमांडरों के बीच भी मतभेद दिखे। उदारवादी खेमे के मुल्ला अब्दुल गनी बरादर और शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकजई जहां दूसरे देशों से अच्छे संबंध विकसित करने वकालत कर रहे थे, वहीं तालिबान के कट्टर कमांडर इससे सहमत नहीं थे। हक्कानी नेटवर्क से जुड़े कमांडर अपना स्वतंत्र वजूद दिखाने में लगे थे। कंधारी पश्तून कमांडरों ने हक्कानी नेटवर्क के सिराजुद्दीन हक्कानी की उपप्रधानमंत्री बनने की कोशिश को नाकाम कर दिया। हक्कानी नेटवर्क आइएसआइ से नियंत्रित होता है जबकि कंधारी तालिबान कमांडर पाकिस्तानी नियंत्रण का विरोध करते रहे हैं।
अफगानिस्तान से सटे और आसपास के देशों को समझना होगा कि इस मुल्क में शांति लाए बिना क्षेत्रीय सहयोग और विकास संभव नहीं होगा। चीन, पाकिस्तान, ईरान सहित सभी देशों की जिम्मेदारी है कि वे अपने निजी हितों का त्याग कर अफगान शांति प्रयासों को आगे बढ़ाएं। साथ ही तालिबान सरकार को भी अपनी जमीन पर आतंकी संगठनों की मौजूदगी खत्म करनी होगी। अगर तालिबान आतंकी संगठनों को मदद और समर्थन की नीति को ही प्राथमिकता देता है तो इसका मतलब यही है वह अफगानिस्तान को और बड़े संकट में झोंक रहा है।