सम्पादकीय

सुगम न्याय की राह : अदालतें, अपराध और पीड़ित, पुलिस की कार्यप्रणाली में कमियां उजागर नहीं हो पातीं

Neha Dani
3 Aug 2022 1:35 AM GMT
सुगम न्याय की राह : अदालतें, अपराध और पीड़ित, पुलिस की कार्यप्रणाली में कमियां उजागर नहीं हो पातीं
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इसलिए न्याय प्रणाली को आधुनिक बनाने के लिए सूचना तकनीक का प्रयोग भी किया जाना चाहिए।

विगत 30 जुलाई को दिल्ली के विज्ञान भवन में राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण की ओर से आयोजित अखिल भारतीय जिला विधिक सेवा प्राधिकरण की बैठक के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि सुगम न्याय जीवन जीने की सुगमता जितना ही महत्वपूर्ण है! वहीं प्रधान न्यायाधीश जस्टिस रमण ने कहा कि न्याय व्यवस्था के सुचारु रूप से न चल पाने के कारण अक्सर देश के बहुत कम नागरिक न्यायालय तक पहुंचते हैं।




प्रधानमंत्री और प्रधान न्यायाधीश की इन भावनाओं के पीछे का मुख्य कारण है-न्याय मिलने में देरी और इसके कारण वादी का वर्षों तक न्यायालयों का चक्कर लगाकर परेशान होना! इस स्थिति से देश के निवासी व्यथित और दुखी हैं। देश के कानून मंत्री के अनुसार, इस समय देश में चार करोड़ 33 लाख मुकदमे लंबे समय से न्याय के इंतजार में लंबित हैं। आर्थिक अपराधों को उजागर करने के लिए अक्सर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के छापे पड़ते हैं और मामले दर्ज किए जाते हैं, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि ईडी के मामलों में सजा की दर मात्र 0.5 फीसदी है।


अदालतें तभी न्याय दे पाती हैं, जब कार्यपालिका उनके सामने अपराधों के साक्ष्य प्रस्तुत करती है। परंतु अक्सर विभिन्न राजनीतिक दबाव और भ्रष्टाचार के कारण कार्यपालिका के मुख्य अंग पुलिस और इसकी सहायक संस्थाएं अपराधों के साक्ष्य अदालतों के सामने लंबे समय तक प्रस्तुत नहीं कर पातीं। कानून व्यवस्था के इस लचर रवैये के कारण अपराधी बेखौफ घूमते हैं। शहरी क्षेत्रों में तो मीडिया कार्यपालिका की लापरवाही और कमियों को उजागर करता रहता है, परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यपालिका की कमियां उजागर नहीं हो पातीं।

अव्यवस्था, दबंगई तथा वोट बैंक की राजनीति के कारण अक्सर पुलिसकर्मी पीड़ित को निशाना बनाते हैं अथवा मूकदर्शक बने रहते हैं। जो कार्य कार्यपालिका को स्वतः करना चाहिए, उसके लिए लोगों को न्यायालय की शरण में जाना पड़ता है। भ्रष्टाचार के कारण पुलिस अक्सर दबंगों या सामर्थ्यवान लोगों का ही साथ देती है और उनके अपराध के साक्ष्य अदालत में पेश करने से टाल-मटोल करती है। नतीजतन मामलों के निपटारे में 20 से 25 साल आराम से लग जाते हैं!

इस दौरान अतिक्रमण करने वाले दबंग मुकदमा दायर करने वाले लोगों को मुकदमा वापस लेने के लिए तरह-तरह से दबाव डालते हैं और गवाहों को प्रभावित करते हैं। अक्सर छोटे-छोटे मुकदमों को लंबा खींचने में वकीलों का भी बहुत बड़ा हाथ होता है, वे फीस के लालच में मुकदमों में तारीख पर तारीख डलवाते रहते हैं। न्याय व्यवस्था के सुचारु रूप से न चलने के कारण सामाजिक वातावरण काफी अशांत और तनावपूर्ण हो जाता है।

आजादी के समय देश के नागरिकों को उचित न्याय दिलाने के लिए देश के संविधान और न्याय व्यवस्था को उदारवादी स्वरूप दिया गया था, जिसमें साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए और आरोपियों को अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए पर्याप्त मौके देने का प्रावधान किया गया है। परंतु देश का दुर्भाग्य है कि इस प्रावधान का भी अपराधियों और कार्यपालिका के निचले स्तर के कर्मियों ने जमकर दुरुपयोग किया है।

अब समय आ गया है कि आधारभूत ढांचे के साथ-साथ देश की न्याय व्यवस्था को भी इस प्रकार सुधारा जाए, कि एक आम नागरिक को समय से न्याय मिल सके। इसके लिए जनता के सीधे संपर्क में रहने वाले कार्यपालिका के कर्मियों को जिम्मेदार बनाना होगा, जिनमें जिलों के राजस्व और पुलिसकर्मी आते हैं! यदि इनके कार्यक्षेत्र में कोई अपराध होता है, तो उसके लिए इन्हें भी दोषी ठहराया जाना चाहिए।

जब इन कर्मियों के अंदर जिम्मेवारी की भावना मजबूत होगी, तभी वे अपराधों पर लगाम लगाने के लिए तत्पर होंगे। न्याय प्रणाली के नियम-कानूनों में इस तरह संशोधन होना चाहिए कि कोई उसका दुरुपयोग न कर सके। तकनीक के इस्तेमाल से काफी श्रम, समय और धन की बचत हो सकती है। इसलिए न्याय प्रणाली को आधुनिक बनाने के लिए सूचना तकनीक का प्रयोग भी किया जाना चाहिए।

सोर्स: अमर उजाला

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