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- हिजाब के खिलाफ...
आदित्य नारायण चोपड़ा: ईरान पश्चिम एशिया का ऐसा विशिष्ट मुस्लिम राष्ट्र है जिसे अपनी प्राचीन सभ्यता पर हमेशा नाज रहा है। सातवीं सदी में इस्लाम आने से पूर्व यह सभ्यता फारस की संस्कृति कहलाती रही है जिसका आर्य व रोमन सभ्यता से सम्बन्ध रहा है। इस देश की महिलाएं आज 21वीं सदी के दौर में यदि अपने मूलभूत मानवीय अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही हैं, तो पूरी दुनिया की आधी आबादी की सहानुभूति उनके साथ स्वाभाविक तौर पर जुड़ती जा रही है। 1978 में इस देश में जिस तरह इस्लामी क्रान्ति के नाम पर यहां के लोगों को पिछली सदियों में लौटाने की साजिश रची गई उससे इस देश की न केवल भौतिक प्रगति रुकी बल्कि सामाजिक तौर पर भी यह देश धार्मिक रूढि़यों में बंधता चला गया जिसका प्रकोप सबसे ज्यादा महिलाओं ने ही झेला। ईरानी इस्लामी क्रान्ति के जनक कहे जाने वाले आयतुल्लाह खुमैनी ने वैज्ञानिक व आधुनिक सोच रखने वाली ईरानी जनता को वहां स्थापित राजतन्त्र से मुक्ति दिलाने के नाम पर धार्मिक कानूनों व दास बना डाला जिसकी वजह से महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की होती चली गई। इनके घर से बाहर काम करने से लेकर चलने-फिरने और वस्त्र पहनने तक के कानून बना दिये गये और इसकी देखरेख करने के लिए धर्माचार पुलिस (मारल पुलिसिंग) तैनात कर दी गई। महिलाओं के लिए हिजाब पहनना आवश्यक बना दिया गया और सार्वजनिक स्थानों पर उनके आचरण की एक सीमा बांध दी गई। इसका उल्लंघन करने पर सख्त सजा की व्यवस्था की गई। यह जुल्म ईरान की महिलाएं पिछले 40 से अधिक वर्षों से सहती आ रही थीं। बीच-बीच में इस जुल्म के खिलाफ विद्रोह भी होता रहता था, मगर ईरान की सत्ता और पुलिस भारी बल प्रयोग करके इसे दबा देती थी। परन्तु पिछले महीने हिजाब ठीक से न पहनने के 'जुर्म' में पुलिस ने एक युवती पर अत्याचार किया उससे उसकी पुलिस हिरासत में ही मृत्यु हो गई जिसकी वजह से पूरे ईरान की महिलाओं का ज्वालामुखी फूट गया और वे देश के विभिन्न शहरों में सड़कों पर उतरकर हिजाब कानून का विरोध करने लगीं। अब इस आन्दोलन की आग में ईरान की सरकार भी तपिश महसूस कर रही है और वह अपनी ओर से इस आन्दोलन के फिजूल होने का प्रचार कर रही है तथा इसके लिए पश्चिमी देशों को दोषी बता रही है और कह रही है कि यह सब यूरोपीय देशों की शह पर हो रहा है। मगर क्या कयामत है कि पश्चिमी देशों की पीठ पर ही चढ़कर ईरान के शासक बने मुल्ला-मौलवी आज महिलाओं की आजादी को कुचलने के लिए यूरोपीय शक्तियों को ही दोषी बता रहे हैं, जबकि पूरी दुनिया जानती है कि 1978 में ईरान के शासक शहंशाह रजा पहलवी के खिलाफ इस्लामी क्रान्ति करने का काम अमेरिका व पश्चिमी देशों की शह पर ही आयतुल्लाह खुमैनी ने किया था। उस समय सोवियत संघ के एशिया में बढ़ते प्रभाव को रोकने की गरज से अमेरिका व पश्चिमी यूरोपीय शक्तियों ने ईरान समेत विभिन्न मध्य व पश्चिम एशियाई देशों में इस्लामी कट्टरपंथ को बढ़ाने के लिए हवा दी थी। जिससे इन देशों के तेल के खजाने पर उनका एकाधिकार हो सके। वरना शहंशाह रजा पहलवी के शासन में ईरान अच्छी-खासी प्रगति कर रहा था और यहां का समाज आधुनिक वैज्ञानिक विचारों के अनुरूप अपनी सामाजिक व्यवस्था चला रहा था। लेकिन सोवियत संघ के बिखर जाने के बाद वैश्विक परिस्थितियां बदलीं और अन्तर्राष्ट्रीय रणनीति में भी परिवर्तन आया। अब स्थिति यह है कि ईरान की जनता अपनी उस पुरानी व्यवस्था पर लौटना चाहती है जो शहंशाह के दौर में थी। हालांकि शहंशाह को भी अमेरिका व पश्चिमी शक्तियां ही ईरान में लोकतन्त्र समाप्त करके 1950 के करीब लाई थीं। इसकी वजह यह थी कि उस समय की डा. मुसद्दिक की चुनी हुई सरकार ईरान के राष्ट्रीय हितों को सर्वोच्च रखकर फैसले ले रही थी और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन की सामरिक व आर्थिक शक्ति क्षीण हो चुकी थी। ईरान में 1920 के लगभग पेट्रोलियम तेल मिला था और इसके बाद ही िब्रटेन व अमेरिकी तेल कम्पनियों के लिए यह देश बहुत बड़ा आकर्षण बन गया था। डा. मुसद्दिक ने तेल कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था जिससे ब्रिटिश तेल कम्पनियों की आमदनी का जरिया सिमट गया था। इसे पलटने के िलए डा. मुसद्दिक की सरकार के खिलाफ सैनिक विद्रोह कराया गया और रजा पहलवी खानदान की हुकूमत को मसल्लत किया गया। बाद में अपने हित साधने के लिए ही 1978 में इन्हीं शक्तियों ने इस्लामी क्रान्ति कराकर ईरान की प्रगति को पीछे की तरफ मोड़ डाला। मगर अब ईरान के लोगों में यह समझ आ गई लगती है कि वे अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि तभी रख सकते हैं, जब राजनैतिक रूप से उनके हाथ में ही ताकत हो और यह कार्य इस बार इस देश की महिलाएं कर रही हैं। यही वजह है कि उनके हिजाब विरोधी आन्दोलन को ईरानी पुरुषों का भी बराबर का समर्थन मिल रहा है और धीरे-धीरे यह आन्दोलन धार्मिक कानून चलाने वाली ईरानी सरकार के खिलाफ होता जा रहा है। इसका प्रमाण यह है कि जब बीते रविवार को ईरान के राष्ट्रपति इब्राहीम रईसी तेहरान के अलजाहरा विश्वविद्यालय में छात्रों व अध्यापकों को सम्बोधित करने पहुंचे तो वहां छात्राओं ने पुरजोर नारे लगाये 'दफा हो जा रईसी'। रईसी को युवा छात्राओं का कोप भाजन बनना पड़ा। छात्र अब ईरान की सड़कों पर यह नारा लगाते भी दिखाई पड़ रहे हैं 'मुल्लाओ दफा हो जाओ'।संपादकीय :तेल पर भारत की दो टूकसुरक्षा है तो खुशियां ही खुशियांमुस्लिम व ईसाई दलित ?नोबेल शांति पुरस्कारअम्बानी को धमकीज्ञानवापी का 'बोलता सच'दूसरी तरफ विश्वभर के सभ्य देशों के नागरिकों व राजनीतिज्ञों का समर्थन ईरानी महिलाओं को मिल रहा है। बेल्जियम की संसद के भीतर ही इसकी विदेश मन्त्री हदजा लहबीब व दो अन्य महिला सांसदों ने अपने बाल काट कर ईरानी महिलाओं के आन्दोलन का समर्थन किया। इसी तरह इससे पहले यूरोपीय संसद के भीतर स्वीडन की सदस्य 'अबीर अल- सहलानी' ने भी संसद को सम्बोधित करने के दौरान अपने बाल काट कर ईरानी महिलाओं को समर्थन दिया था। भारत में भी कुछ महिलाओं ने समर्थन की खुली घोषणा की है, परन्तु इसमें अभी वह रवानगी नहीं आयी है जिसकी भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश से अपेक्षा की जाती है।