सम्पादकीय

अखबार से लेखक का रिश्ता : संसार-सरकार के समक्ष स्वतंत्र सोच, त्रुटियों की गुंजाइश दरकिनार करने का माद्दा

Neha Dani
3 July 2022 1:45 AM GMT
अखबार से लेखक का रिश्ता : संसार-सरकार के समक्ष स्वतंत्र सोच, त्रुटियों की गुंजाइश दरकिनार करने का माद्दा
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इस लेख को रोकने का मतलब स्तंभकार के लेखन के विशेषाधिकार का हनन होगा और यह अखबार के अपने कायदों का भी उल्लंघन होगा।

मैं यूं तो उत्तर भारत में बड़ा हुआ, लेकिन मेरे घर पर जो अखबार आता था, उसका मुख्यालय एक महान शहर में था, जिसे तब कलकत्ता कहा जाता था। यह अखबार था, द स्टेट्समैन। इसके मुख्य संस्करण का प्रकाशन ब्रिटिश भारत की पहली राजधानी से होता था और उसके कुछ छोटे संस्करण ब्रिटिश राज की दूसरी और आखिरी राजधानी से प्रकाशित होते थे। देहरादून स्थित हमारे घर पर इस अखबार का दिल्ली संस्करण आता था।

मेरे पिता तीन वजहों से द स्टेट्समैन मंगवाते थे : वह सोचते थे कि अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाले सारे भारतीय अखबारों से इसमें बहुत कम अशुद्धियां और त्रुटियां होती हैं, और इसलिए भी, क्योंकि कभी उनके एक प्यारे भतीजे ने वहां काम किया था। मैं खुद इस अखबार को पसंद करने लगा था और इसके मेरे अपने कारण थे : विदेशी मामलों की इसकी शानदार कवरेज- मुझे विशेष रूप से इसके जेम्स कॉउले के लंदन लेटर्स की याद है- के लिए, इसके तीसरे विनोदपूर्ण संपादकीय के लिए और अंग्रेजी गद्य के मास्टर तथा प्रकृतिवादी एम कृष्णन के स्तंभ के लिए।
दिल्ली यूनिवर्सिटी में जाने के बाद भी मैं द स्टेट्समैन लेता रहा। हालांकि अर्थशास्त्र में दो डिग्रियों की पढ़ाई के लिए पांच साल वहां गुजारने के दौरान मैंने देखा कि अखबार में गिरावट आ रही है। कृष्णन वहां लिख रहे थे, लेकिन काउली ने छोड़ दिया था और कुछ अन्य ऐसे लेखक भी वहां से जा चुके थे, जिन्हें मैं पसंद करता था। सर्वाधिक परेशान करने वाली बात यह थी कि संपादकीय और प्रबंधन की दीवार को ढहाते हुए अखबार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने फ्रंट पेज पर अपने नाम से कॉलम शुरू कर दिया। यह कायदे के विपरीत तो था ही, अपठनीय भी था।
1980 में मैं समाजशास्त्र में डॉक्टरेट करने कलकत्ता चला गया था। यदि मैं नई दिल्ली में होता तो शायद मैं द इंडियन एक्सप्रेस लेता, लेकिन कलकत्ता में उसका कोई संस्करण नहीं था, सो मुझे स्टेट्समैन ही लेना पड़ा, जो कि तब तक मरणासन्न हो गया था, लेकिन रोज निकल रहा था। इसीलिए सात जुलाई, 1982 को द टेलीग्राफ का पहला संस्करण निकलने पर मैंने राहत और उत्साह के साथ उसका स्वागत किया। हमारे इंस्टीट्यूट के परिसर में अखबार देने वाला युवक भी बहुत उत्साहित था।
वह यह अखबार लहराते हुए हमारे हॉस्टल में आया (यह तब की बात है जब हमने अखबार को 'उत्पाद' मानना शुरू नहीं किया था) और टेलीग्राम! टेलीग्राम! चिल्लाने लगा। वह गलत उच्चारण कर रहा था, लेकिन कुछ हद तक मैं इसे आज भी 'टेलीग्राम' ही कहना चाहूंगा। द टेलीग्राफ के बारे में मुझे सबसे पहली बात यह लगी कि इसे कितनी खूबसूरती से बनाया गया था। मेरा सौंदर्यबोध, जो पहले निष्क्रिय था, अहमदाबाद में ग्राफिक डिजाइन की पढ़ाई कर रही बंगलूरू की एक लड़की के साथ कुछ वर्षों तक डेट करने के बाद जागृत हो गया था।
लेकिन इस रिश्ते को अलग रखकर भी मैं देख सकता था कि न केवल स्टेट्समैन, बल्कि टाइम्स ऑफ इंडिया और द इंडियन एक्सप्रेस की तुलना में द टेलीग्राफ को पकड़ना, महसूस करना और देखना कितना अधिक आकर्षक था। उस समय के किसी भी अन्य भारतीय समाचार पत्र की तुलना में यह बेहतर दिखता था और जिसे आसानी से पढ़ा जा सकता था; मास्टहेड भी आकर्षक था; और अपने प्रतिस्पर्धियों की तुलना में इसमें फोटोग्राफिक छवियों का उपयोग कहीं अधिक और प्रभावकारी तरीके से किया गया था।
जल्द ही मैंने पाया कि इसकी रिपोर्ट्स, लेख और संपादकीय अत्यंत पठनीय थे। द टेलीग्राफ के संस्थापकों में कॉलेज के दिनों के मेरे एक पुराने दोस्त परंजय गुहाठाकुरता भी थे। कई बार मैं ठाक, जैसा कि उन्हें इस नाम से जाना था, जोका स्थित अपने इंस्टीट्यूट से प्रफुल्ल सरकार स्ट्रीट स्थित अखबार के दफ्तर तक जाता था। न्यूजरूम में उत्साह और काम की तेजी नजर आती थी, यहां युवाओं का एक समूह द स्टेट्समैन के किले को ढहाकर इसे कलकत्ता का सर्वाधिक पसंदीदा अखबार बनाने के लिए प्रतिबद्ध नजर आता था। वह पूरे भारत में भी छाप छोड़ने की उम्मीद करते थे।
ठाक ने मुझसे पूछा कि क्या मैं अखबार के लिए कोई लेख दे सकता हूं। उसी समय भारत सरकार ने नए वन विधेयक का मसौदा तैयार किया था; और मैंने इसकी तीखी आलोचना की थी। ठाक ने मुझसे आग्रह किया कि मैं यह लेख छपने के लिए द टेलीग्राफ को दे दूं। मैंने वह लेख दे दिया, लेकिन जिस दिन इस लेख को छपना था, उसके एक दिन पहले अमिताभ बच्चन कुली फिल्म की शूटिंग के दौरान गंभीर रूप से घायल हो गए। भारत का सर्वाधिक प्रसिद्ध व्यक्ति (तब प्रधानमंत्री एक महिला थीं) जब जिंदगी और मौत से जूझ रहा था, वन कानून जैसे दुर्बोध विषय से संबंधित लेख का प्रकाशन अनिश्चित समय के लिए टल गया। अंततः मैंने इसे द टेलीग्राफ के सहयोगी अखबार बिजनेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित करवाया।
फिल्म के सेट पर यदि बच्चन घायल न होते, तो द टेलीग्राफ में मेरा आलेख उसी महीने प्रकाशित होता, जिस दिन उस अखबार का जन्म हुआ था। इसके एक दशक बाद इस अखबार में मेरी पहली बाइलाइन छपी, जब मैंने मानवविज्ञानी वेरियर एल्विन की नब्बेवीं जयंती (29 अगस्त, 1992) पर एक निबंध लिखा। इसके बाद के दशक में मैंने संपादकीय पेज के लिए साल में आठ से दस लेख लिखना शुरू कर दिया। अंततः 15 नवंबर, 2003 से मैंने द टेलीग्राफ में 'पॉलिटिक्स ऐंड प्ले' के नाम से अपना पाक्षिक स्तंभ लिखना शुरू किया।
मेरे अनुमान से अब तक चार सौ तिरासी आलेख हो चुके हैं। अब दो दशक हो गए हैं इस स्तंभ को। इस दौरान तीन अन्य भारतीय अखबारों में मेरे नियमित स्तंभ छपते रहे। लेकिन जब मैंने महसूस किया कि अखबार में नियमित लेखन से मुझे मेरी किताबों के शोध और लेखन के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल रहा है, मैंने एक-एक कर अन्य स्तंभ बंद कर दिए, जबकि द टेलीग्राफ में इसे जारी रखा। मैंने विदेशी अखबारों के लिए कॉलम लिखने के निमंत्रण को भी ठुकरा दिया और उसके बजाय इस स्तंभ पर अपनी ऊर्जा और ध्यान केंद्रित किया।
एक पाठक के रूप में, द टेलीग्राफ कई कारणों से मेरी पसंद का अखबार है। इसमें शामिल हैं, इसके गद्य की जीवंतता, इसके स्तंभकारों की बौद्धिक/वैचारिक विविधता, यह तथ्य कि इसमें अब भी हर हफ्ते किताबों के लिए समर्पित एक पूरा पृष्ठ है, और इसकी सुर्खियों का हास्य और शरारत। मुझे शायद यह भी बताना चाहिए कि क्यों, एक स्तंभकार के रूप में, मुझे द टेलीग्राफ से विशेष लगाव है। तीन कारण हैं, जो मैं यहां महत्व के आरोही क्रम में दे रहा हूं।
सबसे पहले, अधिकांश अन्य भारतीय मीडिया संस्थानों के विपरीत, द टेलीग्राफ अपने लेखकों को तुरंत भुगतान करता है। दूसरा, चूंकि कलकत्ता ने मुझे स्कॉलर बनने का मौका दिया, मुझे लगता है कि मुझे उस शहर (और बौद्धिक संस्कृति) को अपना कर्ज चुकाना होगा, जिसके लिए मुझे बहुत कुछ देना है। तीसरा, अन्य भारतीय मीडिया संस्थान के विपरीत, अपने स्तंभकारों के विचारों को लेकर यह राजनीतिक या आर्थिक या सामाजिक दबाव के आगे नहीं झुकता है।
द टेलीग्राफ की स्वतंत्र सोच इसके संस्थापक अवीक सरकार की छाप के कारण है। वह भारत में एक समाचार पत्र के दुर्लभ संपादक/मालिक रहे हैं- जो अपने लिए राज्यसभा सीट या किसी अन्य प्रकार की सरकारी मान्यता नहीं चाहते। उनका यह भी मानना है कि एक अखबार को बौद्धिक और राजनीतिक राय के सभी रंगों को प्रतिबिंबित करना चाहिए। कम्युनिस्ट विरोधी होकर भी उन्होंने इस अखबार में प्रमुख मार्क्सवादी विद्वानों को कॉलम दिए, रूढ़िवादियों और प्रतिक्रियावादियों के साथ-साथ मेरे जैसे उदारवादियों को अवसर दिया।
एक समय था, जब बंगलुरू में केसी दास की कोलकाता से बाहर स्थित एकमात्र ब्रांच से द टेलीग्राफ का प्रिंट संस्करण मिल जाता था। अफसोस की बात है कि लंबे समय से यह दुकान बंद है और मुझे ऑनलाइन पढ़ना होता है। टेलीग्राफ को मैं उसके चालीसवें स्थापना दिवस की बधाई दे रहा हूं।
पुनश्च : पिछले तीस वर्षों में टेलीग्राफ के संपादकों ने सिर्फ एक बार मेरे लेख को 'किल' करने की कोशिश की, वह भी इसी लेख को। उनकी राय थी कि मुझे उस अखबार से अपने संबंधों के बारे में कहीं और लिखना चाहिए। मैंने जोर दिया कि इस लेख को रोकने का मतलब स्तंभकार के लेखन के विशेषाधिकार का हनन होगा और यह अखबार के अपने कायदों का भी उल्लंघन होगा।

सोर्स: अमर उजाला

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