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पहचाने जाने के प्रतीक के तौर पर देखा जा रहा है.
और आखिर भारतीय सिनेमा की झोली ऑस्कर की दो सुनहरी मूरतों से भर ही गयी. भारतीय सिनेद्योग और सिने-प्रेमियों के बीच एसएस राजामौली की फिल्म ‘आरआरआर’ के गाने ‘नाटु नाटु’ और कार्तिकी गोंजाल्विस के निर्देशन में बनी निर्मात्री गुनीत मोंगा की डॉक्यूमेंट्री ‘द एलिफेंट व्हिसपर्स’ को ऑस्कर मिलने के बाद उत्साह व उल्लास है. स्वाभाविक है कि इसे भारतीय सिनेमा और भारतीय सिनेमा से जुड़ी प्रतिभाओं के विश्व पटल पर चमकने और पहचाने जाने के प्रतीक के तौर पर देखा जा रहा है.
ये पल सचमुच खुशी के हैं, उत्सव के हैं. लेकिन जब इन उत्सवों का शोर थम जाए, तो इस प्रश्न पर विचार भी होना चाहिए कि यह विजय यात्रा मात्र एक बरस तक व दो पुरस्कारों तक सीमित होकर ही न रह जाए और ऐसे अवसर बार-बार आते रहें. इस साल मिले दोनों ऑस्कर इस मायने में खास हैं कि पहली बार किसी विशुद्ध भारतीय काम को ऑस्कर के मंच पर सराहा गया है. पहली बार ऑस्कर का नाम भारत के साथ तब जुड़ा था, जब फिल्म ‘गांधी’ के लिए भारतीय कॉस्ट्यूम डिजाइनर भानु अथैया को ऑस्कर मिला था.
लेकिन इस फिल्म को एक ब्रिटिश रिचर्ड एटनबरो ने बनाया था और बहुत से लोग यह मानते हैं कि वह एक ‘विदेशी’ फिल्म के लिए भारतीय प्रतिभा को मिला ऑस्कर था. यही बात तब भी उछाली गयी, जब ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ के लिए रसूल पुकुट्टी को साउंड डिजाइनिंग में और इसी फिल्म के लिए संगीतकार एआर रहमान व गुलजार को गाने ‘जय हो’ के लिए ओरिजनल गीत व रहमान को ओरिजनल संगीत की श्रेणी में ऑस्कर मिले थे.
यहां तक कि जिन गुनीत मोंगा की बनायी डॉक्यूमेंट्री ‘द एलिफेंट व्हिसपर्स’ को इस साल ऑस्कर मिला है, उन्हीं की एक अन्य डॉक्यूमेंट्री ‘पीरियड एंड ऑफ सेंटेंस’ चार बरस पहले ऑस्कर पा चुकी है. पर उसकी डायरेक्टर रायका जेहताब्ची इरानियन मूल की अमेरिकी फिल्मकार हैं, तो उस ऑस्कर को भी भारतीयों ने दिल से नहीं अपनाया था. कह सकते हैं कि अभी तक आये ऑस्कर पुरस्कारों में जुड़े विदेशी नामों के चलते एक कसक भारतीयों के मन में थी, जो इस वर्ष काफी हद तक दूर हुई है.
हालांकि हर वर्ष जब भारत में ऑस्कर का शोर मचता है, तो उसके पीछे का मूल कारण ‘अंतरराष्ट्रीय फीचर फिल्म’ नाम की श्रेणी में किसी एक भारतीय फिल्म को भेजा जाना होता है, जिसे 2018 तक ‘विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म‘ के नाम से जाना जाता था. इस पुरस्कार के लिए ऑस्कर वाले सभी देशों से वहां की किसी स्थानीय भाषा में बनी एक फिल्म चुन कर भेजने का आग्रह करते हैं. वर्ष 1958 में महबूब खान निर्देशित ‘मदर इंडिया’ को भेजे जाने के बाद से शुरू हुए इस सिलसिले में अभी तक महज तीन बार हमारी कोई फिल्म अंतिम पांच फिल्मों में आ सकी है.
इनमें पहली ‘मदर इंडिया’ थी, दूसरी मीरा नायर की ‘सलाम बॉम्बे’ और तीसरी आशुतोष गोवारीकर की ‘लगान’. यहां यह उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि ‘लगान’ के नामांकित होने के समय इसके निर्माता आमिर खान ने जिस तरह अमेरिका जाकर वहां के लोगों और ऑस्कर अकादमी के सदस्यों के बीच अपनी फिल्म के प्रति हवा बनाने का काम किया था, उसके बाद ही भारत में ऑस्कर को लेकर गंभीर माहौल बना और न सिर्फ भारतीय दर्शकों ने इस तरह उत्सुकता से देखना शुरू किया, बल्कि भारतीय सिनेमा से जुड़े लोगों में भी इस दिशा में गंभीरता से प्रयास करने का जज्बा पैदा हुआ.
एक मानद ऑस्कर तो 1992 में भारतीय फिल्मकार सत्यजित रे को मिल ही चुका था, जिसे देने के लिए खुद वे लोग कोलकाता तक आये थे. भारत से हर वर्ष भेजी जाने वाली फिल्म के पक्ष-विपक्ष में हर साल विभिन्न आवाजें उठती हैं और जब वह फिल्म बाहर कर दी जाती है, तो उसके खिलाफ बोलने वाले इसे अपनी जीत समझ लेते हैं.
पिछले वर्ष इस बहस का एक नया रूप तब देखने को मिला था, जब गुजराती की ‘छेल्लो शो’ को भारत से आधिकारिक तौर पर ऑस्कर के लिए भेजा गया था. जहां हर साल किसी कमजोर या खराब फिल्म को भेजे जाने को लेकर विवाद होते थे, वहीं पिछले साल यह बहस ‘सही फिल्म बनाम अच्छी फिल्म’ को लेकर हो रही थी. ‘छेल्लो शो’ को सभी लोग अच्छी फिल्म तो कह रहे थे, लेकिन बहुत सारे लोग इसे ऑस्कर के लिए ‘सही फिल्म’ नहीं मान रहे थे.
उनका कहना था कि ‘आरआरआर’ को भेजा जाना चाहिए था. यहां तक कि एक प्रमुख विदेशी पत्रिका ने तो इस फिल्म को तीन-चार श्रेणियों में ऑस्कर दिये जाने की भविष्यवाणी भी कर डाली थी. इस फिल्म को बनाने वाले भी अमेरिका में मिले रिस्पांस को लेकर उत्साह में थे. अब जब इसके गाने को ऑस्कर मिला है, तो ये स्वर फिर से उठे हैं कि इस फिल्म को भेज कर हम सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय फीचर फिल्म का वह पुरस्कार भी पा सकते थे, जिसे पाने की आस पिछले 65 बरसों से हर भारतीय सिनेप्रेमी के मन में है. किसी फिल्म को अभी तक ऑस्कर न मिल पाने को लेकर भारतीय दर्शकों के मन में घर कर चुके मलाल को भी निकट भविष्य में भारतीय सिनेमा दूर कर पाए, ऐसी तैयारी और कोशिशों में अब तेजी आनी चाहिए.
सोर्स: prabhatkhabar
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Triveni
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