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- महाकाल का 'साकार'...
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By: divyahimachal
मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक शहर उज्जैन में मानो शिव-लोक अवतरित हो गया है। उसके कण-कण में महादेव का आभास हो रहा है, शिला-शिला पर शिव-शंभु की गाथाएं हैं, फिजाओं में शंकर की उपस्थिति व्याप्त है। शिव अनश्वर, अविनाशी हैं और महाकाल के नियंता हैं। कालखंड की सीमाएं नहीं हैं, तो महाकाल महादेव के असीम देवत्व की कल्पना की जा सकती है। शिव ही ज्ञान है और ज्ञान ही शिव है। उज्जैन भी शिवमय हो उठा है, क्योंकि महाकाल के लोक को साकार करने के कलात्मक प्रयास किए गए हैं। वैसे भी प्रभु शिव उज्जैन और काल के राजा हैं। भारत-भूमि के, विभिन्न स्थलों पर, महादेव मौजूद हैं, लिहाजा भारतीय सभ्यता, संस्कृति, समृद्धि और साहित्य सदियों से अजर-अमर हैं। अयोध्या में प्रभु श्रीराम का भव्य मंदिर आकार ले रहा है, वाराणसी में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर में धर्म के अनुष्ठान जारी हैं, केदारनाथ-बद्रीनाथ के परिसंस्कार किए जा चुके हैं, सोमनाथ मंदिर में माता पार्वती का देव-स्थान बनाया गया है, माता कालिका के मंदिर का पुनरोत्थान किया गया है। इनके अलावा रामायण, कृष्ण, बौद्ध और तीर्थंकरों के सर्किट बनाने की तैयारी है। इन सभी तीर्थ-स्थलों की आत्मा में महादेव शिव विराजमान हैं। उज्जैन तो कालजयी महाकवि कालिदास, सम्राट विक्रमादित्य, बाल रूप में श्रीकृष्ण और महाकाल ज्योतिर्लिंग की पवित्र भूमि है। उसकी आत्मा में भी ब्रह्मांड के स्वामी शिव हैं।
विक्रमादित्य से ही विक्रमी संवत की भारतीय काल-गणना का आरंभ हुआ। उज्जैन अद्भुत, अलौकिक, अद्वितीय भूमि है, जहां महाकाल का भव्य संसार उकेरा गया है और अभी सिलसिला जारी है। प्राचीनतम संस्कृति के गौरवमय अतीत का सौंदर्यीकरण और विकास किया जा रहा है। महाकाल के लोक के परिसर में घूमते हुए यह दैवीय एहसास बार-बार होगा मानो शिव-लोक में विचरण करने आए हैं। आज हम उज्जैन के महाकाल लोक के जरिए आध्यात्मिक चर्चा कर रहे हैं, तो उसके बहुत गहरे अर्थ हैं। यही भारत का मूल स्वरूप और चरित्र है। यही मानव-कल्याण और विश्व-बंधुत्व का पाठ पढ़ाता है। यही भारत को विश्व-गुरू का सम्मान प्रदान करता है, क्योंकि सदियों पूर्व हमारे पास शिव थे, समुद्र मंथन था, विषपान का दैवीय चमत्कार था, सप्तऋषि थे, सूर्यलोक था, आध्यात्मिक ज्योति, ज्ञान और दर्शन थे, ब्रह्म-चेतना थी, दैवीय आह्वान के मंत्र-सूत्र थे। महाकाल विश्व में एकमात्र दक्षिण-मुखी ज्योतिर्लिंग है, जो गहन ऊर्जा का स्रोत है और वह ऊर्जा प्रभु शंकर की है। अध्यात्म और संस्कृति के अलावा, ऐसे तीर्थस्थल अर्थव्यवस्था के मजबूत आधार भी हैं। भारत में करीब 5 लाख मंदिर और तीर्थस्थल हैं, जिनकी अर्थव्यवस्था 3 लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा है और लाखों भारतीय इनसे जुड़े हैं। यह नेशनल सैंपल सर्वे संगठन का आंकड़ा है, जो भारत सरकार का ही एक हिस्सा है। उसके मुताबिक, मस्जिदों की संख्या भी करीब 7 लाख और गिरजाघर 35,000 के करीब हैं। यह अर्थव्यवस्था भी औसत करदाता के पैसे से आती है, लेकिन ज्यादातर मंदिरों की स्थिति दयनीय है। जो अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय ख्याति के धर्मस्थल हैं, उनका जीर्णोद्धार हो रहा है। उनमें कार्यरत पुजारियों तथा अन्य कर्मचारियों के वेतन-भत्ते तय हैं।
सामान्य मंदिरों में पुजारी श्रद्धालुओं के दान पर आश्रित हैं। प्रधानमंत्री और राज्य सरकारों को इस स्थिति पर ध्यान देकर सुधार करने चाहिए। मंदिरों के आसपास अतिक्रमण भी किए जा रहे हैं, जो स्थानीय माफिया की कारगुजारियां हैं। जो विदेशी लोग हमारे धर्मस्थलों तक आते हैं, वे सम्मान और श्रद्धा के कारण आते हैं। इस तरह हमारी प्राचीनतम सभ्यता और संस्कृति से भी जुड़ते हैं। यही वसुधैव कुटुम्बकम का दर्शन है। विडंबना यह भी है कि महाकाल के लोक पर कांग्रेस ने श्रेय की राजनीति खेलने का प्रयास किया है। संभव है कि प्रोजेक्ट की विस्तृत रपट उसकी सरकार के दौरान बनाई गई हो और वर्क ऑर्डर भी जारी किया गया हो, लेकिन महाकाल तो सभी के हैं। उनका भव्य और आध्यात्मिक संसार तो तभी बस पाया, जब महादेव की कृपा हुई। देश के प्रधानमंत्री ने महाकाल के लोक का उद्घाटन किया, क्योंकि अब सरकार उनकी है। उन्होंने शिव-साधना की, तो उस पर आपत्ति कैसी? इन क्षुद्रताओं से बचना चाहिए, क्योंकि ये सांस्कृतिक कार्य हैं।
Rani Sahu
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