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- डेंगू से मृत्यु का...
आदित्य नारायण चोपड़ा: स्वतन्त्रता के बाद भारत ने जिस त्रिस्तरीय शासन प्रणाली को अपनाया ताे उसका मुख्य उद्देश्य यह था कि किसी राज्य के कस्बे की साफ-सफाई से लेकर राज्य के नागरिकों की विभिन्न क्षेत्रीय समस्याओं के साथ राष्ट्रीय स्तर पर नीति निर्माण में इस देश के लोगों की सीधी भागीदारी इस तरह सुनिश्चित हो कि हर धरातल पर पारदर्शी व्यवस्था नागरिकों की मुश्किलों को हल करती हुई चले जिससे यह राष्ट्र लगातार मजबूत होकर अपनी राष्ट्रीय एकता को अक्षुण्य रख सके और इसके नागरिक स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ सकें। इस संदर्भ में इस त्रिस्तरीय प्रणाली की पहली पौड़ी पर ग्राम पंचायतें या नगरपालिकाएं आती हैं (पंचायत राज व्यवस्था कानून लागू होने के बाद)। प्राथमिक स्तर पर स्थानीय लोगों की सामुदायिक व शहरी सुविधाओं का ख्याल ये चुनी हुई संस्थाएं ही रखती हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण किसी गांव से लेकर कस्बे या शहर की साफ-सफाई आती है। इसके अभाव में विभिन्न बीमारियों के फैलने का अंदेशा हमेशा बना रहता है क्योंकि किसी भी बीमारी की जड़ गंदगी ही होती है।उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद व मथुरा आदि जिलों में डेगू के प्रकोप से जिस प्रकार अबोध बालकों व शिशुओं की मृत्यु हो रही है उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि सड़कों पर फैली गन्दगी किस रूप में हमारे जीवन को तबाह कर सकती है। इन दोनों जिलों में अभी तक एक सौ से अधिक बच्चों की जान जा चुकी है और सैकड़ों अस्पतालों में गंभीर अवस्था में भर्ती पड़े हुए हैं। मगर दुखद यह है कि इस राज्य को मिलाकर भारत के किसी भी अन्य राज्य में साफ-सफाई की स्थिति लगभग ऐसी ही है। बड़े महानगरों तक में कुछ इलाके ऐसे हैं जिन्हें गन्दगी का 'स्मारक स्थल' तक कहा जा सकता है। साफ-सफाई की व्यवस्था की जिम्मेदारी मूलतः किसी ग्राम पंचायत से लेकर नगर पालिका या महापालिका का दायित्व होती है और भारत की सच्चाई अब यह हो चुकी है कि ये सभी संस्थाएं भ्रष्टाचार के 'महासंस्थान' बन चुके हैं। वृहन्मुम्बई महापालिका से लेकर किसी गांव की ग्राम पंचायत या नगर पालिका तक में सफाई के नाम पर जिस तरह लूट-खसोट होती है वह हर नागरिक के सामने खुली किताब है। इन सभी स्थानीय निकाय संस्थाओं को विभिन्न मदों में धन की प्राप्ति राज्य सरकारों द्वारा (किसी मामले में केन्द्र सरकार द्वारा भी) मुहैया कराई जाती है। जाहिर है यह कार्य सफाई कर्मचारियों के माध्यम से ही कराया जाता है।जब से इस देश में आर्थिक उधारीकरण का दौर शुरू हुआ है तब से इसकी सबसे बड़ी गाज चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों पर ही पड़ी है और इन्हें ठेकेदारों के हवाले कर दिया गया है। हकीकत यह है कि पालिका अधिकारियों व ठेकेदारों के बीच ऐसा गठजोड़ बन चुका है जो हर साल सफाई के नाम पर बढे़ हुए बजट का बहुत बड़ा हिस्सा खुद हड़प कर जाता है और सफाई कर्मचारियों को वही पुराने फटेहाल रहने पर मजबूर करता है। यदि हमें गांव से लेकर शहरों तक की सफाई व्यवस्था में सुधार करना है तो सबसे पहले इस गठजोड़ को तोड़ना होगा। बेशक आज उत्तर प्रदेश के दो जिले डेंगू की वजह से सुर्खियों में आ रहे हैं मगर कौन विश्वास के साथ कह सकता है कि भारत के किसी अन्य जिले या गांव में यह स्थिति नहीं पनप सकती है? भारत के छोटे-छोटे कस्बों से लेकर गांवों तक में सफाई की स्थिति यह है कि कूड़े के ढेरों और सड़ांध मारते जलभराव स्थलों के करीब लोग अपना जीवन बिताने को मजबूर हैं।संपादकीय :असम में शांति की ओर बड़ा कदमकिस ओर ले जा रहा है फिटनेस और स्ट्रैस का जुनून?तालिबान सरकार और भारतजजों की नियुक्तियां समय की जरूरतसोशल, डिजीटल मीडिया और न्यायमूर्ति रमणगाय राष्ट्रीय पशु घोषित होभारत के 80 प्रतिशत से अधिक गांवों में खुली नालियां बहती हैं और कस्बों व शहरों की स्थिति भी यह है कि इनमें बहने वाले गन्दे नालों की साफ-सफाई के नाम पर हर साल करोड़ों रुपये 'गठजोड़' जाता है और सफाई कर्मचारी जहां का तहां खड़ा-खड़ा सारा तमाशा देखने को मजबूर रहता है। इस हकीकत को हम इस तरह भी देख सकते हैं कि इसी देश में 'गटर' में उतरने वाले सफाई कर्मचारियों की मृत्यु की संख्या में साल दर साल बढ़ौतरी हो रही है (इनमें केवल महानगरों में मरने वाले कर्मचारियों की संख्या का ही पता लग पाता है)। देश में फिलहाल कोरोना का छुटपुट प्रकोप जारी है और सभी जानते हैं कि इस बीमारी पर नियन्त्रण पाने के लिए साफ-सफाई कितनी आवश्यक होती है। यह एक वैश्विक महामारी थी जिसकी वजह से इसका शोर भी ज्यादा मचा मगर गांवों से लेकर छोटे कस्बों व शहरों में गन्दगी से फैलने वाली बीमारियों के बारे में पूरी जानकारी मीडिया पर नहीं आ पाती है। फिरोजाबाद व मथुरा इसलिए सुर्खियों में आये क्योंकि वहां डेगू सीमित महामारी का रूप ले चुका है। सवाल यह है कि हमारे पास गांव के स्तर से लेकर महापालिका के स्तर तक सामुदायिक से लेकर सार्वजनिक स्वच्छता बनाये रखने का पूरा कारगर तन्त्र मौजूद है, इसके बावजूद गन्दगी मूलक बीमारियों से लोग मरते हैं। यदि यह हिसाब लगाया जाये कि स्वच्छता के लिए गांव स्तर से लेकर महापालिका स्तर तक भारत में हर साल कुल कितना खर्च होता है तो जनता के होश उड़ जाएंगे। मगर इस स्तर पर एकीकृत संभावित आंकड़ें इकट्ठा करना मुश्किल काम नहीं है। न तो पालिका स्तर के चुनावों में सफाई कोई मुद्दा बनता है और न ग्राम पंचायत के प्रधान के चुनावों के स्तर पर? 21वीं सदी के भारत में जब गांवों का शहरीकरण तेजी से हो रहा है तो मानसिक स्तर पर सोच जात-बिरादरी और सम्प्रदाय पर अटकी हुई है। इस विरोधाभास को दूर करके ही हम अपने असल मुद्दों का हल खोज सकते हैं। तभी तो हमारी नजर चिकित्सा तन्त्र के अभावों की तरफ जाएगी।