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उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में शिमला का हर गोरा रसिक बन गया था जब सुंदरता की एक देवी यहां पहंुच गई थी
अतिथि संपादक, डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088
हिमाचल रचित साहित्य -4
विमर्श के बिंदु
साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
अतीत के पन्नों में हिमाचल का उल्लेख
हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
लालटीन की छत से निर्मल वर्मा की यादें
चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में
श्रीनिवास जोशी, मो.-9418157698
उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में शिमला का हर गोरा रसिक बन गया था जब सुंदरता की एक देवी यहां पहंुच गई थी। हिंदुस्तानी तो केवल उसे दूर भर से देख लेते थे और एक 'आह!' और 'काश!' की आवाज़ उनके भीतर से अपने आप निकल आती थी। एमिलीईडन जो तत्कालीन वाईसराय की बहिन थी और डायरी लिखा करती थीं, 8 सितंबर, 1839 को लिखती हैं, 'शिमला आजकल हिला हुआ है क्योंकि एक श्रीमती जी यहां पहुंच गई हैं और उनकी सुंदरता की चर्चा पूरे वर्ष होती रहती है और वे महिलाएं, जो अपने आपको सुंदर समझती थीं, व्याकुल तथा उद्विग्न हैं।' यह महिला सन् 1820 में पैदा हुई और इन्हें एक लंबा-सा नाम दिया गया-मेरीडोलोरेज़ एलिज़ारोज्ज़ानागिलबर्ट। इनकी माता इनका विवाह एक 60 वर्षीय गठिया से पीडि़त धनाड्य से करवाना चाह रही थी, तभी यह लेफ्टिनैंट टोमस जैम्स के साथ भाग गई और फिर उनसे शादी भी कर ली। शादी के बाद 1839 में शिमला आई, जब उनके शौहर की नियुक्ति यहां हो गई।
शाम के समय जब वह पालकी में बैठकर मालरोड से निकलती थी, तब हर युवक और वयस्क की आंख झपकती नहीं थी- ऐसा सम्मोहन था मेरी ऐलिज़ा में। लोग उसे नभमंडल का तारा समझते थे। जब वह शिमला से कुछ दिनों के लिए इंगलैंड जा रही थी, तब उसकी मुलाका़त चार्ल्स लेनोक्स से हुई और मेरी ने उनके साथ खुल्लमखुल्ला इश्क किया। इसी बात पर उनके पति ने उससे तलाक़ लेना चाहा जो 1842 में उन्हें मिल गया। बाद में लेनोक्स ने भी उन्हें पटकी दे डाली। मेरी ने तब कुछ स्पेनिश नृत्य सीखे और वह नृत्यांगना बन गई। लोलामोन्टेज़, एक नृत्यांगना, के नाम से वह आज तक जानी जाती है। शिमला ब्रिटिश काल में, ग्रासविडोज़ का शहर माना जाता था। ग्रासविडो वह युवती होती है जो इस कारण से कि उसका पति कहीं और नौकरी करता है, अपने पति से कुछ समय तक अलग रहती है। अंग्रेज़ अपना समय गर्म इलाके में अपनी कंपनी या सरकार का काम निभाते थे और उनकी पत्नियां शिमला में 'घर का जैसा मौसम' में समय व्यतीत करती थीं। एक ऐसी महिला श्रीमती बैरट होती थीं। उनके पति जैकबैरट क्वेटा में नियुक्त थे। श्रीमती बैरट यहां खू़ब मौज करती थीं और एक जान-मानी रसिक थीं। एक दिन उन्हें अचानक ख़बर मिलती है कि उनके पति का क्वेटा में देहांत हो गया है। उन्होंने पांच महीने तक इसका शोक मनाया और फिर शादी कर ली। इसका वर्णन रडयार्ड किपलिंग ने अपनी एक क्षणिका में किया है। मशहूर नर्सरी राईम्स है जैक और जिल। इसी संदर्भ में एक कविता बनी जो उन दिनों के शिमला में बहुत प्रचलित थी ''जैक की प्यारी जिल जाती मरी, शिमला और चकराता, जैक रह जाता देस में और मौत का ग्रास बन जाता, जिल, छोटे शोक के बाद, हो जाती फिर से ब्याहता।'' ओसी सूद ने अंग्रेज़ी में एक पुस्तक निकाली थी 'दी शिमला स्टोरी'। उसमें उन्होंने एक क्षणिका के माध्यम से लेडी ब्राऊन का कि़स्सा बयान किया है जिनका प्रेम संबंध चौड़े मैदान के डॉनगोवारानीमैकारोनी के साथ था। यहां मैं पाठकांे को बता दूं कि 18वीं सदी के मध्य में इंगलैंड के उस व्यक्ति को मैकारोनीक हो जाता था जो अति फैशन करता हो, खाने में तुनकमिजाज़ी दिखाता हो और जुआ दबा के खेलता हो। चौड़ा मैदान का मैकारोनी वैसा था या नहीं, हमें मालूम नहीं। पर जो क्षणिका उन पर बनी थी, वह इस प्रकार थी ः ''महिला, महिला, कौन हो तुम जो धर के आई यह वेष/क्या आई हो तुम दूर से जिसे हम कहते चमकता देश? या तुम शिमला शहर में ही हुई थीं पैदा/और ब्राऊन नाम से करती हो शहर को षैदा? क्या गिरा दिया है तुमने अपना नाम ब्राऊनजान के? और अपना या गोवारानी मैकारोनी चौड़ा मैदान के।'' रडयार्ड किपलिंग, जिन्हें साहित्य में नोबेल प्राईज़ मिला है, पहली बार शिमला सन् 1883 में आए थे। उसके बाद वह गर्मियों का परिन्दा ही बन गए और 1885 से 1888 तक हर गर्मियों में आते रहे। उन्हें शिमला के उच्चवर्ग के लोगों के बारे में कई भेद मालूम थे। उनकी मित्र डेलिलियाअबेरिसविद की शादी एक सत्ता में बैठे व्यक्ति से हुई थी, अतः वह भी कहे जाने वाले बडे़ लोगों के बारे में कई भेद जानती थीं। दोनों यह भेद आपस में साझा करते थे। बंदरों के बहाने इस भेद को उजागर करते हैं किपलिंग ः'कला कौशल बंदर जिसने जीवन में अपने, देखा नहीं किसी और बंदर की बीवी के सपने।' एक और कहानी शिमला के स्कैन्डल प्वाइंट से जुड़ी है, वह है महाराजा भूपिन्द्र सिंह द्वारा लॉर्ड कर्ज़न की बेटी आईरीन को पृथ्वीराज-संयुक्ता शैली में उठाना और भगा ले जाना। मैं इसका खंडन करता हंू क्योंकि जिस समय यह घटना घटी उस वक्त महाराजा भूपिन्द्र सिंह की आयु केवल 13 वर्ष और आईरीन की उम्र 8 वर्ष की थी। इतनी छोटी उम्र में इस प्रकार से उठाना संभव नहीं होगा।
सच क्या है, यह जानिए। पटियाला के महाराजा राजेन्द्र सिंह ने 1882 में तीन भवन शिमला में ख़रीदे थे-ओकओवर, सिडार और रुकवुड। एक बार ओकओवर में महाराजा राजेन्द्र सिंह ने पार्टी दी और इसमें लेडी कर्ज़न को भी आमंत्रित किया। बेशक महाराजा लेडी कर्ज़न की सुंदरता पर मोहित थे या यों कहिए कि वह अमरीकन लेडी कर्ज़न के रसिक थे। उन्होंने उसे साड़ी पहनाई और अपने ख़जा़ने से आभूषण पहनाए और फिर उनके सिर पर हीराजडि़त ताज पहनाया। कुछ फोटो भी लिए। यह सब बातें किसी प्रकार लॉर्ड कर्ज़न तक पहुंच गईं और उन्होंने राजेन्द्र सिंह को शिमला-निकाला दे दिया। यहां मैं पामेला कंवर द्वारा लिखी पुस्तक इम्पीरियल शिमला के साथ जाता हंू जिसमें उन्होंने कहा था कि स्कैन्डल प्वाईंट का प्रचलित कि़स्सा समय के साथ घिसा-पिटा भ्रम है, सच नहीं है।
इतिहास को दर्शाती महत्त्वपूर्ण कृतियां
डा. कुंवर दिनेश सिंह, मो.-9418626090
-(पिछले अंक का शेष भाग)
अंग्रेज़ी में भारतीय मूल के लेखकों की कुछ कृतियां ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं जिनमें उल्लेखनीय है ः सन् 1901 में प्रकाशित बालगोविंद की 'दि लाइफ़ ऑफ़ राजा सर शमशेर प्रकाश ऑफ सिरमौर'। इस पुस्तक में सिरमौर के राजा शमशेर प्रकाश की सम्पूर्ण जीवनी तथा उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के साथ-साथ तत्कालीन सिरमौर के जनजीवन की झलक भी मिलती है। सन् 1930 में प्रकाशित मनमोहन की 'हिस्टरी ऑफ दि मंडी स्टेट' मंडी के इतिहास का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है। पांडुलिपि के रूप में उपलब्ध एक अन्य कृति है ः हाकिम सिंह चौहान द्वारा लिखी पुस्तक 'धामी इन 1939 एडी' (1939)। इस पुस्तक में शिमला के निकटवर्ती पूर्व ठकुराई धामी में 16 जुलाई 1939 की चर्चित घटना 'धामी गोली कांड' के तथ्य एवं प्रमाण जुटाए गए हैं।
भारत की स्वतंत्रता पश्चात् हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी राज्य बनाए जाने पर इसके प्रथम मुख्यमंत्री डा. यशवंत सिंह परमार ने अपनी पीएचडी की उपाधि के लिए हिमाचल के जनजातीय क्षेत्रों में बहुपति प्रथा पर शोधकार्य किया था, जो सन् 1942 में 'हिमालयन पोलिऐण्ड्री ः इट्स सोशल, इकनॉमिक एंड पोलिटिकल बैकग्राउंड' शीर्षक से एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ था। उत्तर-पश्चिमी हिमाचल में किन्नौर व ऊपरी शिमला तथा सिरमौर इत्यादि क्षेत्रों में जनजातीय प्रथाओं और रीति-रिवाज़ों को समझने के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है।
महिला लेखक
ब्रिटिश काल में हिमाचल में अंग्रेज़ी में लेखन करने वाली चार महिलाओं के नाम उल्लेखनीय हैं ः एमिली ईडन, एलिस एलिज़ाबेथ ड्रेकॉट, नोरा रिचर्ड्ज़ और एमएम केइ। एमिली ईडन एक ब्रिटिश मूल की उपन्यासकार, कथाकार एवं चित्रकार थीं जो अपने भारत दौरे के समय शिमला में भी ठहरी थीं। उनकी पुस्तक 'अप दि कंटरी' भारत के पहाड़ी क्षेत्रों पर केन्द्रित है जिनमें हिमाचल का भी जि़क्र किया गया है। श्रीमती एलिस एलिज़ाबेथ ड्रेकॉट भारतीय लोकसंस्कृति के अध्ययन के लिए सिमला आई थीं। उनकी पुस्तक 'सिमला विलेज टेल्ज़' जो सन् 1906 में प्रकाशित हुई थी, शिमला पर केन्द्रित एक महत्त्वपूर्ण कृति है। इस पुस्तक में उन्होंने अपने भारत के दौरे में शिमला के निकटवर्ती गांवों के निवासियों का साक्षात्कार करके विभिन्न लोककथाओं को एकत्र करने और सहेजने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इन कहानियों में से अधिकांश में लोकजीवन, लोककला एवं लोकास्था की पारदर्शिता है। इनमें कई कहानियां मौखिक परंपरा की हैं।
सन् 1876 में जन्मी नोरा रिचर्ड्स एक आयरिश मूल की अभिनेत्री, लेखक और रंगकर्मी थीं जिन्हें बाद में 'पंजाब की लेडी ग्रेगरी' के नाम से भी संबोधित किया जाता रहा। उन्होंने अपने जीवन के 60 वर्ष (1911-1971) पहले पंजाब और फिर हिमाचल में कांगड़ा क्षेत्र की संस्कृति को समृद्ध करने के लिए समर्पित कर दिए। उन्होंने फिलिप अर्नेस्ट रिचर्ड्स से शादी की जो एक अंग्रेज़ी शिक्षक थे। वे 1908 में भारत आईं क्योंकि उनके पति ने लाहौर के दयाल सिंह कॉलेज में अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ाने की नौकरी स्वीकार कर ली थी। नोरा रिचर्ड्स कॉलेज में सांस्कृतिक गतिविधियों में शामिल होती थीं और उनके उत्साह ने कॉलेज में नाटकीय गतिविधियों को प्रोत्साहित किया। उन्हें थियोसॉफी में रुचि थी और डा. एनी बेसेंट द्वारा थियोसॉफिकल आंदोलन और होम-रूल आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल रहीं।
1920 में अपने पति की मृत्यु पर, नोरा इंग्लैंड लौट गईं। सन् 1924 में वे भारत वापस आईं। उन्होंने हिमाचल प्रदेश में नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण एवं धौलाधार के सान्निध्य में अवस्थित कांगड़ा घाटी में अंद्रेटा में अपना घर बना लिया। गांव वालों के बीच रहते हुए उन्होंने वही जीवनशैली अपनाई और अपने लिए घास-फूस की छत वाला गारे-मिट्टी का कच्चा घर बनाया। उन्होंने इसका नाम 'चमेली निवास' रखा। नोरा ने नाटक का एक स्कूल खोला जिसमें से पंजाबी नाटक के कई प्रसिद्ध नाम उभरे जिनमें ईश्वर चंद नंदा, डा. हरचरण सिंह, बलवंत गार्गी और गुरचरण सिंह प्रमुख हैं। नोरा की पुस्तक 'कंटरी लाइफ' प्रकृति के अंचल में रहते हुए उनके अनुभवों पर आधारित लेखों का संग्रह है जिसे प्रोफेसर एम. एस. रंधावा ने अपने प्राक्कथन के साथ सन् 1970 में प्रकाशित करवाया। एम. एम. केइ का जन्म 1908 में ब्रिटिश भारत के शिमला में हुआ था और 1915-1918 तक उनका निवास ओकलैंड, शिमला में रहा। केइ के पिता सेसिल काये भारतीय सेना में एक ख़ुफिया अधिकारी थे। एम. एम. केइ के दादा, भाई और पति सभी ने ब्रिटिश राज की सेवा की। उनके दादा के चचेरे भाई सर जॉन केइ ने 1857 के भारतीय विद्रोह और प्रथम अफगान युद्ध के मानक लेख लिखे थे।
ब्रिटिश राज के दौरान शिमला में रहते हुए उन्होंने मॉली केइ नाम से बाल-कहानियां एवं लघु उपन्यास लिखे, लेकिन उनका अधिकतर लेखन भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् का है जो एम. एम. केइ के नाम से प्रकाशित हुआ। ब्रिटिशकालीन हिमाचल में अंग्रेज़ी में लिखने वाले और भी बहुत से लेखक हुए हैं जिन्होंने लेखों के रूप में अथवा रियासतों के लिए विस्तृत रिपोर्ताज़ तैयार किए हैं।
इस कालखंड के अंग्रेज़ी साहित्य को सहेजना और उस पर गहन और गंभीर अनुशीलन करना स्वयं में एक चुनौती भरा कार्य है। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् के लेखकों ने ब्रिटिशकालीन लेखकों का उल्लेख केवल आंशिक रूप में किया है। उनके साहित्य का सम्यक अध्ययन करके ही उस कालखंड के सत्य को सही परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है, जो न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से अपितु साहित्यिक व सांस्कृतिक दृष्टि से भी बहुमूल्य एवं संग्रहणीय है।
कैसे तय हो पुरस्कारों की पारदर्शिता?
पुरस्कार प्रसंग
राजेंद्र राजन, मो.-8219158269
लंबे अंतराल के बाद विगत दिनों शिमला में लेखकों, कलाकारों को प्रदान किए गए अकादमी पुरस्कारों का यूं तो आमतौर पर स्वागत हुआ है, लेकिन विलम्ब कई प्रश्न भी पैदा करता है। इस मौके पर मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर ने इस बात पर चिंता ज़ाहिर की थी कि अकादमी पुरस्कारों की प्रक्रिया को हर साल क्यों संपन्न नहीं किया जाता? 1972 में अस्तित्व में आने के बाद से ही 50 सालों से हिमाचल कला व संस्कृति अकादमी की कार्यशैली कथित विवादों में रही है और हिमाचल के लेखक, कलाकार समाज में रोष भी कम नहीं रहा। दरअसल हिमाचल अकादमी का गठन जम्मू-कश्मीर राज्य के मॉडल पर किया गया था तो हिमाचल के भाषा विभाग की संरचना व स्वरूप की नकल पंजाब प्रांत से की गई थी। विगत पांच दशकों से लेखकों में यह भ्रम बना हुआ है कि आखिर कला, साहित्य, संस्कृति अथवा भाषा के संरक्षण या संवर्धन के लिए दो संगठनों का क्या औचित्य है? कहने को अकादमी और भाषा विभाग के रूल ऑफ बिजनेस के तहत कार्य क्षेत्र निर्धारित हैं। लेकिन अकसर ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों का एक ही कार्यक्षेत्र है।
शायद यह भ्रम नामकरण के कारण हो। केंद्रीय स्तर पर देखें तो साहित्य अकादमी एक शीर्ष संस्था है जो संविधान की 8वीं अनुसूची में स्वीकृत 22 भाषाओं के साहित्य के प्रचार-प्रसार व संवर्धन के लिए समर्पित है। इसी प्रकार निष्पादन कलाओं के लिए संगीत एवं नाटक अकादमी है। ये दोनों ही संस्थाएं अपनी पारदर्शी व विश्वासनीय कार्यशैली के लिए जानी जाती हैं। साहित्य अकादमी की अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाएं हैं और हिंदी के साथ देश की अन्य सभी मान्यता प्राप्त भाषाओं में साहित्य का विपुल प्रकाशन करती हैं। देश के सभी प्रांतों में साहित्य अकादमी का गठन किया गया है जो पूर्ण रूप से साहित्य के उन्नयन के लिए समर्पित है। हिमाचल में अनेक लेखकों व साहित्यिक संस्थाओं ने प्रदेश की अकादमी को विशुद्ध रूप से साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए स्वयं को केंद्रित करने की मांग उठाई है। लेकिन ऐसे सभी प्रस्ताव ठंडे बस्ते का शिकार हुए हैं। कहने को हिमाचल अकादमी एक स्वायत्त संस्था है लेकिन इसके कामकाज पर सरकार का नियंत्रण सौ फीसदी है। अधिकांश बजट कर्मचारियों की तन्खाह, भत्तों आदि पर व्यय हो जाता है। अकादमिक गतिविधियों के लिये बजट काफी कम है जिसे बढ़ाने की आवश्यकता है। गत कुछ सालों से हिमाचली भाषा को मान्यता देने की मांग भी जोर पकड़ रही है। अकादमी ने पहाड़ी भाषा में रचे जा रहे साहित्य खासकर कविता में भी इस बार पुरस्कार प्रदान किए जो पहाड़ी भाषा को मान्यता देने व उसके विकास के लिए स्वागत योग्य पहल है। यह सही है कोविड काल में दो साल से सरकारी आयोजनों पर अंकुश लगा हुआ है। इसलिए भी पुरस्कार नहीं दिए जा सके। अकादमी में पुरस्कार राशि सभी पुरस्कृत लेखकों, कलाकारों आदि के खाते में काफी पहले जमा करा दी थी जो सही कदम था। लेकिन पुरस्कार लेखकों व अन्य को जीते जी मिल जाए तो इससे पुरस्कार की उपादेयता और गरिमा में इज़ाफा ही होता है।
बद्री सिंह भाटिया व केशव शर्मा आज हमारे बीच नहीं हैं। उनके पुरस्कार उनके परिजनों ने प्राप्त किए। अकादमी द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में बहुविध प्रतिभाओं को प्रदान किए जाते हैं। इनमें शिखर सम्मान भी शामिल है जो निष्पादन, कलाओं, लोक संस्कृति, भाषा एवं लोक साहित्य के क्षेत्र में आजीवन उत्कृष्ट उपलब्धियों के लिए दिए जाते हैं। ये नामांकित पुस्कार हैं जिनका चयन ज्यूरी नहीं करती अपितु कमेटी या कमेटियां करती हैं। ऐसे पुरस्कार पर अक्सर प्रश्न चिन्ह उठते रहते हैं, क्योंकि इसमें राजनीतिक दखलअंदाजी या विचारधारा विशेष के दबाव बने रहते हैं। शिखर पुरस्कारों की प्रक्रिया के लिए भारतीय ज्ञानपीठ या फिर केंद्रीय साहित्य अकादमी के चयन मॉडल का अनुसरण किया जाना चाहिए। भाषा विभाग द्वारा 2007 से पूर्व राज्य सम्मान प्रदान किए जाते थे जो गत 15 सालों से लंबित पड़े हैं। उन्हें भी पुनः आरंभ करने का निर्णय सरकार को तुरंत लेना चाहिए। देशभर में सरकारी पुरस्कारों की विश्वसनीयता व पारदर्शिता पर सवाल उठते ही रहते हैं। पुरस्कार केवल योग्य, पात्र व प्रतिभा संपन्न व्यक्ति को ही मिलें इसके लिए इनकी चयन प्रक्रिया को जटिल व ईमानदार बनाना लाजमी है। पुरस्कारों को पाने की होड़ और छटपटाहट में अक्सर दोयम दर्जे या मीडियाकर लेखक या कलाकार पॉलिटिकल लाबिंग करते देखे जा सकते हैं। ऐसे किस्से भी कम नहीं हैं जब लेखक अपने पक्ष में निर्णय के लिए ज्यूरी के पास पहुंच जाते हैं। ऐसा आचरण पुरस्कारों की मूल भावना को ध्वस्त करने जैसा है। इसलिए हिमाचल सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वो केंद्रीय साहित्य अकादमी अथवा भारतीय ज्ञानपीठ के पुरस्कार चयन माडल का अध्ययन कर उसकी बेहतर प्रक्रिया को अकादमी में लागू करने का प्रयास करे। इस बार जब अकादमी ने पुरस्कार वितरण समारोह का आयोजन किया तो नए संस्कृति सचिव राकेश कंवर ने स्वयं ही सभागार में उपस्थित लेखकों से संवाद कर उनकी शिकायतें व सुझाव सुने व फीडबैक प्राप्त की।
पुस्तक समीक्षा : अब क्यों लौटेगी सुगंधा : रोचक कहानी संग्रह
समीक्षित कहानी संग्रह के 184 पृष्ठों में 47 कहानियों के माध्यम से लेखक ने कितने ही विचारों, बिम्बों, दृश्यों को एक साहित्यिक सतरंगी गुलदस्ते का नयनाभिराम चित्ताकर्षक रूप देने का काबिलेतारीफ प्रयास किया है। रहस्य-रोमांच, कौतुहल, उत्सुकता, प्रेरणा, प्रेम, विरह-वेदना, चमत्कार, जिज्ञासा, रहस्योद्घाटन, विस्मय-आश्चर्य, मानवीय संवेदना, पश्चाताप आदि से सुशोभित इस कहानी संग्रह का नामकरण 'अब क्यों लौटेगी सुगंधा' बिल्कुल सटीक बैठता है जिसमें आंखों की रोशनी खो देने के कारण पति द्वारा मायके की दहलीज़ पर नवजात शिशु संग सदा के लिए छोड़ी जा चुकी पत्नी का भूतकालिक वर्णन तथा कालखंड उपरांत भाई के नेत्रदान द्वारा पुनः खोई हुई दृष्टि पाकर अथक परिश्रम से आईएएस परीक्षा में सफल होकर पुनः सफल गृहस्थी में कदम रखने के ठीक मौके पर हतप्रभ हारे खिलाड़ी जैसी हालत को प्राप्त पति के पश्चाताप को उकेरा गया है। अमृत मालती कहानी में पुरातन वैद्य परम्परा की दुर्लभ औषधियों का वर्णन है।
मैं बेड़ी घाट बोल रहा हूं, में बेड़ीघाट की नजर से बिलासपुर (कहलूर) रियासत के प्रसिद्ध राजा विजयचंद के समय भोले-भाले मोहणा युवक को गुनाह कबूल कर लेने पर फांसी देने की ऐतिहासिक घटना की याद करते हुए वीरान पड़े घाट पर भी राजा के पधारने पर बेड़ीघाट के फूले नहीं समाने का वर्णन है। पापा माफ करना व घोंसला परदेश में रच-बस गई संतानों के अभिभावकों की व्यथा पर आधारित हैं। बाबा सर्वेश्वरानंद, तांत्रिक तिलक दास, अमृत-जल, श्मशान का श्राप में धार्मिक आस्था की आड़ में ठगी, स्वार्थसिद्धि, शीलभंग जैसे पथभ्रष्ट समाज के हथकंडों से बचकर मंजिल को पाने की सीख दी गई है। मेधावी जानकीदास कहानी में समृद्ध भारतीय संगीत के चमत्कारों से रूबरू कराने वाले दीपक राग, मेघ-मल्हार राग का वर्णन है। अन्य कहानियों को भी रोचकता के साथ परोसा गया है। भाषा, व्याकरण की दृष्टि से उचित, प्रूफ अशुद्धियों से रहित एवं रूपसज्जा को देखते हुए जय कुमार की इस किताब का मूल्य मात्र तीन सौ रुपए उचित है। मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि साहित्य जगत में इस पुस्तक का स्वागत होगा और यह एक संग्रहणीय कृति के रूप में अपनी एक अलग ही पहचान बनाने में सफल होगी।
-रवि सांख्यान, बिलासपुर

Rani Sahu
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