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- बदल रही है बरसात की...
योगेश कुमार गोयल; ऐसे में यह गंभीर सवाल खड़ा होता है कि आखिर मानसूनी बारिश अपना व्यवहार क्यों बदल रही है? अति वर्षा और बाढ़ की स्थिति के लिए जलवायु परिवर्तन के अलावा विकास की विभिन्न परियोजनाओं के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई, नदियों में अवैध खनन आदि प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं, जिससे मानसून प्रभावित होने के साथ-साथ भू-क्षरण और नदियों द्वारा कटाव के चलते तबाही के मामले बढ़ रहे हैं।
इस साल मानसून की शुरुआत से ही देश के विभिन्न हिस्सों में मूसलाधार बारिश, बाढ़, बादल फटने, बिजली गिरने और भू-स्खलन से तबाही का सिलसिला शुरू हो गया। देश के कई इलाके बारिश के लिए तरसते रहे, तो अनेक इलाकों में आसमानी आफत टूटती रही। इससे बहुत सारे लोगों की मौत हो गई। यह पर्यावरण असंतुलन का ही दुष्परिणाम है कि साल-दर-साल बरसात में तबाही की तीव्रता बढ़ रही है। अक्तूबर माह में भी भारी बारिश के कारण देश के कई राज्यों में काफी तबाही हुई है। फसलों को काफी नुकसान हुआ है, जिसके चलते आने वाले दिनों में महंगाई बढ़ने की आशंका जताई जा रही है। अक्तूबर मध्य में भी भारी बारिश होने से डेंगू जैसी बीमारियां भी बढ़ रही हैं।
'क्लाइमेट ट्रेड्स' की एक रिपोर्ट के मुताबिक जुलाई से सितंबर के दौरान मानसून प्राय: झारखंड, बिहार तथा पश्चिम बंगाल के रास्ते उत्तर प्रदेश से होकर आगे बढ़ता है, मगर इस वर्ष इसने उत्तर भारत में प्रवेश के अपने परंपरागत मार्ग गंगीय मैदान क्षेत्र के बजाय मध्य भारत का रास्ता पकड़ा। मध्य भारत से होते हुए राजस्थान की ओर बढ़ गया, जिसके चलते इस वर्ष उत्तर प्रदेश, झारखंड, बिहार तथा पश्चिम बंगाल में काफी कम बारिश हुई, जबकि मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात तथा कुछ अन्य इलाकों में खूब बारिश हुई।
इस रिपोर्ट के मुताबिक मानूसन के तरीके में दूसरा बड़ा बदलाव यह देखा गया कि इस बार अधिकांश 'सिस्टम' बंगाल की खाड़ी में निर्मित हुए, जिसके चलते शुरुआती बारिश तमिलनाडु और कर्नाटक में काफी ज्यादा हुई, जबकि अरब सागर से लगते तटीय इलाकों में कम बारिश हुई। मौसम विज्ञानियों के मुताबिक मानूसन में बंगाल की खाड़ी और अरब सागर दोनों ही ओर से कम दबाव का क्षेत्र तथा चक्रवाती परिसंचरण निर्मित होते हैं, जो समूचे भारत में मानसूनी बारिश करते हैं। मगर अरब सागर में बनने वाले सिस्टम घटने से मानसून का मिजाज बिगड़ रहा है। मानसून के दौरान महीने के अधिकांश दिन अब सूखे निकल जाते हैं, तो कुछेक दिनों में ही इतनी बारिश हो जाती है कि लोगों की मुसीबतें कई गुना बढ़ जाती हैं।
जलवायु विज्ञानियों का मानना है कि वैश्विक तापमान के कारण मानसून प्रभावित हुआ है और इसी कारण भारत में मानसून की विदाई के समय मानसूनी बारिश का सिस्टम बन रहा है। इसी के चलते अक्तूबर के महीने में भी इस साल भारी बारिश हुई। 1971 से 2009 के दौरान मानसून के छंटने के आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर मौसम विभाग द्वारा 2020 में मानसून के छंटने की तारीख 17 सितंबर निर्धारित कर दी गई थी, लेकिन देश के कई राज्यों में अब मानसून की अवधि लगातार लंबी हो रही है।
सामान्य तौर पर भारत में मानसून सितंबर मध्य में वापस लौटने लगता है, जिसे 'मानसून विड्राल' कहा जाता है। इस दौरान बारिश खत्म होने के साथ ही नमी में कमी दर्ज की जाती है और देश के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों में बारिश का धीरे-धीरे कम होना जारी रहता है। उत्तर पश्चिम भारत में जहां अक्तूबर के पहले सप्ताह में ही मानसून बाद की बारिश की गतिविधियां समाप्त हो जाती थी, वहीं यह सिलसिला अब अक्तूबर के तीसरे सप्ताह तक जारी रहने लगा है। मौसम विज्ञानियों के मुताबिक सामान्य तौर पर मानूसन समूचे भारत से 5 अक्तूबर तक विदा हो जाना चाहिए।
उत्तर पश्चिमी राज्यों में मानसून प्राय: राजस्थान में करीब डेढ़ महीने और पूर्वी उत्तर प्रदेश में करीब तीन महीने रहता था, मगर अब यह राजस्थान में दो महीने और पूर्वी उत्तर प्रदेश में करीब चार महीने तक टिक रहा है। उत्तर भारत में अब बारिश के मौसम को सोलह दिनों तक विस्तारित किया जा चुका है। मौसम विभाग के मुताबिक इस साल मानसून कई जगहों पर देर से पहुंचा, जिसके चलते देश के पश्चिमी हिस्सों में सितंबर तक सक्रिय रहा और इसी सक्रियता का असर मानसून के लौटने की प्रक्रिया पर पड़ा है।
पर्यावरण विज्ञानियों के अनुसार मानसून का परंपरागत मार्ग बदलने से जलवायु पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा, जिसका असर इंसानों से लेकर जानवरों तक पर दिखाई देगा। मानसून के जुलाई तथा अगस्त महीने के आंकड़ों का विश्लेषण करने के बाद 'क्लाईमेट ट्रेड्स' की रिपोर्ट में बताया गया है कि पश्चिमी राजस्थान में 78 फीसद, कच्छ में 42, पश्चिमी मध्यप्रदेश में 36, मराठवाड़ा में 27, गुजरात में 24 और विदर्भ में 22 फीसद ज्यादा बारिश हुई, वहीं उत्तर प्रदेश में 44, बिहार में 39, झारखंड में 27 और पश्चिम बंगाल में 18 फीसद कम बारिश हुई।
विभिन्न अध्ययनों में यह तथ्य बार-बार सामने आ रहा है कि मानसूनी बारिश की तीव्रता बढ़ते जाने का सबसे बड़ा कारण वैश्विक तापमान ही है और अगर पर्यावरण के साथ खिलवाड़ इसी प्रकार जारी रहा तो ऐसी त्रासदियां आने वाले समय में और गंभीर रूप लेंगी, लेकिन प्रकृति द्वारा बार-बार दी जा रही गंभीर चेतावनियों के बावजूद कोई इनसे सबक सीखने को तैयार नहीं दिखता। एक ओर जहां आर्थिक रूप से संपन्न देशों ने प्रकृति से छेड़छाड़ का सिलसिला जारी रखा है, वहीं विकासशील देशों ने भी जलवायु परिवर्तन को कभी बहुत गंभीरता से नहीं लिया। विकसित देश इस समस्या पर नियंत्रण के प्रयास के बजाय इसकी जिम्मेदारी का ठीकरा विकासशील देशों पर ही फोड़ते रहे हैं।
मानूसनी बारिश में अब शहर के शहर, गांव के गांव डूब जाते हैं। ऐसे में यह गंभीर सवाल खड़ा होता है कि आखिर मानसूनी बारिश अपना व्यवहार क्यों बदल रही है? अति वर्षा और बाढ़ की स्थिति के लिए जलवायु परिवर्तन के अलावा विकास की विभिन्न परियोजनाओं के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई, नदियों में अवैध खनन आदि प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं, जिससे मानसून प्रभावित होने के साथ-साथ भू-क्षरण और नदियों द्वारा कटाव के चलते तबाही के मामले बढ़ रहे हैं।
मौसम परिवर्तन पर 'नेचर कम्युनिकेशन' में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के कारण भारत के एक हिस्से में जहां सूखे का संकट गहराने की आशंका है, वहीं देश के बड़े हिस्से को अगले तीस वर्षों में भारी बारिश का सामना करना पड़ सकता है। अध्ययन में उत्तर भारत में सूखे का संकट गहराने और वर्ष 2050 तक देश के कई हिस्सों में पंद्रह से तीस फीसद ज्यादा बारिश होने की संभावना जताई गई है।
इन अप्रत्याशित बदलावों पर चिंता जताते हुए शोधकर्ताओं ने वर्ष 2100 तक देश के बड़े हिस्से में तीस फीसद ज्यादा बारिश का अनुमान व्यक्त किया है।कुछ दिनों पहले 'पाट्सडैम इंस्टीट्यूट फार क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च' के एक अध्ययन में बताया गया था कि भारतीय मानसून की चाल को जलवायु परिवर्तन और ज्यादा गड़बड़ बना रहा है। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार भारत के कई हिस्सों में अत्यधिक बारिश ने जो तबाही मचाई है, वह वैश्विक तापमान वृद्धि का दुष्परिणाम है।
मौसम विशेषज्ञों के मुताबिक मानसून के मौसम के जिस ढर्रे को कभी सबसे स्थिर माना जाता था, उसमें एक बड़ा परिवर्तन स्पष्ट देखा जा रहा है। हालांकि यह समस्या केवल भारत की नहीं है, इससे दुनिया भर में भारी तबाही हो रही है। चीन, जर्मनी और अमेरिका सहित कई यूरोपीय देशों में इस साल आई भयानक बाढ़ ने पूरी दुनिया को अहसास करा दिया कि जलवायु में बड़ा परिवर्तन हो चुका है। मौसम वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी के तापमान में प्रत्येक डिग्री सेल्सियस वृद्धि से मानसूनी वर्षा में करीब पांच फीसद बढ़ोतरी हो रही है। बादल फटने और आकाशीय बिजली गिरने की घटनाओं में होती बढ़ोतरी को भी जलवायु परिवर्तन से ही जोड़ कर देखा जा रहा है।