सम्पादकीय

भरोसे का सवाल: त्वरित न्याय या वास्तविक न्याय?

Neha Dani
26 May 2022 1:43 AM GMT
भरोसे का सवाल: त्वरित न्याय या वास्तविक न्याय?
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हम ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं बना सके कि लोगों में न्याय की संभावना पर अविश्वास का कोई कारण ही न बचे?

हैदराबाद की वह घटना तो आपको याद ही होगी, जब नवंबर, 2019 में एक वैटेनरी डॉक्टर लड़की का दुपहिया वाहन पंक्चर हो गया था। वह टोल प्लाजा के पास खड़ी थी। तभी चार लड़कों ने उसका अपहरण कर उसके साथ दुष्कर्म किया। फिर जान भी ले ली। पुलिस ने न केवल आरोपियों को पकड़ा, बल्कि अगले दिन उनका एनकाउंटर भी कर दिया। बताया गया कि पुलिस सीन रीक्रिएट करने के लिए आरोपियों को उसी स्थान पर ले गई थी।

पर वहां आरोपियों ने पुलिस पर हमला बोल दिया और उनके हथियार छीनकर भागने लगे। इस कारण पुलिस को गोलियां चलानी पड़ीं और चारों आरोपी मारे गए। उस समय भी बहुत से लोगों को पुलिस की इस कहानी पर विश्वास नहीं हुआ था। लेकिन पुलिस की उस कार्रवाई की तारीफ करने वाले भी बहुत से लोग थे। उन पर फूल बरसाए गए। सिर्फ साधारण लोग नहीं, अनेक बुद्धिजीवी भी आंख के बदले आंख वाली बदले की कार्रवाई के समर्थन में आ जुटे। कहा जाने लगा कि बलात्कार के दोषियों को इसी तरह की सजा मिलनी चाहिए।
ऐसा हमने निर्भया के समय भी देखा था। तब भी हाथ के हाथ न्याय की मांग की गई थी। ऐसी घटनाओं में सताई गई बहुत-सी पीड़िताओं के घर वाले भी यह मांग करने लगे कि आरोपियों को उन्हें सौंप दिया जाए। या पुलिस उनका भी एनकाउंटर करे। समाज में बढ़ती बदले की भावना ही ऐसा कराती है। ऐसे में, जो लोग तर्क की बात करते हैं, उन्हें धकियाकर पीछे कर दिया जाता है। उस समय भी यह बहस जोर पकड़ रही थी कि यदि न्याय फौरन होगा, तो आरोपी को अपराधी मानकर पुलिस को उड़ा देने का अधिकार होगा, फिर न्यायिक प्रक्रियाओं, अदालत, संविधान, लोकतंत्र, न्यायाधीश, वकील की क्या जरूरत रह जाएगी?
पुलिस और पीड़ित-पीड़िताओं के घरवाले ही न्याय कर देंगे। ऐसे में, हो सकता है कि बहुत से निरपराध भी मारे जाएं। यह विचार एक तरह से तानाशाही को बढ़ावा देगा। वह पुलिस को ऐसे असीमित अधिकार देगा, जिससे आम आदमी भी नहीं बचेगा। आखिर पुलिस की भूमिका को कौन नहीं जानता? लेकिन ऐसी बात करने वालों का मखौल उड़ाया जा रहा था। कहा जा रहा था कि ऐसे लोगों को पीड़ितों के मुकाबले अपराधियों के मानवाधिकार की ज्यादा चिंता है।
पिछले दिनों इसी हैदराबाद एनकाउंटर पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित पैनल की रिपोर्ट आई है। इसमें कहा गया है कि पुलिस द्वारा किया गया वह एनकाउंटर फर्जी था। पुलिस के दावे में कोई दम नहीं है। मौके पर मिले सुबूत भी पुलिस के दावे की पुष्टि नहीं करते। पैनल ने एनकाउंटर में शामिल दस पुलिस वालों पर मुकदमा चलाने की सिफारिश भी की है।
सोचने की बात यह भी है कि आखिर पुलिस ने जिन चार आरोपियों को पकड़ा और उड़ा दिया, क्या वे वास्तव में अपराधी थे भी या किसी को भी अपराधी बताकर मार दिया गया और वास्तविक अपराधी अब भी घूम रहे हैं? कई बार ऐसा होता है कि किसी घटना के बाद किसी को भी पकड़कर बता दिया जाता है कि यह न केवल इस अपराध में, बल्कि दूसरे अपराधों में भी शामिल था। यानी एक अपराधी के मत्थे सारे अपराध मढ़कर बाकी मामलों से मुक्ति तो मिलती ही है, बहुत से अपराधी बच भी जाते हैं। क्या पता, हैदराबाद का सच क्या है?
दुष्कर्म जैसे अपराधों से जो लड़कियां गुजरती हैं, वही जानती हैं कि वे किस पीड़ा से गुजरती हैं। इसलिए वक्त की जरूरत है कि अपराधी पकड़े जाएं और उन्हें कठोर सजा दिलवाई जाए। इसके लिए न्यायिक प्रक्रिया में भी तेजी लाई जाए। लेकिन ऐसा न हो कि इधर पकड़ा, उधर मारा और न्याय हो गया। पर देखने की बात है कि लोगों में यह बेचैनी क्यों आई है कि वे एनकाउंटर पर फूल बरसाने लगे? न्याय में देरी और सुबूतों-सिद्धियों के अभाव में अपराधियों का बच निकलना बहुत बड़ा प्रश्न है। जिस प्रकार व्यवस्थागत कार्रवाइयां चलती हैं, वे अविश्वास तथा रोष के पर्वत बनाती हैं। दूसरी ओर, समाज तथा कानून-व्यवस्था के जिम्मेदार लोगों पर भी यह सवाल है। हम ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं बना सके कि लोगों में न्याय की संभावना पर अविश्वास का कोई कारण ही न बचे?

सोर्स: अमर उजाला

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