सम्पादकीय

आयुर्वेद में सर्जरी करने के अधिकार का सवाल है अहम, अधिक व्यवहारिक बनाना ज्यादा जरूरी

Gulabi
23 Jan 2021 4:04 PM GMT
आयुर्वेद में सर्जरी करने के अधिकार का सवाल है अहम, अधिक व्यवहारिक बनाना ज्यादा जरूरी
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इस आदेश के बाद से देश का स्वास्थ्य तंत्र दो फाड़ हो गया।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। सेंट्रल काउंसिल ऑफ इंडियन मेडिसिन (सीसीआइएम), आयुष मंत्रलय एवं यूजीसी के अंतर्गत आयुर्वेद, योग, यूनानी, सिद्ध, होम्योपैथी के शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए कार्यदायी संस्था है, जिसने नवंबर 2020 में आयुर्वेद चिकित्सकों को सर्जरी करने संबंधित शासनादेश जारी किया। इसके तहत आयुर्वेद चिकित्सक सामान्य सर्जरी सहित हड्डी, नाक, कान, गले एवं आंख की सर्जरी कर सकेंगे। इस आदेश के बाद से देश का स्वास्थ्य तंत्र दो फाड़ हो गया। एलोपैथी चिकित्सक विरोध पर उतर आए तो आयुर्वेदिक चिकित्सक समर्थन में निकल पड़े। इस स्थिति पर गंभीर दृष्टि डालने पर लगता है कि सीसीआइएम ने अपने भ्रम में एलोपैथी-आयुर्वेद दोनों पद्धतियों के चिकित्सकों को उलझा दिया।


इस मामले में सीसीआइएम या सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए था कि नवंबर 2020 के पहले से आयुर्वेद संस्थानों द्वारा जो शल्य-शलाक्य (सर्जरी एवं आंख, नाक, कान व गले की सर्जरी) की पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री दी जा रही थी, क्या वह अवैध थी? प्रत्येक वर्ष राष्ट्रीय परीक्षाओं के माध्यम से चयनित होकर एमएस आयुर्वेद की डिग्री लेकर निकलने वाले आयुर्वेदिक सर्जन क्या अवैध थे? यहां सरकार या सीसीआइएम का शासनादेश हास्यापद प्रतीत होता है। जब आयुर्वेद चिकित्सकों को सर्जरी का अधिकार ही नहीं था, तो एमएस आयुर्वेद का पाठ्यक्रम क्यों और कैसे चलाया जा रहा था? आयुर्वेद में सर्जरी को शल्य तथा आंख, नाक, कान, गले की सर्जरी को शलाक्य कहते हैं। यह उपाधि प्राप्त करने वाले चिकित्सक अभी तक क्या कर रहे थे? यह प्रश्न सीसीआइएम, एलोपैथिक व आयुर्वेदिक चिकित्सकों के लिए अनुत्तरित है।
शासनादेश का विरोध करने वाले एलोपैथी चिकित्सकों को आयुर्वेद व उसके पाठ्यक्रम के बारे में क्या कोई जानकारी नहीं है? यदि नहीं तो विरोध के पहले क्या जानने की कोशिश भी की है? या सर्जरी के अपने बाजार को बचाने के लिए मैदान में उतर गए हैं। इसी तरह आयुर्वेद चिकित्सकों ने भी अपने शिक्षण-प्रशिक्षण व कौशल की स्थिति का आकलन कने की जहमत नहीं उठाते हुए खुशफहमी पाल ली है।

एलोपैथी चिकित्सक इतना भी नहीं सोच पा रहे हैं कि आयुष की डिग्री में जो एस यानी बीएएमएस या बीयूएमएस जुड़ा होता है, उसका तात्पर्य सर्जरी ही होता है। आयुर्वेद चिकित्सकों को यहीं सर्जरी का अधिकार प्राप्त हो जाता है। यह अलग बात है कि आयुर्वेद संस्थानों ने अपने छात्रों को कुशल सर्जन बनाने का प्रयास नहीं किया है। जबकि सीसीआइएम की अनुमति से पोस्ट ग्रेजुएट स्तर पर सर्जरी विशेषज्ञता की एमएस की उपाधि वर्षो से दी जा रही है। इस उपाधि के साथ ही आयुर्वेद चिकित्सकों को शल्यकर्म की अनुमति स्वत: मिल जाती है। वर्तमान में इस आशय के शासनादेश की जरूरत क्यों पड़ी? यह संदेह होता है कि पाठ्यक्रम शुरू करते समय विधिक स्थिति स्पष्ट नहीं थी।



अब एलोपैथिक चिकित्सकों के संगठन आइएमए के विरोध के औचित्य को देखें तो उन्हें उसी समय विरोध करना चाहिए था, जब सरकार ने आयुर्वेद पाठ्यक्रम निर्धारित करते हुए बीएमएमएस, एसएस आयुर्वेद यानी बैचरल ऑफ आयुर्वेद एंड सर्जरी व एसएस आयुर्वेद का पाठ्यक्रम शुरू किया था। आइएमए को अध्ययन करना चाहिए था कि शल्यकर्म आयुर्वेद का अंग है या एलोपैथी से लिया गया है।

उधर स्वास्थ्य क्षेत्र के स्वयंभू कर्णधार एलोपैथी समुदाय का स्वास्थ्य क्षेत्र की पूरक संस्थाओं के बारे में ज्ञान शून्य होना कम खेद का विषय नहीं है। इसकारण वे आयुर्वेद को आभासी चिकित्सा पद्धति मानते हैं। हालांकि उन्हें यह बखूबी पता है कि आयुर्वेद स्नातक-परास्नातक पाठ्यक्रम के लिए वही परीक्षा देनी होती है, जो एलोपैथी में प्रवेश के लिए देनी होती है। इसका तात्पर्य है कि आयुर्वेद का भी एक निश्चित पाठ्यक्रम होता है, जिसमें वे सारे विषय शामिल होते हैं जो एक चिकित्सा विज्ञान के पाठ्यक्रम में होने चाहिए, जिसमें प्राचीन ज्ञान के साथ नवीनतम जानकारियां भी शामिल हैं। ऐसा नहीं है कि चरक, सुश्रुत आदि ने जो लिख दिया वही आयुर्वेद हजारों साल से चल रहा है। उपलब्ध संसाधनों व आवश्यकता के अनुरूप समकालीन प्रयोग होते रहे हैं, जो ज्ञान आयुर्वेद में जुड़ता रहा है और आज भी जुड़ रहा है। यह प्रवृत्ति आयुर्वेद को निश्चित ही विज्ञान सिद्ध करने लिए पर्याप्त है।
देखा जाए तो एलोपैथी समुदाय द्वारा अज्ञानता में नहीं, बल्कि जानबूझकर इस तथ्य की उपेक्षा की जा रही है, ताकि आयुर्वेद के अभिन्न अंग शल्य-शलाक्य (सर्जरी) को खारिज करते हुए स्वास्थ्य के बाजार पर अपना एकाधिकार बनाया जा सके। एलोपैथी समुदाय इसी उद्देश्य से आयुर्वेद की तात्कालिक प्रभाव वाली रासायनिक-धात्विक औषधियों के विरुद्ध षड्यंत्रकारी शोध कर हानिकारक सिद्ध करने में सफल हो चुका है। निश्चित तौर पर इससे आयुर्वेद चिकित्सा का पक्ष कमजोर हुआ है। सबसे दुखद यह है कि सरकार और आयुर्वेद संस्थानों, शिक्षकों, छात्रों और चिकित्सकों ने भी आयुर्वेद की रासायनिक औषधियों को हानिकारक मान लिया है, जबकि यही औषधियां एलोपैथिक रासायनिक औषधियों की विकल्प हैं।
यहां यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि आयुर्वेद की जिन औषधियों को एलोपैथी हानिकारक कहता है, वही आधुनिक यंत्रों, विधियों से निíमत होकर हर्बल एलोपैथिक की प्रमाणिक प्रभावी औषधियां बन जाती हैं। इसलिए ऐसा लगता है कि एलोपैथिक चिकित्सकों नें जानबूझकर आयुर्वेद पाठ्यक्रम को जानने की कोशिश नहीं की है, या फिर जानते हुए अनजान बनने का स्वांग कर रहे हैं, क्योंकि इससे उनके व्यावसायिक वर्चस्व की जंग कमजोर पड़ सकती है या विरोध करने का नैतिक साहस खत्म हो सकता है।
समयानुकूल बनाने की जरूरत

संबंधित शासनादेश का सबसे कमजोर पक्ष आयुर्वेद संस्थान, शिक्षक, छात्र व चिकित्सक हैं, जो अपने संस्थानों की स्थिति सुधारने, समयानुकूल प्रायोगिक और व्यावहारिक बनाने, कौशल विकास करने और बजट बढ़ाने के लिए कभी मुखर होकर अपनी बात नहीं रखते हैं। विचित्र बात यह है कि एलोपैथी का एक संगठन सरकार को फैसले बदलने के लिए विवश कर देता है, परंतु आयुर्वेद के सैकड़ों संगठन एकजुट होकर कभी बजट बढ़ाने, कॉलेज में फैकल्टी, लैब्स, ओपीडी व पाठ्यक्रम को अधिक व्यावहारिक बनाने समेत कार्यकुशलता का विकास करने के लिए मुखर होते या आंदोलन करते नहीं दिखते हैं। एलोपैथिक औषधियों के विकल्प रसशास्त्र यानी आयुर्वेदिक रसायन विज्ञान से वे ऐसे बचते हैं, जैसे वह आयुर्वेद का अंग ही न हो। इसका कारण भी एलोपैथिक सिस्टम के षड्यंत्रकारी शोध हैं। आयुर्वेद की पराजय यहीं हो जाती है, जब अपनी दवाओं को एलोपैथी के शोधकर्ताओं के कहने पर हानिकारक मान लेते हैं। इस स्थिति में एलोपैथिक चिकित्सक या जनता, भला कैसे आयुर्वेद के सर्जरी कौशल पर विश्वास करेगी?

अनुचित आपत्ति
एलोपैथिक चिकित्सकों का यह तर्क स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि आयुर्वेद चिकित्सक अपने संसाधनों व औषधियों के आधार पर सर्जरी करें, हमें कोई आपत्ति नहीं है। अपनी दवाएं और तकनीक विकसित करें। यह उचित व ताíकक भी है। सफल सर्जरी के लिए शीघ्र प्रभावकारी दवाओं की आवश्यकता होती है, जिसके लिए आयुर्वेदिक सर्जन एलोपैथिक दवाओं पर निर्भर होते हैं। इससे विधिक अधिकार के बावजूद उनकी छवि दोयम दर्जे के सर्जन की बनेगी।


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