सम्पादकीय

इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेशों से उठा सवाल : यूपी में कानून का राज?

Subhi
9 April 2021 2:40 AM GMT
इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेशों से उठा सवाल : यूपी में कानून का राज?
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इलाहाबाद हाई कोर्ट ने फिर उत्तर प्रदेश सरकार को सवालों के कठघरे में खड़ा किया है।

NI एडिटोरियल: इलाहाबाद हाई कोर्ट ने फिर उत्तर प्रदेश सरकार को सवालों के कठघरे में खड़ा किया है। इस बार सवाल राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) के इस्तेमाल पर हैं। ये कानून सरकार को बिना औपचारिक आरोप या सुनवाई के गिरफ्तारी का अधिकार देता है। लेकिन पुलिस और अदालत के दस्तावेजों से सामने आया कि ऐसे मामलों में एक ढर्रे का पालन किया जा रहा था, जिसमें पुलिस अलग-अलग एफआईआर में महत्वपूर्ण जानकारियां कट-पेस्ट कर देती थी। साथ ही आरोप है कि मजिस्ट्रेट के दिए डिटेंशन ऑर्डर में विवेक का इस्तेमाल नहीं किया गया, आरोपी को निर्धारित प्रक्रिया मुहैया कराने से इनकार किया गया, और जमानत रोकने के लिए कानून का लगातार गलत इस्तेमाल किया गया। इस आधार पर 120 बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस) याचिकाएं दायर की गई थीं, जिन पर इस हफ्ते हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया। ये मामले जनवरी 2018 और दिसंबर 2020 के बीच के हैं।

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एनएसए के तहत जिलाधिकारियों के कम से कम 32 आदेशों को रद्द कर दिया। साथ ही उसने हिरासत में रखे गए लोगों को रिहा करने का आदेश दिया है। एनएसए लगाने के मामले में गोहत्या का मामला पहले नंबर पर था। इस आरोप में 41 मामले दर्ज किए गए। ऐसे मामलों में सभी आरोपी अल्पसंख्यक समुदाय के थे। इन मामलों में गोहत्या के आरोप में दर्ज एफआईआर के आधार पर जिलाधिकारियों ने उन्हें हिरासत में डाल रखा था। इनमें से 30 मामलों में हाई कोर्ट ने उत्तर प्रदेश प्रशासन को कड़ी फटकार लगाई।
ये गौरतलब है कि गोहत्या के हर मामले में जिलाधिकारियों ने एनएसए लगाने के लिए लगभग एक जैसे कारणों का हवाला दिया था। मसलन, कहा गया कि अगर आरोपी जेल से बाहर आ गए तो वे दोबारा ऐसे मामलों में शामिल हो सकते हैं और उससे कानून-व्यवस्था को खतरा पैदा हो सकता है। हिरासत के ऐसे कम से कम 11 मामलों में अदालत ने कहा कि आदेश पारित करते समय डीएम ने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया। जबकि 13 मामलों में कोर्ट ने कहा कि हिरासत में रखे गए व्यक्ति को अपना पक्ष रखने का अवसर नहीं दिया गया। अब ये बातें अपने- आप ये साबित कर देती हैं कि उत्तर प्रदेश में आज कानून के राज की क्या हालत है। ऐसे में अगर लोकतंत्र के वैश्विक इंडेक्स में भारत का दर्जा गिरता है, तो उस पर किसी को क्यों हैरत होनी चाहिए?



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