सम्पादकीय

पंजाब सरकार ने तो भगत सिंह को मान दिया, लेकिन उनके साथी बटुकेश्वर दत्त को तो बिहार में उपेक्षा ही मिली थी

Rani Sahu
25 March 2022 12:47 PM GMT
पंजाब सरकार ने तो भगत सिंह को मान दिया, लेकिन उनके साथी बटुकेश्वर दत्त को तो बिहार में उपेक्षा ही मिली थी
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पंजाब की भगवंत मान (Bhagwant Mann) सरकार ने जब शहीद भगत सिंह (Bhagat Singh) को बड़ा मान दिया तो ‘शहीद-ए-आजम’ के साथी बटुकेश्वर दत्त की याद आ गई

सुरेंद्र किशोर

पंजाब की भगवंत मान (Bhagwant Mann) सरकार ने जब शहीद भगत सिंह (Bhagat Singh) को बड़ा मान दिया तो 'शहीद-ए-आजम' के साथी बटुकेश्वर दत्त की याद आ गई. बिहार सरकार ने बटुकेश्वर दत्त (Batukeshwar Dutt) को बिहार विधान परिषद का 6 साल का टर्म भी पूरा करने नहीं दिया. यह साठ के दशक की बात है. क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त सन 1965 में अपने जीवन की आखिरी घड़ी गिन रहे थे. तब पंजाब के मुख्यमंत्री राम किशन उनसे मिलने आए थे. मुख्यमंत्री ने पूछा कि "आपको क्या चाहिए?" क्रांतिकारी ने कहा था कि 'हमें कुछ नहीं चाहिए. मेरी बस यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे दोस्त भगत सिंह की समाधि के बगल में ही किया जाए.'
उनकी इच्छा पूरी की गई. बटुकेश्वर दत्त का अंतिम संस्कार फिरोजपुर के पास उसी स्थान पर किया गया जहां भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू का किया गया था. याद रहे कि सांडर्स हत्याकांड में इन तीनों को फांसी की सजा मिली थी. साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी ने उस मार्मिक दृश्य को कलमबद्ध किया है. दिल्ली के बड़े अस्पताल में क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त मौत से जूझ रहे थे. बगल में रोती-बिलखती उनकी पत्नी अंजलि दत्त, इकलौती बेटी भारती और सांत्वना दिलाती भगत सिंह की मां विद्यावती देवी. अंजली दत्त द्वारा बाद में सुनाए गए विवरण के आधार पर श्री द्विवेदी ने लिखा कि "वहां बटुकेश्वर दत्त के सामने खड़े पंजाब के मुख्यमंत्री राम किशन ने दत्त जी से पूछा,'दत्त जी हम आपको कुछ देना चाहते हैं-धन दौलत जो भी आपकी इच्छा हो मांगिए.'
बटुकेश्वर दत्त सन 1942 के आंदोलन में कूद पड़े
हमारे कल के लिए अपना आज न्योछावर कर देने वाले बटुकेश्वर दत्त जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के कारण ही हम आजाद हुए. पर, कुछ लोगों ने उस आजादी को आज बद्रूप कर दिया है. ऐसे में बटुकेश्वर दत्त के संघर्ष और त्याग को एक बार फिर याद करना प्रासंगिक होगा. बटुकेश्वर दत्त का जन्म सन 1910 में कानपुर में हुआ था. दत्त ने दिल्ली में भगत सिंह के साथ केंद्रीय एसेंबली में सन 1929 में बम फोड़ा था. दत्त जी को दिल्ली के सत्र न्यायाधीश ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. वे अंडमान जेल में रखे गए. बाद में उन्हें पटना के बांकीपुर जेल में स्थानांतरित कर दिया गया.
सन 1938 में उनकी रिहाई हो गयी. उनका परिवार पटना में रहा. दत्त जी सन 1942 के आंदोलन में कूद पड़े. एक बार फिर उन्हें जेल यातना सहनी पड़ी. जेल में उन्हें अमानवीय यातनांए दी गयीं. उन्हें अपराधियों के साथ रखा गया. दत्त जी जेल में लंबे समय तक अनशन पर रहे. जेल में उन्हें भारी कुव्यवस्था झेलनी पड़ी. उन्हें विषाक्त भोजन दिया गया. उनके फेफड़े खराब हो गए. उनमें कैंसर हो गया. जीवन के शुरूआती दौर में बटुकेश्वर दत्त की इच्छा संन्यास लेने की थी. इस बीच वे क्रांतिकारियों के संपर्क में आ गए. उन लोगों ने दत्त जी का परिचय भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद से करा दिया. फिर तो वे आजादी की लड़ाई में पिल पड़े.
वे हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी से जुड़े. उनके जीवन की सबसे बड़ी घटना सेंट्रल एसेंबली में बम फेंकने की थी. उस दिन दो काले कानून पास होने वाले थे. क्रांतिकारी उस कानून के सख्त विरोधी थे. भगत-बटुकेश्वर की जोड़ी ने बम फेंक कर तहलका मचा दिया. इन दोनों को तत्काल गिरफ्तार कर लिया गया. उस दिन सेंट्रल एसेंबली की दर्शक दीर्घा में संयोग से सर शोभा सिंह बैठे हुए थे. मशहूर लेखक दिवंगत खुशवंत सिंह के पिता सर शोभा सिंह उन दिनों दिल्ली के बड़े बिल्डर थे. अंग्रेजों ने शोभा सिंह को भगत सिंह-बटुकेश्वर दत्त के खिलाफ सरकारी गवाह बना दिया. भगत सिंह पर तो अंग्रेज पुलिस अफसर सांडर्स की हत्या का भी आरोप था. सांडर्स ने 30 अक्टूबर 1928 को पंजाब केसरी लाला लाजपत राय पर लाठियां बरसवाई थीं. उसी की गहरी चोट के कारण 18 दिन बाद लाला जी का निधन हो गया.
बटुकेश्वर दत्त जैसी हस्ती को बिहार विधान परिषद का पूरा कार्यकाल भी नहीं मिला था
इसका बदला लिया भगत सिंह ने सांडर्स को 17 दिसंबर, 1928 को मार कर लिया. आजादी के बाद से देश की बिगड़ती स्थिति को देखकर बटुकेश्वर दत्त अपनी पत्नी से कहा करते थे कि 'क्या इसी आजादी के लिए हमलोगों ने अपना सर्वस्व दिया था?' एक बार फिर आजादी की दूसरी लड़ाई लड़नी होगी. एक उप चुनाव के तहत बटुकेश्वर दत्त को बिहार विधान परिषद का सदस्य थोड़े दिनों के लिए बनाया गया था. पर, जब उनको अगले कार्यकाल के लिए मौका देने का अवसर आया तो तत्कालीन मुख्य मंत्री के.बी.सहाय ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया.
समाजवादी नेता दिवंगत इंद्र कुमार ने एक बार कहा था कि मुझे इस बात का सौभाग्य प्राप्त था कि विधान परिषद में मेरी सीट उनके बगल में थी. मेरे कंधे का जब उनके कंधे से स्पर्श होता था तो मैं यह सोच कर रोमांचित हो जाता था कि यही कंधा कभी भगत सिंह से टकराता था.' जब दत्त जी को दोबारा सदन का सदस्य नहीं बनाया गया था तो कुछ लोगों की यह प्रतिक्रिया थी कि आजाद भारत की ऐसी विधान परिषद भी क्या जिसमें बटुकेश्वर दत्त जैसी हस्ती को उसकी सदस्यता का पूरा कार्यकाल भी न मिले. आज तो देश की विधायिकाओं की स्थिति ऐसी हो गई जिसकी कल्पना न तो स्वतंत्रता सेनानियों ने की होगी और न ही संविधान निर्माताओं ने.
Rani Sahu

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