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अमेरिका की असाधारणता का एक स्तंभ है, जिसका सभी राष्ट्रपति अपने स्टेट ऑफ द यूनियन भाषणों में उल्लेख करते हैं
सुरेंद्र कुमार। अमेरिका की असाधारणता का एक स्तंभ है, जिसका सभी राष्ट्रपति अपने स्टेट ऑफ द यूनियन भाषणों में उल्लेख करते हैं, सबसे पुराना लोकतंत्र होने का गौरव और विदेशों में लोकतंत्र एवं मानवाधिकार को समर्थन एवं प्रोत्साहन देने की अमेरिका की प्रतिबद्धता। दुर्भाग्य से, विदेशों में लोकतंत्र और मानवाधिकारों को बढ़ावा देने और समर्थन करने का अमेरिका का ट्रैक रिकॉर्ड बहुत खराब रहा है। जब संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के बहाने वर्ष 2003 में अमेरिका ने सद्दाम हुसैन पर सामूहिक विनाश के हथियार का जखीरा रखने और अल कायदा से साठ-गांठ कर अमेरिकी सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करने का आरोप (दोनों सरासर झूठ निकले) लगाते हुए इराक पर हमला किया था, तो उसने शेखी बघारते हुए कहा था कि यह हमला बगदाद से अदन तक लोकतंत्र स्थापित करेगा। ऐसा कुछ नहीं हुआ।
इराक अब भी लोकतंत्र के स्वघोषित संरक्षक द्वारा किए गए अनुचित हमले के विनाशकारी नकारात्मक प्रभावों से जूझ रहा है। लीबिया में भी अमेरिकी हस्तक्षेप का कोई बेहतर नतीजा नहीं निकला। हां, तानाशाह कर्नल गद्दाफी को सत्ता से हटाकर मार दिया गया, लेकिन इराक की तरह लीबिया अराजकता, हिंसा की भूमि में तब्दील हो गया। सीरिया में अमेरिका ने हस्तक्षेप किया, आज वह एक युद्धग्रस्त देश है, जहां लोकतंत्र और मानवाधिकारों का नामो-निशान नहीं है। मिस्र और जॉर्डन दशकों से अमेरिका के करीबी सहयोगी रहे हैं और खाड़ी क्षेत्र के तेल समृद्ध ज्यादातर देश अमेरिकी समर्थक हैं, लेकिन वे लोकतंत्र और मानवाधिकारों के प्रतिमान नहीं हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने चीन की अपनी यात्राओं में लोकतंत्र और मानवाधिकारों के मुद्दे को रस्मी तौर पर जरूर उठाया है, लेकिन चीन में उनकी कमी ने अमेरिका को चीन के साथ 634 अरब डॉलर (2019) का व्यापार करने से नहीं रोका है। इसी तरह यूरोपीय संघ के सदस्य देश समय-समय पर चीन में लोकतंत्र एवं मानवाधिकार की कमी का मुद्दा उठाते हैं, लेकिन चीन यूरोपीय संघ का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार बना हुआ है। उनका द्विपक्षीय व्यापार 2020 में 709 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। हाल ही में जी-7 एवं क्वाड के देशों ने दुनिया में लोकतंत्र की रक्षा और विस्तार के बारे में घोषणाएं की हैं। असल में अमेरिका लोकतांत्रिक देशों के शिखर सम्मेलन की मेजबानी करना चाहता है। लेकिन अफगानिस्तान में अमेरिका का अपने यूरोपीय सहयोगियों के साथ तालिबान के समक्ष, जिसकी मध्ययुगीन विचारधारा खासकर महिलाओं के खिलाफ हैं, पूरी तरह समर्पण लोकतंत्र और मानवाधिकारों के खिलाफ है और इसने लोकतंत्र और मानवाधिकारों के मुखर नारे को हास्यास्पद बना दिया है।
दुनिया मूक दर्शक बनकर बेशर्मी से काबुल हवाई अड्डे के आसपास पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के दिल दहला देने वाले दृश्य देख रही है, जो तालिबान के डर से देश छोड़ना चाह रहे हैं। पेंटागन ने स्वीकार किया है कि देश छोड़ने के इच्छुक सभी अफगानों को बाहर निकालना संभव नहीं होगा। अमेरिका ने कथित तौर पर उन अफगान नागरिकों की सूची उनकी बायोमेट्रिक्स जानकारी समेत तालिबान को सौंपी, जिन्होंने वर्षों तक उनके लिए विभिन्न क्षेत्रों में काम किया, जिसके चलते तालिबान उन्हें गिरफ्तार कर यातना दे सकते हैं और मुकदमे चला सकते हैं। अगर यह लोकतंत्र का ट्रेलर है, तो भला ऐसे लोकतंत्र में कौन रहना चाहेगा? जो बाइडन अपने पूर्ववर्ती डोनाल्ड ट्रंप द्वारा अमेरिकी सैनिकों की वापसी के लिए सुरक्षित मार्ग के बदले तालिबान के साथ किए एक तरह से आत्मसमर्पण जैसे समझौते का विनाशकारी परिणाम झेल रहे हैं। तालिबान प्रवक्ता अपनी छवि चमकाने के लिए अंतरराष्ट्रीय टीवी चैनलों पर दावा करते हैं कि वे 2001 से बिल्कुल अलग हैं!
क्या तालिबान की बातों पर पूरी तरह भरोसा करना अमेरिका की मूर्खता नहीं था? क्या वे इस बात पर जोर नहीं दे सकते थे कि तालिबान को पहले एक समावेशी सरकार बनानी चाहिए और अमेरिकी सेना नई सरकार के शपथ लेने के एक सप्ताह बाद वापस जाना शुरू करेगी और एक महीने में अपनी वापसी पूरी करेगी? अमेरिका को मंत्रिमंडल में बड़ी संख्या में महिलाओं को शामिल करने पर जोर देना चाहिए था। और यह पता लगाने के लिए कि क्या आईएस/अल कायदा और अन्य आतंकी समूह अफगानिस्तान लौट रहे हैं, अपने दूतावास के साथ कुछ समुद्री जहाज छोड़ना चाहिए था, जो वाशिंगटन को उन्हें बेअसर करने के लिए सचेत करता। आज अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की अंतिम तिथि है। इस समय सीमा की घोषणा ने ही तालिबान को हमले तेज करने के लिए प्रेरित किया होगा।
राष्ट्रपति गनी भाग गए। ऐसे में भ्रष्ट, कम वेतन पर काम करने वाले, अनियोजित अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा बल के सैनिकों ने प्रेरक नेतृत्व के अभाव में तालिबान को उम्मीद से कहीं ज्यादा तेजी से पूरे देश (पंजशीर घाटी को छोड़कर) पर कब्जा करने का मौका दे दिया और अफगान नागरिकों के पलायन को बढ़ावा दिया। अमेरिकी सैनिकों की चरणबद्ध वापसी की बेहतर योजना बनाकर हवाई अड्डे पर अराजकता से बचा जा सकता था। पाकिस्तान के लोगों, सामग्रियों, रसद और खुफिया समर्थन ने तालिबान की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी वियतनाम युद्ध के बाद से सबसे बड़ी हार है, जो अमेरिका की महाशक्ति देश की छवि को गंभीर नुकसान पहुंचाएगा।
अगर अमेरिका 20 साल में तालिबान को नहीं हरा सकता, तो आसियान, दक्षिण पूर्व एशिया और बाकी दुनिया को यह क्यों मानना चाहिए कि वह चीन या रूस से मुकाबला करने में सक्षम है? और जिन परिस्थितियों में वे तालिबान की दया पर आम अफगान नागरिकों को पीछे छोड़कर जा रहे हैं, वे लोकतंत्र और मानवाधिकारों के प्रति अमेरिकी प्रतिबद्धता के खिलाफ एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाते हैं।
भारत ने अशरफ गनी सरकार का समर्थन किया, जिसका पतन हो गया और अमेरिका की लाइन पर चला, तो उसने भारत के हितों की परवाह किए बगैर अफगानिस्तान से निकलने का फैसला किया। ऐसे में, भारत को दो सबक सीख लेने चाहिए-कभी किसी एक देश पर निर्भर न रहें और अमेरिकी दोस्ती पर कभी बहुत ज्यादा भरोसा न करें।
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