सम्पादकीय

भारत के आधारभूत मूल्यों की व्याख्या है संविधान की प्रस्तावना

Gulabi
22 Dec 2021 5:19 PM GMT
भारत के आधारभूत मूल्यों की व्याख्या है संविधान की प्रस्तावना
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भारत के संविधान की प्रस्तावना (उद्देश्यिका) संविधान सभा की 17 अक्टूबर 1949 की बैठक में पारित की गई
हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्त्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा इसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिये तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिये दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवंबर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हज़ार छः विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.'
भारत के संविधान की प्रस्तावना (उद्देश्यिका) संविधान सभा की 17 अक्टूबर 1949 की बैठक में पारित की गई. यह वह तारीख थी, जब संविधान का काम लगभग समाप्ति पर पहुंच चुका था. भारत का संविधान उस संकल्प प्रस्ताव के आधार पर रचा गया था, जिसे 13 दिसंबर 1946 को जवाहरलाल नेहरु ने प्रस्तुत किया था और विस्तृत चर्चा के बाद जिसे 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा ने ज्यों का त्यों पारित किया था. भारतीय स्वतंत्रता के इस घोषणा पत्र में कहा गया था कि यह संविधान सभा भारतवर्ष को एक पूर्ण स्वतंत्र जनतंत्र घोषित करने का दृढ़ और गंभीर संकल्प प्रकट करती है और निश्चय करती है कि उसके भावी शासन के लिए एक विधान बनाया जाए. यह उन सभी प्रदेशों का संघ होगा, जो आज ब्रिटिश भारत तथा देसी रियासतों के अंतर्गत हैं और इनके बाहर भी हैं तथा जो आगे स्वतंत्र भारत में सम्मिलित होना चाहते हैं.
सभी प्रदेशों को विधान सभा और विधान के अनुसार एक स्वाधीन इकाई या प्रदेश का दर्ज़ा मिलेगा. शासन के सभी अंगों को जो भी शक्तियां मिलेंगी, वह जनता द्वारा प्राप्त होंगी. सभी लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय के अधिकार, समानता, विचारों की अभिव्यक्ति, विश्वास और धर्म, ईश्वर की आराधना, काम-धंधे, संगठन बनाने और काम करने की स्वतंत्रता के अधिकार रहेंगे. इसमें अल्पसंख्यकों और कबाइली प्रदेशों, दलितों और पिछड़ों के लिए संरक्षण की व्यवस्था होगी. साथ ही वैश्विक स्तर पर भारत दुनिया की शान्ति और मानव जाति का हित साधन करने में अपनी इच्छा से पूर्ण योग देगा.
राजनैतिक नहीं आध्यात्मिक भी हैं सिद्धांत
आचार्य जे.बी.कृपलानी का मानना था कि 'इस प्रस्तावना में हमने जो सिद्धांत रखे हैं, वे केवल नैतिक तथा राजनैतिक सिद्धांत ही नहीं, महान नैतिक तथा आध्यात्मिक सिद्धांत भी हैं'. आचार्य कृपलानी ने यह समझाने की कोशिश की कि यदि नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को क़ानून और राजनैतिक व्यवस्था का आधार नहीं बनाया जाता, तो व्यवस्था कमज़ोर हो जाती है. मसलन यदि अहिंसा का पालन नहीं करेंगे तो लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो सकती है. इसी तरह लोकतंत्र जाति व्यवस्था से असंगत है. राजनैतिक रूप से हम लोकतांत्रिक हैं, लेकिन आर्थिक रूप से अनेकों वर्गों में विभाजित हैं. यदि हिंसा होगी तो विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता भी नहीं पाई जा सकती है. इन मायनों में प्रस्तावना वास्तव में संविधान के आध्यात्मिक मूल्यों का संग्रह ही तो है.
यह जरूरी है कि हम संविधान निर्माण को तीन भागों में देखें – दिसम्बर 1946 में भारतीय स्वतंत्रता का घोषणा पत्र (संविधान सभा के उद्देश्यों की घोषणा) पारित हुआ, फिर संविधान सभा के भागों और अनुच्छेदों पर चर्चा और बहस हुई, फिर तीसरे भाग में प्रस्तावना को, तारीख के लिए खाली स्थान छोड़ कर 17 अक्टूबर 1949 को संविधान के अंगीकरण, अधिनियमन और आत्मार्पण की घोषणा के साथ पारित किया गया.
संविधान सभा की शुरुआत में सबसे पहले 22 जनवरी 1947 को स्वतंत्रता के घोषणा पत्र के रूप में उन सैद्धांतिक मूल्यों को पारित किया गया था, जो संविधान की नींव बनने वाले थे. जबकि प्रस्तावना को संविधान के लगभग पूरा बन जाने के बाद आखिर में पारित किया गया ताकि वास्तविक स्वरुप के वास्तविक सिद्धांतों को उसमें परिभाषित किया जा सके.
संविधान की संरचना और प्रारूप
इसका एक-एक शब्द महत्वपूर्ण, संवेदनशील और जवाबदेही से भरा हुआ है. 26 फ़रवरी 1948 को भारत के गजट में संविधान सभा की संविधान प्रारूप समिति द्वारा तैयार किये गए संविधान का प्रारूप प्रकाशित किया गया. इसमें डॉ.बी. आर अंबेडकर ने संविधान सभा के अध्यक्ष को संबोधित अपने पत्र में लिखा कि 'समिति ने संविधान की प्रस्तावना में बंधुता का अनुच्छेद जोड़ा है. हालांकि यह संविधान के उद्देश्यों की घोषणा में शामिल नहीं था, लेकिन समिति ने महसूस किया कि आज भारत में आपसी बंधुत्व और सद्भावना की जितनी जरूरत महसूस होती है, उतनी जरूरत पहले कभी महसूस नहीं की गई. अतः नये संविधान में इस अहम् उद्देश्य पर प्रस्तावना में विशेष जोर दिया जाना चाहिए.'
प्रबुद्ध वकील और संविधान सभा के सदस्य सर अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा था कि जहां तक प्रस्तावना का संबंध है, एक सामान्य क़ानून में हम प्रस्तावना को कोई महत्व नहीं देते हैं, लेकिन संवैधानिक क़ानून में प्रस्तावना को व्यापक महत्व दिया जाना चाहिए.
केशवानंद भारती केस के माध्यम से उच्चतम न्यायालय ने भी यह स्पष्ट किया कि संसद (संसद के दोनों सदन) संविधान में संशोधन तो कर सकती है, लेकिन उसकी आधारभूत संरचना को सीमित और उनका उल्लंघन नहीं कर सकती है. संविधान की आधारभूत संरचना में संविधान की सर्वोच्चता, क़ानून का शासन, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत, संघवाद, धर्म निरपेक्षता, संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य, संसदीय प्रणाली, स्वतंत्र चुनाव और कल्याणकारी राज्य सरीखे तत्व शामिल हैं. इन तत्वों का स्रोत प्रस्तावना ही तो है. संविधान की आधारभूत संरचना के मायनों को एस.आर.बोम्मई बनाम भारतीय संघ (वर्ष 1994) मामले से समझा जा सकता है.
इस मामले में धर्मनिरपेक्षता के तत्व के आधार पर कर्नाटक की एस.आर.बोम्मई सरकार की बर्खास्तगी को बरकरार रखा गया था. नौ सदस्यीय पीठ ने कहा कि 'सकारात्मक धर्मनिरपेक्ष राज्य में राजनीति को धर्म से परे रहना है दूसरे शब्दों में कहें तो राजनीतिक दल को न तो धर्म का आह्वान करना चाहिए और न ही उस पर समर्थन या निर्वाह के लिए निर्भर होना चाहिए. संविधान व्यक्ति के धर्म की रक्षा सुनिश्चित करता है, धर्मनिरपेक्ष जीवन जीने के लिए अनुकूल शिक्षा के प्रचार की आज़ादी देता है, ताकि इंसान के और देश की प्रगति राज्य द्वारा सुनिश्चित की जा सके. यह सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता से जुड़ा अहम पहलू है.
केशवानंद भारती श्रीपादगलवरु बनाम केरल राज्य एवं अन्य (केशवानंद भारती केस के नाम से प्रसिद्ध) के मामले में सर्वोच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश एस.एम सीकरी ने अपने आदेश में जिक्र किया है कि 'मैं संविधान की प्रस्तावना की ऐतिहासिक यात्रा का उल्लेख कर सकता हूँ क्योंकि इससे ही पता चलता है कि संविधान का स्वरुप तय हो जाने के बाद ही प्रस्तावना को अंतिम रूप से स्वीकार किया गया, न कि प्रस्तावना स्वीकार करने के बाद संविधान बनाया गया.
बी. शिवा राव ने अपनी पुस्तक 'फ्रेमिंग आफ इंडियाज़ कांस्टीट्यूशन' में उल्लेख किया है कि पहले तो एक औपचारिक सी प्रस्तावना तैयार की गई थी – 'हम, भारत के लोग, सार्वजनिक हितों को बढ़ावा देने के लिए अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से यह संविधान अधिनियमित, स्वीकार और स्वयं को समर्पित करते हैं'. उनका मानना है कि संविधान की प्रस्तावना को सभा में 17 अक्टूबर 1949 को पारित किये जाने का मकसद यह सुनिश्चित करना था कि प्रस्तावना संविधान के स्वीकृत स्वरूप को प्रतिबिंबित करे, क्योंकि संविधान बनाये जाने के दौरान स्थितियां-परिस्थितयां तेज़ी से बदल रही थीं.
भारत का जो स्वरुप कैबिनेट मिशन योजना में दर्शाया गया था, अब भारत का स्वरूप वह नहीं रह गया था. यानी रियासतें भारत में शामिल होने के लिए राज़ी हो गई थीं और पाकिस्तान का निर्माण हो गया था, अतः भारत अब एक पूर्ण स्वतंत्र राष्ट्र बन रहा था. दूसरी तरफ ब्रिटिश सरकार लगातार कोशिश कर रही थी कि भारत ब्रिटेन का स्वतंत्र उपनिवेश बना रहे, लेकिन संविधान सभा ने तय किया कि भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न स्वतंत्र राष्ट्र होगा और उपनिवेश नहीं रहेगा. ब्रिटिश सरकार बार-बार यह स्थापित करने की कोशिश करती रही थी कि संविधान सभा का गठन उसने ही किया है, इसलिए सभा को वह नियंत्रित भी कर सकती है, लेकिन संविधान सभा ने और अंतरिम सरकार ने ऐसा होने नहीं दिया.
यही कारण है कि संविधान की उद्देश्यिका की शुरुआत ही 'हम, भारत के लोग' से हुई; इसके माध्यम से सन्देश दिया गया कि यह संविधान भारत के लोगों की अपेक्षाओं के अनुसार ही इस सभा ने बनाया है. साथ ही यह घोषणा भी कि हम भारत के लोग….'दृढ संकल्पित होकर इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं'; सामान्य घोषणा नहीं है, इसे खुदमुख्तार और आज़ाद देश होने की घोषणा के रूप में पढ़ा जाना चाहिए.
कैबिनेट मिशन योजना (मई 1946) में तय किया गया था कि भारत के प्रांत और रियासतें तीन मंडलों में विभाजित होंगी, संघ की शक्तियां सीमित होंगी और दो तरह के संविधान बनेंगे यानी प्रान्तों/मंडलों को अपने संविधान बनाने का अधिकार होगा. कैबिनेट मिशन योजना में सभी प्रान्तों और रियासतों को स्वायत्तता देने की व्यवस्था बनायी गई थी.
लोकतंत्रात्मक भारत का लक्ष्य
पारंपरिक रूप से भारत राजशाही व्यवस्था और रियासतों में बंटा उपमहाद्वीप रहा था. अतः उन सभी रियासतों-राजे रजवाड़ों को भारत में मिलाकर एक देश बनाना बेहद दुरूह काम रहा. लेकिन 12 अक्टूबर 1949 को सरदार वल्लभ भाई पटेल ने संविधान सभा को सूचित किया कि '501 राज्यों को बड़े-बड़े एककों में मिलाकर और शताब्दियों पुराने स्वैरतम्भों को पूर्णतया मिटाकर भारतीय लोकतन्त्र ने एक महान विजय प्राप्त की है, जिसका शासकों तथा भारत की जनता को समान रूप से गौरव होना चहिये. भारत सरकार द्वारा अपनायी गई राज्यों का एकीकरण करने और लोकतंत्रात्मक बनाने की नीति के फलस्वरूप दिसंबर 1947 से तथाकथित राज्यों के संघीकरण का कार्य बड़े जोरों से हुआ.
मुझे विश्वास है कि सभा इस महत्वपूर्ण तथ्य पर कृतज्ञतापूर्वक ध्यान देगी कि वर्ष 1935 की योजना से भिन्न रूप में हमारा संविधान लोकतन्त्रों और राजकुलों का मेल नहीं है, वरन जनता की सम्पूर्ण प्रभुता की आधारभूत विचारधारा पर निर्मित भारतीय जनता का एक वास्तविक संघ है. यह राज्य और प्रान्तों की जनता की उन्नति की समस्त रुकावटों को दूर करता है और समान रूप से प्रान्तों और राज्यों की जनता की और से किये गए सहयोगी उद्यम के सच्चे आधार पर निर्मित एक सुदृढ़ लोकतंत्रात्मक भारत बनाने के लक्ष्य की प्रथम बार पूर्ति करता है'.
एच. वी. कामत ने संविधान सभा में 17 अक्टूबर 1949 को यह संशोधन प्रस्तुत किया था कि 'प्रस्तावना में 'हम, भारत के लोग…' के स्थान पर 'ईश्वर के नाम पर, हम भारत के लोग….' प्रतिस्थापित किया जाए. इस पर रोहिणी कुमार चौधरी ने 'देवी का नाम लेकर….' रखना स्वीकार करें. पंडित हृदयनाथ कुंजरू ने कहा कि इस प्रकार की कार्यवाई प्रस्तावना से असंगत है…जब हम ऐसा करते हैं, तो हम एक संकीर्ण साम्प्रदायिक भावना का प्रदर्शन करते हैं जो संविधान की आत्मा के विरुद्ध है. प्रो. शिब्बन लाल सक्सेना ने प्रस्तावना में महात्मा गांधी का नाम जोड़ने का सुझाव दिया. हालाँकि ये सभी संशोधन नकार दिए गए.
प्रस्तावना में भारत के संविधान के वे आध्यात्मिक मूल्य दर्ज हैं, जो उस वक्त सबसे अहम भूमिका निभाते हैं, जब समाज और राजनीतिक के चरित्र की व्याख्या करने की जरूरत पड़ती है. संविधानविद डॉ. दुर्गादास बसु ने 'भारत का संविधान-एक परिचय' में लिखा है कि लिखित संविधान की उद्देश्यिका में वे उद्देश्य लेखबद्ध किये जाते हैं, जिनकी स्थापना और संप्रवर्तन के लिए संविधान की रचना होती है. जहां संविधान की भाषा में संदिग्धता होती है, वहां उद्देश्यिका संविधान के विधिक निर्वचन में सहायता करती है. बेहद जरूरी है कि संविधान की प्रस्तावना, भारत के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक जीवन की भी प्रस्तावना बने.
सचिन कुमार जैन
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