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जो इलाके किसान आंदोलन का आधार क्षेत्र रहे हैं, वहां बंद का भारी असर देखा गया
जिन बड़े आंदोलनों का खूब जिक्र होता है, वे अक्सर मध्य वर्ग केंद्रित थे या फिर उनमें गोलबंदी अस्मिता के मुद्दों पर हुई थी। जबकि मौजूदा किसान आंदोलन में सीधे तौर पर रोजी-रोटी के सवाल प्रमुख हैं। इसलिए यह बेहद अहम है कि इस आंदोलन के इर्द-गिर्द राजनीतिक गोलबंदी हो रही है। Kishan andolan agriculture law
संयुक्त किसान मोर्चा के आह्वान पर सोमवार को भारत का असर यह बताता है कि तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दस महीनों से चल रहे किसान आंदोलन की ऊर्जा बरकरार है। जो इलाके किसान आंदोलन का आधार क्षेत्र रहे हैं, वहां बंद का भारी असर देखा गया। चूंकि इस बार ज्यादातर विपक्षी दलों ने भी बंद का समर्थन किया था, इसलिए जहां वे दल मजबूत हैं, वहां भी बंद का प्रभाव देखने को मिला। कुल संदेश यह रहा कि किसान आंदोलन राजनीतिक ध्रुवीकरण का एक पहलू, या कम से कम संभावित पहलू बना हुआ है। इस रूप में भारत की आजादी के बाद यह पहला इतना बड़ा आंदोलन है, जो आर्थिक मुद्दों पर केंद्रित रहते हुए और एक खास वर्गीय नजरिए के साथ भारत की राजनीति की प्रभावित करने की संभावना दिखा रहा है। जाहिर है, ये प्रभाव तुरंत नहीं पड़ा है। मुमकिन है कि आने वाले चुनावों में भी इससे बहुत फर्क नहीं पड़े। लेकिन भाजपा शासन का आधार जो राजनीतिक अर्थव्यवस्था (पॉलिटिकल इकॉनमी) बनी हुई है, उसे ऐसी चुनौती किसी और आंदोलन या राजनीतिक गोलबंदी से मिलती नहीं दिखती। असल में आजाद भारत में ऐसा कभी नहीं हुआ।
नया इंडिया
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