सम्पादकीय

अरसे से खाली पड़े अधिकारियों के पद और अब भर्ती रैलियों पर जारी रोक ने भारतीय सेना के लिए एक नई दुविधा पैदा कर दी है

Gulabi Jagat
6 April 2022 12:27 PM GMT
अरसे से खाली पड़े अधिकारियों के पद और अब भर्ती रैलियों पर जारी रोक ने भारतीय सेना के लिए एक नई दुविधा पैदा कर दी है
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कितने कम हैं अधिकारी
संजय वोहरा।
भारत में बेरोज़गारी (Unemployment) एक ऐसी समस्या है जिसपर पिछले कई वर्षों से राजनीतिक सुगबुगाहट होती रहती है. गाहे बगाहे इस पर संसद में सवाल जवाब, हल्की फुल्की चर्चा होती दिखाई देती है या इक्का दुक्का बार इसे टीवी जैसे सार्वजनिक माध्यमों पर होने वाली डिबेट का हिस्सा बनते भी देखा गया है. लेकिन ज्यादातर ये चुनावों के आस पास होता है. चुनावी घोषणा पत्रों (Election Manifestos) में रोजगार का बंदोबस्त करने के वादे भी उन कई वादों में शुमार होते हैं जो सियासी दल वोट के समर में उतरते वक्त जनता से करते हैं. ये सिलसिला बरसों से चल रहा है. वो बात अलग है कि भारत में बेरोज़गारी को लेकर, कम से कम पिछले कुछ सालों में तो आंदोलन नहीं ही हुआ. जितना ये सच है, उतना ही एक सच ये भी है कि भारत में ही एक क्षेत्र ऐसा भी है जहां बरसों से हज़ारों रिक्तियां भरी तक नहीं गईं.
ये वाकई सुनने में अजीब लगता है कि एक ऐसा क्षेत्र जहां मान-सम्मान, सुविधाएं, पक्की नौकरी और ठीक ठाक वेतन आदि भी है, लेकिन लोग उस क्षेत्र में जाना नहीं चाहते. ये है भारत में सैन्य सेवा. भला यहां ऐसे हालात क्यों हैं? ऐसा संकट क्यों है? खैर इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, लेकिन मोटे तौर पर सेना (Indian Army) के अफसर और जानकार इसके पीछे बड़ा कारण बताते हैं वो है सेना में अधिकारियों की भर्ती करने के लिए तय मानदंडों में किसी तरह का समझौता न करने की नीति. ये तर्क संगत भी है क्योंकि सेना जैसे क्षेत्र में स्तर से नीचे के शख्स की भर्ती किया जाना सही भी नहीं है, क्योंकि मामला राष्ट्र की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है. लेकिन फिर सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्यों है कि दुनिया भर में आबादी के हिसाब से नंबर दो पर रहने वाले देश में चंद हजार पदों के लिए भी ऐसे काबिल युवा नहीं मिल रहे जो सेना में अफसर बन सकने का माद्दा रखते हों?
कितने कम हैं अधिकारी
इसमें कोई शक नहीं कि सेना जैसे संगठन में किसी के अधिकारी के तौर पर जाने का मतलब है कि वो शारीरिक बल, साहस, बुद्धि के मामले में तो उत्कृष्ट है ही, वो नेतृत्व करने समेत कई तरह की प्रतिभा का धनी भी है. ऐसे ओहदों की वेकेंसी न भरने का मतलब ऐसा कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि, इस तरह के युवा मिलते ही नहीं. हर साल सैंकड़ों हजारों नौजवान, अधिकारी के तौर पर सलेक्ट भी होते हैं और भारतीय सेनाओं के विभिन्न अंगों में कमीशन हासिल भी करते हैं. फिर ऐसा क्यों है कि बाकी पद भरे जाने से छूट जाते हैं? क्या ऐसा तो नहीं है कि देश में उन इलाकों में मौजूद ऐसे युवा वर्ग तक सेना के पहुंचने में कमी है अथवा युवाओं तक इस बाबत जानकारी नहीं पहुंच जिन इलाकों में ऐसे काबिल युवा पर्याप्त संख्या में मिल सकते हों..!
पिछले साल यानि 2021 तक के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ भारतीय सेना में 9362 अधिकारियों की कमी थी. यहां उन कमीशंड अधिकारियों की बात हो रही है जो लेफ्टिनेंट के तौर पर भर्ती होते हैं और जनरल के ओहदे तक पहुंचते हैं. यानि ऐसे अफसर जो अपने कार्यकाल में टुकड़ियों, बटालियनों, ब्रिगेड और विभिन्न सैन्य कमांड के नेतृत्व से लेकर सेनाध्यक्ष तक बनने के पात्र हो सकते हैं. ऐसे महत्वपूर्ण पदों में से थल सेना में 7476, नौसेना में 1265 और वायुसेना में 621 पद खाली पड़े हैं. हालांकि सेना की सेवा को रोज़गार के पहलू से नहीं देखना चाहिए, क्योंकि ये राष्ट्र के प्रति एक संकल्प, फ़र्ज़ और जज़्बे से जुड़ा मामला है फिर भी करियर व आमदनी का एक अच्छा ज़रिया तो है ही.
सेना में एक लाख से ज्यादा जवानों की वेकेंसी
अधिकारियों के स्तर पर हज़ारों वेकेंसी हमेशा रहना एक मुद्दा है जो बरसों पुराना है. लेकिन अब इससे भी कई गुना ज्यादा तादाद में जवानों और जेसीओ (जूनियर कमीशंड अधिकारी) के पद खाली पड़े हैं. खुद रक्षा राज्यमंत्री अजय भट्ट की तरफ से उपलब्ध कराए गए आंकड़े बताते हैं, ऐसे पदों के लिए एक लाख से भी ज्यादा रिक्तियां हैं. दिसंबर 2021 तक थल सेना में जवानों और जेसीओ के 97177, नौसेना में नाविकों के 11166 और वायुसेना में एयरमैन के पदों पर 4850 वेकेंसी हैं, जो भरी नहीं गई. खैर इसके लिए कुछ हद तक परिस्थितियों का दोष माना जा सकता है, लेकिन बड़ी वजह सरकार की वर्तमान अनिर्णय वाली नीति ज़िम्मेदार है.
दरअसल, 2019 में वैश्विक महामारी में तब्दील हुए कोरोना वायरस संक्रमण के कारण भारत में बंद की गई गतिविधियों में से एक है सेना में जवानों की भर्ती. शुरुआती दिनों में तो संक्रमण फैलने से रोकने के हिसाब से और आवाजाही के संकट आदि व्यवहारिक कारणों से ये रोक ठीक लगी, लेकिन ये रोक अब भी लगी हुई है. एक तरफ दो साल के इस अरसे में चुनाव, मेले जैसे बड़े-बड़े आयोजन चलते रहे जिनमें खूब भीड़ होती है. लोगों की आवाजाही भी खूब होती है दफ्तर, कारखाने तमाम खुल गए लेकिन सेना में भर्ती की प्रक्रिया शुरू नहीं हुई. इसे लेकर सैन्य क्षेत्र के जानकारों में हैरानी भी है और वे आलोचना भी कर रहे हैं.
वे सवालिया अंदाज़ में पूछते हैं, चुनावी रैलियां तो खूब हुईं लेकिन सेना की भर्ती रैलियां रोक कर रखी गई हैं. साल 2020-21 में 97 भर्ती रैलियां होनी थीं और आयोजित की गई सिर्फ 47 और बाकी भर्ती प्रक्रिया निलंबन से पहले सामान्य दाखिला परीक्षा (कॉमन एंट्रेंस एग्जाम – CEE) भी सिर्फ चार भर्ती रैलियों के लिए हुए. वहीं 2021-22 के लिए 87 भर्ती रैलियां करने का प्लान था जिनमें से अब तक चार हुई हैं और कोई सामान्य दाखिला परीक्षा नहीं हुई. हाल ही में खुद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने राज्यसभा में कहा कि देश के कोने-कोने में हरेक साल कुल मिलाकर 90 से 100 भर्ती रैलियां होती हैं.
सेना में रुकी भर्ती के दुष्प्रभाव
भारत की 12-13 लाख नौकरी वाली सेना में हरेक साल तकरीबन 60 हज़ार के आसपास फौजी रिटायर होते हैं. क्योंकि सेना को युवा भी रखना होता है, इसलिए सेना में अन्य वर्दीधारी पुलिस संगठनों जैसे अर्ध सैन्य बल, केन्द्रीय पुलिस बल या राज्य पुलिस बलों के अपेक्षाकृत के सैनिक जल्दी रिटायर होते हैं. ज्यादातर फौजी 40 के आसपास पहुंचते रिटायरमेंट ले लेते हैं. कर्नल और उसके ऊपर के रैंक पर भी तरक्की के मौके और वेकेंसी ज्यादा न होने के कारण कई अधिकारी भी सेवा मुक्ति ले लेते हैं. ब्रिगेडियर और उसके ऊपर पहुंचने वाले कुछ ही अधिकारी होते हैं जो 60 की उम्र तक सेवा में कायम रहते हैं.
सेवा विस्तार मिलता नहीं है और ये जनरल के रैंक पर ही मुमकिन होता है. ऐसे में ज़रूरी है कि सेंक्शन स्ट्रेंथ और सेना को युवा बनाए रखने का संतुलन बनाए रखने के लिए सेना में भर्ती का सिलसिला लगातार चलता है. अग्रिम मोर्चों पर तैनाती के लिए सैनिक को, भर्ती करने से लेकर प्रशिक्षित करने में तकरीबन 2 साल लग जाते हैं. भर्ती रोके जाने का असर तुरंत नहीं लेकिन कुछ साल बाद दिखाई देने लगता है, जब रिटायर हो रहे फौजी का स्थान लेने के लिए नया सैनिक तैयार नहीं होगा. इसका एक विकल्प तो यही बचेगा कि रिटायरमेंट देर से की जाए जो सेना को युवा बनाए रखने के सिद्धांत से समझौता करना होगा.
भर्तियां रुके रहने का एक असर ये भी है कि बहुत से इच्छुक और पात्र वो युवा सेना में शामिल होने से वंचित रह जाएंगे जिनकी आयु भर्ती की अधिकतम सीमा के करीब है. ऐसे युवाओं के लिए सरकार ने कोई छूट देने का निर्णय भी नहीं लिया है. ये युवाओं में गुस्से का कारण भी बना है. सोशल मीडिया पर नौजवान ऐसे सवाल लगातार उठा रहे हैं. पंजाब में ऐसे नौजवानों ने प्रदर्शन भी किए. कई युवा तो सेना में भर्ती के लिए ट्रेनिंग और कोचिंग भी लेते हैं. भर्ती रुकी रहने से उनका वक्त और पैसा तो बर्बाद होता ही है लेकिन सेना में जाने के संजोये सपने भी तो टूटते हैं. अजीब ये भी है कि एक तरफ सेना में भर्ती रुकी रही लेकिन अन्य बलों में भर्ती का सिलसिला शुरू हो चुका है.
ये नए सैनिक स्कूल कितनी कर सकेंगे मदद
अब जहां तक सेना में अधिकारियों की कमी को दूर करने की कवायद की बात है तो हाल ही में सरकार ने देश में अलग अलग क्षेत्रों में 100 सैनिक स्कूल खोलने का ऐलान किया है जिनमें छठवीं क्लास से ऊपर की पढ़ाई कराई जाएगी. इनमें से कुछ स्कूलों को एनजीओ चलाएंगे, कुछ निजी स्कूलों को चलाने वाले संगठनों या संस्थाओं के पास होंगे और कुछ राज्य सरकार की मदद से चलेंगे. ये एक तरह की साझेदारी वाला हिसाब किताब होगा. इनमे से कई बच्चों की फीस का आधा खर्चा सरकार भी वहन करेगी, लेकिन उसकी भी सीमा 40 हजार रुपये सालाना है. ये स्कूल भले ही किसी भी शिक्षा बोर्ड के तहत हों और कोई भी चलाए, लेकिन इनके तौर तरीके सैनिक स्कूल सोसाइटी ही तय करेगी.
परम्परगत सैनिक स्कूलों की तरह यहां ज़रूरी नहीं की हॉस्टल या छात्रों के रहने का इंतजाम हो. सामान्य स्कूलों की तरह छात्र यहां दिनभर पढ़ेंगे और फिर अपने घर जाएंगे. लेकिन ये तो पक्का है कि ऐसे सिस्टम में स्कूल उस क्वालिटी का न तो वातावरण और न ही उस तरह जज़्बा दे सकेंगे जैसा सैनिक स्कूल देते हैं. वैसे फिलहाल भारत में 33 सैनिक स्कूल हैं जो ये सैनिक स्कूल सोसायटी चलाती है. भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अधीन नेशनल टेस्टिंग एजेंसी एक स्वायत शासी स्वतंत्र संस्था है जो अंतर्राष्ट्रीय मानकों के मुताबिक़ पारदर्शिता अपनाते हुए उम्मीदवारों की उच्चस्तरीय संस्थानों में दाखिले के लिए क्षमता परखने की परीक्षा कराती है.
सैनिक स्कूलों में दाखिले 6ठवीं और नौंवीं क्लास में परीक्षा के ज़रिए होते हैं. अभी इन स्कूलों को शुरू होने और फिर इनमें दाखिल होने वाले बच्चों के उस उम्र तक पहुंचने में खासा लम्बा समय लगेगा, जब वो एनडीए या ऐसी संस्थाओं में जाने लायक हों जहां से कैडेट्स निकलते हैं. यहां पर सवाल खड़ा होता है कि आखिर ऐसे स्कूलों के लिए सरकार को गैर सरकारी और निजी संस्थानों पर निर्भर क्यों होना पड़ रहा है, जबकि सेना के पास ऐसे अपने स्कूल और चलाने की क्षमता है. इस पर ये भी कहा जा सकता है कि क्या ये धन बचाने का या शिक्षा में निवेश बचाने का तरीका तो नहीं है. वैसे भारत में सरकार पहले से ही शिक्षा पर बेहद कम बजट खर्च कर रही है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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