सम्पादकीय

गरीब भाग्यशाली हैं, पर सब नहीं

Subhi
13 Nov 2022 6:23 AM GMT
गरीब भाग्यशाली हैं, पर सब नहीं
x
मैं इस बात को भी अच्छी तरह समझता हूं कि भारतीय समाज में कितनी असमानता है और इसमें समानता लाने के लिए हमें सैकड़ों चीजें करनी हैं। कई मौकों पर सामाजिक न्याय और समानता के दोराहे पर सामाजिक न्याय प्रभावित हुआ है और कई मौकों पर समानता की बलि चढ़ी है।

पी. चिदंबरम: मैं इस बात को भी अच्छी तरह समझता हूं कि भारतीय समाज में कितनी असमानता है और इसमें समानता लाने के लिए हमें सैकड़ों चीजें करनी हैं। कई मौकों पर सामाजिक न्याय और समानता के दोराहे पर सामाजिक न्याय प्रभावित हुआ है और कई मौकों पर समानता की बलि चढ़ी है।

कानून विधायिका बनाती है, जो व्यापक रूप से राजनीतिकों की सभा है। कानूनों की देखरेख और उन्हें लागू करने का काम जजों का है, जो राजनीति से अलग रहते हैं। शासकों को जजों से डरना चाहिए, जजों को शासकों से नहीं। देश कानून से शासित होता है या नहीं, इसका सही पता कानून और राजनीति के मिलन के नतीजे से पता चलता है।

सात नवंबर 2022 को जनहित अभियान मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया, वह उन दुविधाओं का उत्कृष्ट उदाहरण है, जो कानून, राजनीति, सामाजिक न्याय और समानता के चौराहे पर एक दूसरे से टकराती हैं। फैसला मामलों के अलग-अलग हिस्सों में दिया गया, जिनमें संविधान के एक सौ तीनवें संशोधन जिसे ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण के मामले के रूप में जाना जाता है, को चुनौती दी गई थी। ईडब्ल्यूएस का मतलब है आर्थिक रूप से कमजोर तबके। इस स्तंभ में मैं इन्हें 'गरीब' कहना पसंद करूंगा।

आज शिक्षा संस्थानों और सरकारी रोजगार में कई तरह के आरक्षण हैं। ये आरक्षण ''सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों'' के लिए हैं, यानी अनुसूचित जातियों (एससी), अनुसूचित जनजातियों (एसटी) और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के लिए। इसके ऐतिहासिक और अविवाद्य कारण हैं कि इन वर्गों के लोग सामाजिक और शैक्षिक रूप से आखिर क्यों पिछड़े हुए हैं। आरक्षण का विचार एक सकारात्मक कदम के रूप में लिया गया था और एससी, एसटी और ओबीसी को आरक्षण के लिए कानूनी वैधता और स्वीकृति मिली।

माना जाता है कि इन आरक्षणों से समाज के उन वर्गों के बीच चिंता पैदा हुई, जिन्हें किसी प्रकार का कोई आरक्षण नहीं मिला था, खासतौर से वे नागरिक जो एससी, एसटी या ओबीसी में नहीं आते। यह विचार आया कि इन नागरिकों में भी गरीब लोग शिक्षा और रोजगार में वैसी ही मुश्किलों का सामना करते हैं, तो क्यों न गरीबों के लिए नया आरक्षण कर दिया जाए? यह विचार अवधारणा के स्तर पर अच्छा था, लेकिन इसमें कुछ बाधाएं थीं:

'बुनियादी ढांचे' का सिद्धांत और 'पचास फीसद सीमा' का सिद्धांत उन फैसलों में पता लगाने योग्य है, जिनकी व्याख्या संविधान में की गई है। माननीय जजों ने कानून में मौजूद अवरोधों को खत्म करने का फैसला कर लिया तो आगे का रास्ता साफ था। सभी पांचों माननीय न्यायाधीश इस पर सहमत थे कि सामाजिक न्याय की तरह ही आर्थिक न्याय भी होना चाहिए और आर्थिक आधार पर आधारित नए आरक्षण से संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं होगा। वे इस बात पर सहमत हुए थे कि इस मामले में पचास फीसद की सीमा पार होना असंवैधानिक नहीं है।

उन्होंने एकमत से आर्थिक आधार पर आरक्षण रखने और इसकी सीमा दस फीसद रखने पर सहमति जताई। फैसले की इस हिस्से की आलोचना दब गई है। जिस मुद्दे को लेकर राय बंटी हुई है, वह यह है कि क्या गरीबों के इस आरक्षण में एससी, एसटी या ओबीसी के गरीब बाहर हो जाएंगे?

पोषण और सीखने की क्षमता में कमी का बड़ा कारण गरीबी है। ये कमियां शिक्षा और रोजगार तक पहुंच बनाने को सीमित या खत्म कर देती हैं। इसलिए सवाल तो यह उठता है कि गरीब कौन हैं? एक सौ तीनवें संविधान संशोधन ने यह सवाल राज्यों पर छोड़ दिया है कि परिवार की आय और प्रतिकूल आर्थिक परिस्थितियों के संकेतकों के आधार पर वे ही इसे अधिसूचित करें।

अल्पमत वाले फैसले ने जुलाई 2010 के सिन्हो आयोग का हवाला दिया, जिसने कहा था कि 31.7 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। इसमें अनुसूचित जाति की आबादी सात करोड़ चौहत्तर लाख, अनुसूचित जनजाति की आबादी चार करोड़ पच्चीस लाख और अन्य पिछड़े वर्गों की आबादी तेरह करोड़ छियासी लाख थी, यानी कुल पच्चीस करोड़ पिच्यासी लाख या गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) की आबादी का साढ़े इक्यासी फीसद। 2010 के बाद से बीपीएल आबादी के अनुपात में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया होगा।

महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या अनुच्छेद 15 (6) और 16 (6) जो एससी, एसटी और ओबीसी के गरीबों को नए आरक्षण से बाहर करते हैं, क्या संवैधानिक रूप से वैध है? इस मसले पर माननीय जज तीन-दो के बहुमत से बंटे दिखे। न्यायमूर्ति रवींद्र भट्ट ने इस पर कड़ी असहमति जताई, जिसमें प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति यूयू ललित उनके साथ थे। उनके ये शब्द ''हमारा संविधान बहिष्कार की भाषा नहीं बोलता'' सुप्रीम कोर्ट में वर्षों तक गूंजते रहेंगे। मेरे विचार से यह असहमति कानून की विचारमग्न भावना की अपील है जो बेहतर भविष्य की परिचायक है जब बाद का कोई फैसला गलती को संभवत: सुधार दे (चीफ जस्टिस चार्ल्स इवांस ह्यूजेस के अनुसार)।

इन संभावित नतीजों पर गौर करें। गरीबों के लिए नया आरक्षण आर्थिक न्याय को आगे ले जाएगा। लेकिन एससी, एसटी और ओबीसी (जो कुल गरीबों के साढ़े इक्यासी फीसद हैं) को इस आरक्षण से बाहर करना बेहद गरीबों के बीच समानता और न्याय को खत्म कर देगा।


Next Story