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1991 के अधिनियम की करीब से समीक्षा करने पर पता चलता है
श्रवण साहनी
1991 के अधिनियम की करीब से समीक्षा करने पर पता चलता है कि यह प्राचीन स्मारकों, पुरातात्विक स्थलों और अवशेषों के मामले में अदालतों के अधिकार क्षेत्र को पूरी तरह से प्रतिबंधित नहीं करता है. वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद (Gyanvapi Mosque) में हिंदू धार्मिक प्रतिमाओं की उपस्थिति का पता लगाने के लिए कोर्ट द्वारा सर्वेक्षण कराने के आदेश के बाद इस मामले पर बहस तेज हो गई है कि क्या हिंदू धार्मिक स्थलों को फिर से हासिल करने के लिए मुकदमेबाजी किसी भी कानून द्वारा वर्जित है. तथाकथित सेक्युलर लोगों ने तीखी बहस छेड़ दी है कि पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 (Act No. 42 of 1991) के तहत इस तरह के मुकदमे को दायर करने या किसी अन्य कानूनी कार्यवाही शुरू करने पर रोक है.
क्या है पूजा स्थल अधिनियम?
मुगल शासन (Mughal rule) के दौरान मस्जिदों के निर्माण के लिए ध्वस्त किए गए लगभग 3000 मंदिरों के पुनरुद्धार के लिए हिंदू संगठनों की मांग के मद्देनजर इस अधिनियम को पारित किया गया था. यह कानून किसी भी धार्मिक स्थल को किसी दूसरे धर्म की उपासना स्थल में बदलने और 15 अगस्त 1947 से पहले मौजूद किसी भी पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र बदलने पर रोक लगता है.
यह ध्यान देने योग्य है कि 1991 के अधिनियम की धारा 4(1) न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र को प्रतिबंधित करती है, धारा 4 की उप-धारा (3) में प्रावधान है कि 'उप-धारा (1) और उप-धारा (2) की कोई बात किसी भी पूजा स्थल पर लागू होगा जो प्राचीन स्मारक तथा पुरातात्विक स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 (1958 का 24) या किसी अन्य विधि के अंतर्गत आनेवाला कोई प्राचीन ऐतिहासिक स्मारक या कोई पुरातत्वीय स्थल या अवशेष है'.
ध्यान देने योग्य बात यह है कि 1991 के इस अधिनियम की धारा 5 में प्रावधान है कि यह अधिनियम उत्तर प्रदेश के अयोध्या में स्थित राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद के मामले या इस पूजा स्थल से संबंधित किसी भी अन्य मुकदमे, अपील या कार्यवाही पर लागू नहीं होगा. ऐसे में यह जानना हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण है कि प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारक (historical monument) या पुरातात्विक स्थल (archaeological site) किसे कहते हैं.
ज्ञानवापी मामले में पूजा स्थल अधिनियम क्यों नहीं लागू होता?
प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 – Ancient Monuments and Archaeological Sites and Remains Act, 1958 – (Act No. 24 of 1958) की धारा 2 (ए) ऐसे किसी भी संरचना को 'प्राचीन स्मारक' के तौर पर परिभाषित करती है जो कम से कम 100 वर्षों से अस्तित्व में है. इसमें ऐसे भवन, स्मारक, स्तूप, नजरबंदी के स्थान, गुफा, रॉक-स्कल्पचर, शिलालेख या मोनोलिथ शामिल हैं जो ऐतिहासिक, पुरातात्विक या कलात्मक रुचि का है. इसी तरह, धारा 2 (डी) 'पुरातात्विक स्थल और अवशेष' को किसी ऐसे क्षेत्र के रूप में परिभाषित करती है जिसमें ऐतिहासिक या पुरातात्विक महत्व के खंडहर या अवशेष शामिल हैं या जिन्हें ऐसा माना जाता है और जो कम से कम सौ वर्षों से अस्तित्व में हैं. इन कानूनी प्रावधानों के मद्देनजर, यह स्पष्ट है कि 1991 का अधिनियम प्राचीन स्मारकों और पुरातात्विक स्थलों और अवशेषों के मामले में अदालतों के अधिकार क्षेत्र को पूरी तरह से प्रतिबंधित नहीं करता है.
काफी पुराना है ज्ञानवापी मंदिर का इतिहास
ज्ञानवापी मंदिर के इतिहास का पता लगाने के दौरान, यह पता चलता है कि काशी-विश्वनाथ मंदिर परिसर (Kashi-Vishwanath Temple Complex) चौथी-पांचवीं शताब्दी में बनाया गया था. वर्ष 635 में प्रसिद्ध चीनी तीर्थयात्री ह्वेन त्सांग (Hiuen Tsang) ने अपने लेखन में मंदिर और वाराणसी का वर्णन किया है. मुस्लिम हमले 1190 या उसके आसपास शुरू हुए. इस तिकड़म को सभी जानते हैं कि युद्ध के विजेता पराजित ताकतों की संस्कृति को नष्ट कर देते हैं ताकि वे अपनी अधीनता का लोहा मनवा सकें. मुस्लिम शासकों द्वारा देश भर में हिंदू मंदिरों के विध्वंस करने के लिखित प्रमाण मौजूद हैं और इसके प्रमाण कई जगह मिलते हैं. अपनी शक्ति या प्रभाव को कम करते हुए उन्होंने इन स्थानों पर मस्जिदों का निर्माण किया. ज्ञानवापी मस्जिद के सामने का हिस्सा एक तरफ से अलग-अलग दिखता है, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि इसे एक प्राचीन मंदिर के खंडहरों पर बनाया गया था.
इसलिए पूजा स्थल अधिनियम को दी जा चुकी है चुनौती
कानूनी रूप से कहें तो सभी हिंदू देवी-देवता पर्पेचूअल माइनर (perpetual minors) यानि निरंतर बाल रूप में हैं और उनकी संपत्ति को किसी भी अथॉरिटी द्वारा अधिग्रहित या छीना नहीं जा सकता. इसलिए, हिंदू देवताओं की संपत्ति पर किसी भी तरह कब्जा करना गैर-कानूनी है. दिलचस्प बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में पूजा स्थल अधिनियम, 1991 (Places of Worship Act, 1991) की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली एक जनहित याचिका (PIL) को स्वीकार किया, भले ही उसने 2019 में एम सिद्दीक बनाम महंत सुरेश दास के मामले में इस कानून की वैधता को बरकरार रखा. यह जनहित याचिका 15 अगस्त 1947 की कट-ऑफ तारीख पर सवाल उठाती है. ऊपर कही गई बातों के संदर्भ में यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि 1991 के पूजा स्थल अधिनियम के तहत न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र पर कोई व्यापक रोक नहीं है
Rani Sahu
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