- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- पारिस्थितिकी के पथ...
सम्पादकीय
पारिस्थितिकी के पथ प्रदर्शक : राधाकमल मुखर्जी ने सार्वजनिक संसाधनों का महत्व पहचाना, याद रखनी होंगी चेतावनियां
Rounak Dey
23 Oct 2022 2:44 AM GMT

x
अस्सी साल से भी पहले दी गई इन चेतावनियों को आज याद करने और सुनने की जरूरत है।
वर्ष 1922 में लखनऊ यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर राधाकमल मुखर्जी ने एक किताब प्रकाशित करवाई, जिसका शीर्षक था, प्रिंसिपल्स ऑफ कम्परेटिव इकनॉमिक्स। सौ साल बाद इस किताब को पढ़ते हुए मैं खासा प्रभावित हुआ कि इसमें किस तरह से भारतीय गांवों के सामाजिक और आर्थिक जीवन पर प्राकृतिक पर्यावरण के प्रभाव की ओर ध्यान खींचा गया है। मुखर्जी संभवतः ऐसे पहले भारतीय अध्येता हैं, जिन्होंने खेती के निर्वाह के लिए सार्वजनिक संसाधनों के महत्व को पहचाना।
खेती की जमीन पर जहां व्यक्तिगत और परिवार का स्वामित्व होता है, वहीं वनों और चरागाह की तरह पारंपरिक रूप से नहरों का प्रबंधन गांवों द्वारा किया जाता है। इसीलिए, मुखर्जी ने लिखा, 'जहां निजी स्वामित्व बाकी समुदाय के बरक्स विशेषाधिकार प्रदान कर सकता है, उनके उपयोग को कभी भी विशिष्ट होने की अनुमति नहीं दी गई है।' पूर्व-औपनिवेशक भारतीय गांव में सिंचाई की नहरों का स्वामित्व और उपयोग सामूहिक होता था और यह अत्यंत महत्वपूर्ण था।
मुखर्जी ने लिखा, 'सिंचाई का प्रबंधन पुरुषों को गैर सामाजिक व्यक्तिवाद को छोड़ने के लिए मजबूर करता है, या फिर उन्हें इसके परिणाम भुगतने पड़ते हैं,... यह पुरुषों को अन्य पुरुषों के साथ करीबी आर्थिक संबंध बनाने के लिए भी मजबूर करता है।' इसीलिए, 'भारतीय ग्राम समुदायों में पानी की आपूर्ति से जुड़े छोटे-छोटे सामुदायिक रिश्ते हैं, जो किसानों के परस्पर अधिकारों को रोकते हैं। संपत्ति के निरंकुश उपयोग को रोकने के लिए, भारत ने तालाबों और सिंचाई की नहरों का, जो कि कृषि उत्पादन से जुड़ा महत्वपूर्ण घटक है, एक प्रकार का सामुदायिक स्वामित्व स्थापित करने की व्यवस्था करनी चाही।'
मुखर्जी ने तर्क दिया कि सार्वजनिक संपत्ति के प्रबंधन की इन स्वदेशी प्रणालियों को अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन ने कमजोर किया। सरकारी वन विभाग ने जंगल के क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में ले लिया और व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए उनका इस्तेमाल किया और जब ग्रामीणों ने अपने जीवन यापन के लिए उनका इस्तेमाल करना चाहा, तो इसे अपराध घोषित कर दिया। इसी तरह से तालाब और नहरों को भी सरकारी विभाग के अधीन कर दिया गया और राज्य द्वारा नियुक्त अधिकारियों को उनकी देख-रेख की जिम्मेदारी दे दी गई। मुखर्जी ने लिखा, इस बदलाव ने लोगों द्वारा शुरू की गई पहलों को नुकसान पहुंचाया, मसलन लोक निर्माण, पहले जिनकी देखरेख स्वदेशी मशीनरी द्वारा की जाती थी, लेकिन जिम्मेदारी के अभाव में ये जीर्ण हो गए और उनकी मरम्मत नहीं हो सकी।
राधाकमल मुखर्जी आज काफी हद तक भुला दी गई शख्सियत हैं। फिर भी, उनका लेखन भारत और दुनिया आज पर्यावरण के जिस संकट का सामना कर रहे हैं, उससे मुखातिब है। 1930 में सोशियोलॉजिकल रिव्यू में प्रकाशित इस लेख पर विचार कीजिए, जिसका शीर्षक है, एन इकोलॉजिकल अप्रोच टू सोशियोलॉजी। (समाजशास्त्र पर एक पारिस्थितिक दृष्टिकोण)
इसने तर्क दिया कि पारंपरिक सामाजिक विज्ञान, 'पेड़ों और जानवरों, भूमि और पानी की परवाह किए बिना लगभग पूरी तरह से…मनुष्य पर मनुष्य के प्रभाव पर केंद्रित है। मुखर्जी ने टिप्पणी की, 'इतिहास और अर्थशास्त्र में इन विशुद्ध मानवीय प्रभावों को अनुचित महत्व दिया गया है।' दूसरी ओर, भूगोलवेत्ताओं और पारिस्थितिकीविदों के कार्य 'समाज के संबंध में भौतिक पर्यावरण के महत्व पर और विशेष रूप से व्यवसाय और पारिवारिक जीवन पर इसके प्रभावों पर स्पष्ट रूप से जोर देते हैं।'
इसीलिए, जैसा कि मुखर्जी अपने साथी समाज विज्ञानियों को बताते हैं, 'पौधे और पशु पारिस्थितिकी का एक महत्वपूर्ण खंड उन गड़बड़ियों से संबंधित है, जो मानव और पशु आबादी किसी विशेष समय में एक निश्चित क्षेत्र में गठित विभिन्न पौधों और जानवरों की शृंखला के प्राकृतिक क्रम में लाती हैं।' अपने देश के बारे में मुखर्जी ने लिखा है कि, 'कैसे मवेशियों द्वारा अत्यधिक चराई और रौंदने से खेती वाली जमीन पूरी तरह से नष्ट हो जाती है, और कैसे भारत के नदी-मैदानों में बारहमासी या मौसमी खर-पतवार पैदा हो जाते हैं।'
मनुष्य के पास प्रकृति के क्रम को संशोधित करने और नई आकृति प्रदान करने की अभूतपूर्व क्षमता थी। वन निकासी, खेती, पशु पालन और विदेशी वस्तुओं के आयात के उनके तरीकों ने भारत और अन्य जगहों पर 'प्राथमिक या माध्यमिक अनुक्रमों की एक शृंखला स्थापित की जिसमें पौधों की प्रजातियों और समुदायों की एक पूरी शृंखला शामिल है।' ये गड़बड़ियां, यदि अनियंत्रित हुईं, तो महत्वपूर्ण पौधों और जानवरों की प्रजातियों के गायब होने, मिट्टी की उर्वरता में गिरावट, वनों की कटाई, मरुस्थलीकरण और सूखे की ओर ले जा सकती हैं, जिससे इस क्षेत्र में मानव जीवन के फलने-फूलने की संभावनाएं खतरे में पड़ सकती हैं।
मुखर्जी के इस आलेख में व्यक्त विचार, कि मानव और प्राकृतिक दुनिया की अन्योन्याश्रयता, जीवन के जाल और इसके साथ जान-बूझकर छेड़छाड़ करना कितना खतरनाक हो सकता है, अब पर्यावरण विद्वानों और कार्यकर्ताओं के विमर्श का हिस्सा हैं। लेकिन 1930 में ये बहुमूल्य और पथ प्रदर्शक थे। राधाकमल मुखर्जी संयम और जिम्मेदारी की नैतिकता की वकालत कर रहे थे, जो तेज शहरीकरण और औद्योगीकृत समाज के लोकाचार के विपरीत था, जो इसके विकास और विस्तार के लिए कोई प्राकृतिक बाधा नहीं मानता था।
1934 में राधाकमल मुखर्जी ने इंडियन जर्नल ऑफ इकनॉमिक्स में एक आलेख प्रकाशित करवाया, जिसमें उन्होंने अपने साथी विद्वानों को पारिस्थितिकी के कारण जीवन-यापन में आने वाली बाधाओं को लेकर आगाह किया। उन्होंने तर्क दिया कि प्रकृति के नियमों से छेड़छाड़ के आर्थिक गतिविधियों पर खतरनाक परिणाम हो सकते हैं। इस आलेख का शीर्षक है, द ब्रोकन बैलेंस ऑफ पॉपुलेशन, लैंड ऐंड वाटर। (जनसंख्या, जमीन और जल का बिगड़ता संतुलन) इसने भारत-गंगा के मैदानों में जंगलों और घास के मैदानों के अनाच्छादन पर ध्यान केंद्रित किया, जिसके कारण घाटी के व्यापक क्षेत्रों का निर्माण हुआ, जो खेती या निवास के लिए अनुपयुक्त थीं, और इसने वर्षा को भी कम और साथ ही अधिक अनिश्चित बना दिया। इसके परिणामस्वरूप पानी और चारे की कमी ने मवेशियों पर विशेष रूप से गंभीर रूप से प्रभाव डाला था, जो अब छोटे और कमजोर थे, कम दूध देते थे और खेतों में काम करने के लिए कम इच्छुक थे।
मुखर्जी ने लिखा, 'यह असंभव नहीं है कि कुछ दूरस्थ भविष्य में गंगा घाटी सिंधु घाटी की गति को प्राप्त करे, जहां एक समय खुशहाली थी। सिंधु के पूर्व में रेगिस्तान में फैले विशाल क्षेत्र में प्राचीन नदी तल और रेत से दबे शहरों के निशान कभी उपजाऊ रहे क्षेत्र के क्रमिक उजड़ने की गवाही देते हैं।' आज के शिक्षाविदों के विपरीत, राधाकमल मुखर्जी की विशेषज्ञता का दायरा सीमित नहीं था। वह अनुशासनात्मक बाधाओं में नहीं बंधे और उन्होंने इतिहास और दर्शन के साथ ही अर्थशास्त्र तथा समाजशास्त्र पर व्यापक लेखन किया।
अन्य भारतीय अर्थशास्त्रियों के विपरीत, उनकी प्राकृतिक विज्ञान में भी गहरी रुचि थी, विशेष रूप से पारिस्थितिकी के तत्कालीन उभरते क्षेत्र में। मुखर्जी ने विविध विषयों पर कुल 47 असाधारण किताबें लिखीं। इनमें उनकी पहली किताब द फाउंडेशन ऑफ इंडियन इकनॉमिक्स (1916) से लेकर रीजनल सोशियोलॉजी (1926), द चेंजिंग फेस ऑफ बंगाल (1938), सोशियल इकोलॉजी (1940), द इंडियन वर्किंग क्लास (1945) से लेकर द हिस्ट्री ऑफ इंडियन सिविलाइजेशन (दो खंडों में, 1956) और द फ्लावरिंग ऑफ इंडियन आर्ट (1964) शामिल हैं।
1938 की एक पुस्तक में, मुखर्जी ने टिप्पणी की कि 'अनुप्रयुक्त मानव पारिस्थितिकी किसी स्थायी सभ्यता की एकमात्र गारंटी है।' वह उस दिन का इंतजार कर रहे थे, जब 'पारिस्थितिक समायोजन एक सहज से एक नैतिक स्तर तक उठाया जाएगा।' उन्होंने मानव समुदाय से नए मूल्य स्थापित कर 'पारिस्थितिक शक्तियों की पूरी शृंखला' के साथ एक गठबंधन बनाने का आग्रह किया, ताकि 'त्वरित और (दूर) तक पहुंचने वाली शोषणकारी गतिविधियों पर अंकुश लगाया जा सके- यह भविष्य का विचार है और इस क्षेत्र के अजन्मे बाशिंदों के लिए एक त्याग।' अस्सी साल से भी पहले दी गई इन चेतावनियों को आज याद करने और सुनने की जरूरत है।
सोर्स: अमर उजाला
Next Story