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सम्पादकीय
ऑस्कर वाली ज्यूरी को ये फिक्र खाए जा रही थी कि कहीं अंग्रेज बुरा न मान जाएं
Shiddhant Shriwas
27 Oct 2021 9:39 AM GMT

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हिंदी सिनेमा के इतिहास में सिनेमा ने पहली बार अपने इतिहास को थोड़ा ठहरकर प्यार से छुआ है. पहली बार सलीके से अपनी कहानी सुनाई है. हमें तो अच्छा महसूस करना चाहिए
तो फिल्म 'सरदार उधम' को को पहले ऑस्कर के लिए भेजी जाने वाली फिल्मों की फेहरिस्त में चुना गया और फिर बाहर कर दिया गया. फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया ने पहले तो शूजीत सरकार द्वारा निर्देशित इस साल की सबसे चर्चित फिल्म 'सरदार उधम' को ऑस्कर के लिए भेजी जाने वाली फिल्मों में चुना और फिर यह कहते उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया कि यह फिल्म "अंग्रेजों के खिलाफ हमारी घृणा और नफरत को दिखाती है." फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया की ज्यूरी के सदस्य इंद्रदीप दासगुप्ता ने फिल्म को न चुने जाने की वजह कुछ यूं बताई, "यह फिल्म भारत की आजादी की लड़ाई के एक गुमनाम नायक पर फिल्म बनाने की ईमानदार कोशिश है, लेकिन साथ ही यह फिल्म अंग्रेजों के खिलाफ हमारी घृणा और नफरत को भी दिखाती है. ग्लोबलाइजेशन के इस समय में इतनी नफरत पालना अच्छी बात नहीं है."
अब मैं तो कहने जा रही हूं, वो इस बारे में नहीं है कि ये फिल्म ऑस्कर के लिए क्यों नहीं चुनी गई. ये फिल्म ऑस्कर के लिए क्यों चुनी जानी चाहिए. ज्यूरी की मर्जी है. वो जिस फिल्म को चाहें, चुन सकते हैं, जिसे चाहें, रिजेक्ट कर सकते हैं. यह पहली बार तो नहीं हुआ है कि ऑस्कर के लिए चुनी जाने वाली फिल्म की गुणवत्ता को लेकर खींचतान हुई हो. ऐसा भी नहीं है कि हर बार हमारी सबसे अच्छी फिल्म की ऑस्कर के लिए भेजी गई. सब मुआमलों की तरह यह मुआमला भी कोई राजनीति से मुक्त नहीं है. इसलिए सवाल ये नहीं है कि ज्यूरी ने 'सरदार उधम' को क्यों रिजेक्ट किया. सवाल वो है, जो फिल्म को रिजेक्ट करते हुए ज्यूरी ने कहा. और वो सवाल इतना बड़ा है कि उस पर सिर्फ एक आर्टिकल लिखना काफी नहीं है. यह बात एक लंबे विमर्श, एक गहरे, विवेकपूर्ण डिस्कोर्स की मांग करती है. और इस नजर की भी, जिस नजर से कोई भी देश और समाज अपने इतिहास को देखता और वर्तमान में उसका मूल्यांकन करता है.
पूरी दुनिया का इतिहास और खासतौर पर दुनिया के सारे ताकतवर मुल्कों का इतिहास ऐसे अंधेरे अध्यायों से भरा हुआ है, जिस पर उन्हें गर्व तो कतई नहीं है, लेकिन जिससे नजरें चुराने और जिस पर पर्दा डालने की कोशिश भी अब वो नहीं करते. ये ठीक है कि जलियांवाला बाग हत्याकांड के लिए इंग्लैंड ने आज तक माफी नहीं मांगी, लेकिन ब्रिटेन की महारानी जब हिंदुस्तान आईं तो जलियांवाला बाग गईं. उस विजिट से एक शाम पहले डिनर के समय उन्होंने कहा कि इन दोनों देशों के साझे इतिहास में कुछ बेहद तकलीफदेह पन्ने हैं. आज 101 साल बाद तो कम से कम कोई उस इतिहास पर पर्दा डालने की कोशिश नहीं करता.
फिल्म 'द रिपोर्ट' का एक दृश्य
2019 में एक फिल्म आई थी- द रिपोर्ट. ये फिल्म अमेरिका की सेंट्रल इंटेलीजेंस एजेंसी की कारगुजारियों पर आधारित थी. 9/11 के हमले के बाद अमेरिकी इंटेलीजेंस एजेंसी सीआईए ने एक डिटेंशन और इंटोरेगेशन प्रोग्राम शुरू किया, जिसके तहत सैकड़ों नहीं, बल्कि हजारों की संख्या में बेगुनाहों को पकड़कर सलाखों के पीछे डाला गया, उनसे सच उगलवाने के नाम पर उन्हें भयानक यंत्रणाएं दी गईं. सीआईए ने उन सारे तरीकों का उपयोग किया, जो वहां के कानून में प्रतिबंधित थे. ये सारी चीजें चुपके से की जा रही थीं और इस तरह की कागज पर उसका कोई सबूत न हो. लेकिन काले-कारनामे छिपते कहां हैं.
सीनेट इंटेलीजेंस कमेटी की एक खुफिया रिपोर्ट ने सीआईए का सारा काला चिट्ठा खोलकर रख दिया. बात यहां तक भी उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितनी कि ये उस रिपोर्ट पर 2019 में एक फिल्म बनती है, जो पात्रों, घटनाओं, व्यक्तियों और स्थान का नाम बदले बगैर अमेरिकी इतिहास की इस सारी कारगुजारियों का पर्दाफाश कर देती है. इंटेलीजेंस एजेंसी जिस सच को अपने देश तक से छिपाने की कोशिश कर रही थी, वो सच सिनेमा के रूप में पूरी दुनिया के सामने आ गया.
यही काम है कला का. सच बोलना, सच दिखाना. वो राजनीतिक पार्टियों के राजनीतिक उद्देश्यों से संचालित नहीं हैं. वो इतिहास के किसी भी पन्ने को पलटकर उस समय की हकीकत से मुखातिब होती हैं.
फिल्म 'द पोस्ट' का एक दृश्य
2017 में स्टीवन स्पीलबर्ग की जिस फिल्म द पोस्ट को 6 एकेडमी अवॉर्ड के लिए नामित किया गया, वो फिल्म भी अमेरिकी सरकार का एक ऐसा काला अध्याय आपके सामने रखती है, जिसके बारे में पूरी दुनिया तो क्या, खुद वहां के नागरिकों को कुछ नहीं पता था. अमेरिकी जनता नहीं जानती थी कि वियतनाम में उनके टैक्स का खरबों डॉलर खर्च करके अमेरिकी सरकार एक हारी हुई लड़ाई लड़ रही थी, सिर्फ अपनी झूठी नाक बचाने के लिए.
कहने का आशय सिर्फ ये है कि इतिहास का हर पन्ना सिर्फ गौरव गाथाओं से नहीं भरा होता. जैसे हमारी जिंदगी कभी गर्व तो कभी शर्मिंदगी का सबब हो सकती है, वैसे ही मुल्कों का, दुनिया का, मनुष्यता का इतिहास भी है. जाहिर है, 1947 से पहले इस मुल्क के हर नागरिक को फिरंगियों से नफरत ही रही होगी. अपने ऊपर शासन करने और अपने देश की जनता पर अत्याचार करने वाले शासक से कौन प्यार कर सकता है भला. लेकिन उसका अर्थ ये नहीं कि जो 1947 का सच था, वही 2021 का भी सच है. लेकिन 1919 और 1947 भारतीय और ब्रिटिश इतिहास का एक जरूरी अध्याय है. उस अध्याय को मिटाया नहीं जा सकता, बल्कि उसे मिटाने या धुंधला करने की हर कोशिश को शक ही निगाह से देखा जाना चाहिए.
संसार की कोई शै इतिहास से मुक्त नहीं है. इतिहास हमारी समूची यात्रा का एक पड़ाव है, जिसे न सिर्फ याद रखना चाहिए, बल्कि उसे संजोकर रखना चाहिए. उन कहानियों को, उन स्मृतियों को पीढ़ी दर पीढ़ी सौंपते जाना चाहिए. चाहे वह इतिहास कितना ही दुखदायी क्यों न हो. दुख में बहुत ताकत होती है.
और जहां तक सिनेमा की बात है तो ये दो फिल्मों ने सिनेमा के समंदर की एक छोटी सी बूंद भर हैं. फ्रेंच सिनेमा का इतिहास उठाकर देख लीजिए. उन्होंने कई ऐसी महत्वपूर्ण फिल्में बनाईं, जिसमें अपने ही इतिहास के काले अध्यायों को पूरी ईमानदारी और करुणा के साथ उघाड़कर रख दिया. जर्मनी ने अपने काले, दुखदासी इतिहास को जितना सिनेमा में संजोया है, शायद ही दुनिया के किसी और मुल्क ने किया हो. और उन शर्मनाक कहानियों को सुनाते हुए उन्होंने कुछ भी नहीं छिपाया. न बेईमानियां, न तकलीफ.
अगर हमारी तथाकथित ज्यूरी को लगता है कि इस फिल्म में अंग्रेजों प्रति कुछ ज्यादा ही नफरत दिखाई गई है तो उनका इतिहास बोध और सिनेमाई बोध दोनों ही शून्य है. इतिहास की कहानियां वर्तमान की नजर से नहीं, उस इतिहास की नजर से ही सुनाई जाएंगी. उस शख्स की नजर से ही, जिसने जलियांवाला बाग को देखा हो, जिसने आजादी की लड़ाई में शिरकत की हो, जिसने दांडी यात्रा में हिस्सा लिया हो और अंग्रेजों की लाठी-गोली खाई हो. वो कहानी आज के ग्लोबजाइज्ड युग की भोंथरी इतिहास दृष्टि और धुंधले स्मृति बोध के साथ नहीं सुनाई जा सकतीं.
अगर 'सरदार उधम' फिल्म ऑस्कर के लिए चुनी जाती तो कोई अंग्रेज, कोई अमेरिकी या कोई विदेशी ज्यूरी इसके बारे में ऐसी टिप्पणी कभी नहीं करती कि इसमें अंग्रेजों के खिलाफ कुछ ज्यादा ही नफरत दिखाई गई है. यह हमारी नजर-ए-कमतरी है. यह हमारी शर्म है, हमारा डर है, हमारा हीनता बोध है.
हिंदी सिनेमा के इतिहास में सिनेमा ने पहली बार अपने इतिहास को थोड़ा रुककर, ठहरकर, हाथ पकड़कर, प्यार से छुआ है. पहली बार सलीके से अपनी कहानी सुनाई है. हमें तो अच्छा महसूस करना चाहिए इस बात पर. हमें खुद के लिए थोड़ा प्यार, थोड़ा फख्र, थोड़ी उम्मीद से भर जाना चाहिए. उल्टे हमें ये फिक्र खाए जा रही है कि कहीं अंग्रेज बुरा न मान जाएं.
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