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राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव को भाजपा ने सामाजिक संदेश देने का माध्यम बना दिया
सॉर्स - जागरण
प्रदीप सिंह: राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव को भाजपा ने सामाजिक संदेश देने का माध्यम बना दिया। दोनों पदों पर उसने अपने प्रत्याशियों के जरिये सामान्य रूप से सर्व समाज और विशेष जाति समूह को संदेश दिया। कांग्रेस सहित पूरे विपक्ष को अब तक समझ में नहीं आया कि हुआ क्या? कांग्रेस और अन्य दल इस अवसर का विपक्षी एकता के लिए भी लाभ उठाने में विफल रहे। एकता की बजाय ये चुनाव विपक्ष के बिखराव की कहानी कहते हुए नजर आए। इन दोनों चुनावों से देश की राजनीति में सकारात्मक बदलाव आने वाला है। द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति बनना सामाजिक न्याय के क्षेत्र में बड़ा कदम है। वह एक ऐसी आदिवासी महिला हैं, जो अपनी क्षमता से इस सर्वोच्च पद पर पहुंच रही हैं। उन्होंने अपने समाज के बीच रह कर काम किया है।
किसी व्यक्ति के चरित्र की परीक्षा बड़ा पद के पाने के बाद अपने समाज के लोगों से उसके व्यवहार से होती है। झारखंड का राज्यपाल रहते उन्होंने आदिवासियों के हितों के विरुद्ध अपनी ही सरकार का हाथ रोक दिया था। पद से हटने के बाद मिलने वाली सुविधाओं का लाभ उठाकर सुखमय जीवन यापन करने के बजाय उन्होंने लौटकर अपने लोगों के बीच काम करने को प्राथमिकता दी। प्रधानमंत्री मोदी की कार्यशैली जितनी समझ में आती है, उससे लगता है कि द्रौपदी मुर्मू के इस कदम ने उनके चयन में निर्णायक भूमिका निभाई होगी।
द्रौपदी मुर्मू ने इसक्ति को गलत साबित कर दिया- नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं, प्रभुता पाय जाहि मद नाहीं। राजभवन से निकल कर वह गांव इस तरह पहुंच गईं, जैसे इस बीच कुछ हुआ ही न हो। राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के जरिये प्रधानमंत्री ने देश में काफी समय से चल रही एक साजिश को नाकाम करने की दिशा में बड़ा कदम उठाया है। हिंदू समाज को तोड़ने का एजेंडा नया नहीं है। सैकड़ों साल से इसकी कोशिश हो रही है। अब तो यह हिंदू फोबिया का रूप ले चुका है। इसमें देश के अंदर की ही नहीं, बाहर की भी ताकतें शामिल हैं। इस मामले में दो स्तर काम चल रहा है। जनजातियों के मतांतरण का अभियान ईसाई मिशनरियां आजादी के पहले से चला रही हैं। संप्रग के दस साल के शासन में इसमें तेजी आई। इन मिशनरियों के विदेशी चंदे की कड़ाई से जांच करके मोदी सरकार ने इसे धीमा करने की कोशिश की है।
जैसे-जैसे मतांतरण पर शिकंजा कसता जा रहा है, वैसे-वैसे हिंदू विरोधी दूसरी रणनीति पर काम तेज किया जा रहा है। कोशिश की जा रही है कि जनजातियों को हिंदू समाज से अलग किया जाए। इसके लिए बड़े जोर-शोर से तर्क दिया जा रहा है कि जनजातियों के लोग हिंदू नहीं हैं। वे सरना धर्म के अनुयायी हैं। सरना धर्म को मानने वाले प्रकृति की पूजा करते हैं। सनातन धर्म में प्रृकृति की पूजा एक स्थापित सत्य है, पर उन्हें हिंदू समाज से अलग करने के लिए सरना आदिवासी धर्म कोड लागू करने की मांग हो रही है। कहा जा रहा है कि इस बार की जनगणना में मजहब के कालम में इसका भी उल्लेख हो।
द्रौपदी मुर्मू ने राष्ट्रपति का उम्मीदवार घोषित किए जाने पर सबसे पहले भगवान शंकर के मंदिर में जाकर सफाई की और दर्शन किए। इस स्पष्ट संकेत के बाद भी उनसे उनका धर्म पूछा गया। उन्होंने कहा वह हिंदू हैं। इस पर हिंदू विरोधी इसकी आलोचना करने लगे। ऐसे तत्वों से निपटने के लिए भाजपा ने तय किया है कि 21 जुलाई को राष्ट्रपति पद के चुनाव का परिणाम घोषित होने और 25 जुलाई के शपथ ग्रहण तक देश के एक लाख तीस हजार जनजाति बहुल गांवों में समारोह होंगे। यह लड़ाई आसान नहीं है। इसके लिए जनजातीय समाज के लोगों में जागरूकता का अभियान चलाने की जरूरत है। द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति भवन में होने से इसमें आसानी होगी, क्योंकि अपने समाज में उनकी जो प्रतिष्ठा है, वह उन्होंने अर्जित की है। इसलिए किसी बाहरी की तुलना में अपने लोगों के बीच उनकी विश्वसनीयता बहुत ज्यादा है।
राष्ट्रपति के बाद उपराष्ट्रपति पद के लिए बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ को उम्मीदवार बनाकर भी भाजपा ने एक बड़ी किसान जाति को संदेश दिया है कि उसकी नजर में उनका बहुत महत्व है। चौधरी चरण सिंह और देवी लाल के बाद जगदीप धनखड़ जाट समाज के तीसरे व्यक्ति होंगे, जो इतने बड़े संवैधानिक पद पर पहुंचेगें। धनखड़ के चयन में भी मोदी और उनकी पार्टी ने योग्यता से कोई समझौता नहीं किया। उपराष्ट्रपति पद के लिए उनकी योग्यता पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। बात राजनीतिक सूझबूझ की हो या संविधान और कानून की विशेषज्ञता की, जगदीप धनखड़ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अलावा अपने सभी पूर्वर्तियों से 20 ही बैठेंगे, 19 नहीं।
वास्तव में मोदी के ये फैसले दीर्घकालीन योजना के तहत लिए जा रहे हैं। एक मुद्दे वाली भाजपा को मोदी ने तीन बड़े मुद्दों वाली पार्टी बना दिया है। पहला, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद। दूसरा, सामाजिक न्याय एवं उन्नयन और तीसरा, सुशासन। मुद्दों की यह त्रिवेणी ऐसी है, जिससे अब भाजपा कांग्रेस ही नहीं, क्षेत्रीय दलों से भी निपटने में सक्षम हो गई है। क्षेत्रीय दलों के शिकंजे वाले उत्तर प्रदेश में भाजपा को दो-दो बार दो तिहाई बहुमत मिलना इसका प्रमाण है। भाजपा की यह बहुत बड़ी कमजोरी थी। इसके कारण वह क्षेत्रीय दलों से मुकाबले में मात खा जाती थी। अब उसने इसका भी तोड़ खोज लिया है।
विपक्ष ने राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के लिए जो उम्मीदवार उतारे, उनका केंद्रीय संदेश यही है कि भारत का समूचा विपक्ष वैचारिक जड़ता की गिरफ्त में है। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में हमेशा सत्तारूढ़ दल का ही उम्मीदवार जीतता है। विपक्ष अपना उम्मीदवार वैचारिक पक्ष को देश के सामने रखने और एक सांकेतिक विरोध के लिए करता है, लेकिन आखिर विपक्ष यशवंत सिन्हा को उम्मीदवार बनाकर भाजपा से वैचारिक लड़ाई कैसे लड़ सकता है? भाजपा के रिजेक्टेड नेता के अलावा विपक्ष को पूरे देश में कोई मिला ही नहीं। इतना ही नहीं, इस मुद्दे पर विपक्ष अपनी एकता बनाए रखने में भी विफल रहा। हालत यहां तक पहुंच गई कि उपराष्ट्रपति का उम्मीदवार चुनने के लिए विपक्षी दलों की बैठक में ममता बनर्जी न केवल आईं नहीं, बल्कि शरद पवार का फोन उठाने से भी मना कर दिया। इस चुनावी प्रक्रिया से भाजपा ने संगठन के भौगोलिक और सामाजिक विस्तार का रास्ता प्रशस्त किया। विपक्ष के हाथ में जो था, वह भी रेत की तरह फिसल गया।
Rani Sahu
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