सम्पादकीय

यूक्रेन में जारी सुरक्षा का संकट और इस संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता

Gulabi
25 Feb 2022 2:21 PM GMT
यूक्रेन में जारी सुरक्षा का संकट और इस संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता
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यूक्रेन में जारी सुरक्षा का संकट
प्रमोद भार्गव। रूस और अमेरिका के वर्चस्व की लड़ाई में यूक्रेन दो पाटों के बीच घुन की तरह पिस रहा है। सबसे बड़ी बात है कि जिस संयुक्त राष्ट्र को वैश्विक संकट के दौरान उचित हस्तक्षेप के लिए अस्तित्व में लाया गया था, वह महाशक्तियों के समक्ष बौना दिखाई दे रहा है। इस मायने में उसकी प्रासंगिकता पर सवाल उठना स्वाभाविक है। जबकि रूस की सेना ने यूक्रेन की राजधानी कीव को चारों तरफ से घेर लिया है और हो सकता है कि आज यानी शनिवार तक वह उसे अपने कब्जे में ले भी ले। लाचारी की स्थिति में आ चुके यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदोमीर जेलेंसकी को शुक्रवार की सुबह कहना पड़ा कि यदि 96 घंटे के भीतर मदद नहीं मिली तो आगे वे नहीं लड़ पाएंगे, इसलिए विश्व उनकी मदद करे। लेकिन अमेरिका समेत सभी यूरोपीय देशों ने सीधी सैन्य सहायता देने से मना कर दिया है।
यूक्रेन के राष्ट्रपति की गुहार का असर संयुक्त राष्ट्र पर भी नहीं हो रहा है। किसी प्रकार के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करने में अक्षम संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने यूक्रेन पर हमलों की निंदा तो की है, लेकिन हस्तक्षेप कर शांति के कोई उपाय नहीं कर पाने में निराशा ही जताई है। गुटेरस का कहना है कि दुनिया हाल के वर्षों में वैश्विक शांति और सुरक्षा को लेकर सबसे बड़े संकट का सामना कर रही है। उन्होंने रूस के दखल को यूक्रेन की संप्रभुता और अखंडता के लिए दोषी ठहराया। साथ ही ताजा घटनाक्रम को मिंस्क समझौते के उल्लंघन के लिए बड़ा झटका करार दिया है।
अतएव इन कानूनों को पालन कराने का दायित्व संभालने वाला संयुक्त राष्ट्र क्यों हाथ मलते दिखाई दे रहा है, यह चिंतनीय पहलू है। संयुक्त राष्ट्र को आने वाली पीढिय़ों को उत्तर देना होगा कि जब फैसले लेने का समय था और जिन पर विश्व को दिशा देने का दायित्व था, वे विकसित देश या अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं क्या कर रही थीं? यदि संयुक्त राष्ट्र को खुद को प्रासंगिक बनाए रखना है तो उसे अपना प्रभाव दिखाना होगा और विश्वसनीयता को बढ़ाना होगा। आज संयुक्त राष्ट्र पर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। अफगानिस्तान पर संकट, दुनिया में चल रहे छद्म युद्ध (प्राक्सी वार), वैश्विक आतंकवाद और कोरोना वायरस की उत्पत्ति को लेकर भी संयुक्त राष्ट्र एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आज तक आशंकाएं दूर नहीं की हैं? यदि यह वैश्विक संस्था अपने भीतर समयानुकूल सुधार नहीं लाती है तो कालांतर में महत्वहीन होती चली जाएगी और फिर इसके सदस्य देशों को इसकी जरूरत ही नहीं रह जाएगी। भारत जैसे देश को संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्यता से बाहर रखते हुए इस संस्था ने जता दिया है कि यहां चंद अलोकतांत्रिक या तानाशाह की भूमिका में आ चुके देशों की ही तूती बोलती है। यूक्रेन के सिलसिले में भी यही मानसिकता साफ दिखाई दे रही है।
उल्लेखनीय है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शांतिप्रिय देशों के संगठन के रूप में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का गठन हुआ था। इसका मुख्य उद्देश्य भविष्य की पीढिय़ों को युद्ध की विभीषिका और आतंकवाद से सुरक्षित रखना था। इसके सदस्य देशों में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन को स्थायी सदस्यता प्राप्त है। याद रहे चीन जवाहरलाल नेहरू की अनुकंपा से ही सुरक्षा परिषद का सदस्य बना था। जबकि उस समय अमेरिका ने सुझाया था कि चीन को संयुक्त राष्ट्र में नहीं लिया जाए और भारत को सुरक्षा परिषद की सदस्यता दी जाए। लेकिन अपने उद्देष्य में परिषद को पूर्णत: सफलता नहीं मिली। भारत का दो बार पाकिस्तान और एक बार चीन से युद्ध हो चुका है। इराक और अफगानिस्तान, अमेरिका और रूस के जबरन दखल के चलते युद्ध की ऐसी विभीषिका के ऐसे शिकार हुए कि आज तक उबर नहीं पाए हैं।
तालिबान के सत्ता में आने के बाद अफगानिस्तान में किस बेरहमी से विरोधियों और स्त्रियों को दंडित किया जा रहा है, यह किसी से छिपा नहीं रह गया है? उत्तर कोरिया और पाकिस्तान बेखौफ परमाणु युद्ध की धमकी देते रहते हैं। दुनिया में फैल चुके इस्लामिक आतंकवाद पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। साम्राज्यवादी नीतियों के क्रियान्वयन में लगा चीन किसी वैश्विक पंचायत के आदेश को नहीं मानता है। इसका उदाहरण मसूद अजहर जैसे खूंखार आतंकियों को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने पर चीन का बार-बार वीटो का इस्तेमाल करना है। जबकि भारत विश्व में शांति स्थापित करने के अभियानों में मुख्य भूमिका निर्वाह करता रहा है।
वर्ष 1945 में परिषद के अस्तित्व में आने से लेकर अब तक दुनिया बड़े परिवर्तनों की वाहक बन चुकी है। इसीलिए भारत लंबे समय से परिषद के पुनर्गठन का प्रश्न उसकी बैठकों में उठाता रहा है। कालांतर में इसका प्रभाव यह पड़ा कि संयुक्त राष्ट्र के अन्य सदस्य देश भी इस प्रश्न की कड़ी के साझेदार बनते चले गए। परिषद के स्थायी व वीटोधारी देशों में अमेरिका, रूस और ब्रिटेन भी अपना मौखिक समर्थन इस प्रश्न के पक्ष में देते रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से दो-तिहाई से भी अधिक देशों ने सुधार और विस्तार के लिखित प्रस्ताव को मंजूरी 2015 में दे दी है। इस मंजूरी के चलते अब यह प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र के एजेंडे का महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है।
संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में विश्व स्वास्थ्य संगठन, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, यूनिसेफ और शांति सेना जैसे संगठन काम करते हैं। लेकिन चंद देशों की ताकत के आगे ये संगठन नतमस्तक होते दिखाई देते हैं। इसीलिए शांति सेना की विश्व में बढ़ते सैनिक संघर्षों के बीच निर्णायक भूमिका दिखाई नहीं दे रही है। फिर भी संयुक्त राष्ट्र के शांति रक्षा अभियानों में शांतिरक्षक बलों ने नागरिकों की रक्षा के लिए प्राण न्यौछावर किए हैं। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय जरूर युद्ध में अत्याचारों से जुड़े कई दशकों पुराने वैश्विक विवादों में न्याय देता दिख जाता है। परंतु विश्व में आर्थिक और सामाजिक उद्देश्य से बनाए गए तमाम वैश्विक संगठन भी आज लाचार दिख रहे हैं। काबुल पर तालिबानी कब्जे के बाद से अफगानिस्तान में शरणर्थियों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। यही हालात कल यूक्रेन में पैदा हो सकते हैं। इस बारे में पूरी दुनिया को विचार करना चाहिए।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )
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