सम्पादकीय

पुराने शीत युद्ध का नया ताप

Rani Sahu
28 Feb 2022 9:50 AM GMT
पुराने शीत युद्ध का नया ताप
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जिनकी उम्मीद बांधी गई थी, वे अच्छे दिन तो खैर कभी नहीं आए, लेकिन यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद से शीत युद्ध के पुराने बुरे दिन लौटने की चिंता पूरी दुनिया को सताने लग पड़ी है

हरजिंदर,

जिनकी उम्मीद बांधी गई थी, वे अच्छे दिन तो खैर कभी नहीं आए, लेकिन यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद से शीत युद्ध के पुराने बुरे दिन लौटने की चिंता पूरी दुनिया को सताने लग पड़ी है। जिस तनाव को पूरी दुनिया ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लगभग आधी सदी तक झेला था, उसके कदमों की आहट अब फिर सुनाई देने लगी है। 1992 में जब सोवियत संघ के विखंडन के साथ ही शीतयुद्ध खत्म हुआ था, तो ढेर सारी उम्मीदें बांधी गई थीं। कहा गया था कि दुनिया अब एक ध्रुवीय हो जाएगी, तो इसके कई मसले अपने-आप सुलझने लगेंगे। प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री फ्रांसिस फुकूयामा तो यहां तक कह बैठे थे कि इतिहास के अंत की शुरुआत हो चुकी है। वे मान रहे थे कि दुनिया का राजनीतिक विकास अपनी अंतिम परणति की ओर बढ़ रहा है, लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। पुराने दुखों से मुक्त हुई दुनिया ने अपने लिए नए गम तलाश लिए। ठीक इसी समय एक अन्य राजनीतिशास्त्री और फुकूयामा के गुरु सैमुअल पी हटिंग्टन ने सभ्यताओं के टकराव का सिद्धांत दिया। बाद के एक दो दशक के घटनाक्रमों का दौर हमने सभ्यताओं के टकराव को सूंघते हुए बिता दिया।
पिछले कुछ समय से ये दोनों ही सिद्धांत ठंडे बस्ते में जा चुके हैं और शीत युद्ध की वापसी के चर्चे शुरू हो गए हैं। हालांकि, अभी तक यही कहा जा रहा था कि इस बार कोई सोवियत संघ नहीं है, इसलिए शीत युद्ध अमेरिका और चीन के बीच चलेगा। चीन का तो पता नहीं, लेकिन अमेरिका ने इसे काफी गंभीरता से लिया था और भारत को जोड़कर क्वाड जैसे जो संगठन बनाए, उन्हें शीत युद्ध की बयार ही माना गया। लेकिन अब जब समीकरण अचानक बदले हैं, तो लग रहा है कि नया शीत युद्ध भी वहीं खड़ा है, जहां पिछला चिर निद्रा में चला गया था। वही अमेरिका है, वही रूस है और वही नार्द अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन यानी नाटो है। यह भी कहा जा रहा है कि शीत युद्ध खत्म ही कहां हुआ था। वह बस एक नरम दौर में चला गया था और गरम वापस आ गया। रूस और यूक्रेन का युद्ध हो सकता है, कल को खत्म भी हो जाए, लेकिन दुनिया के चेहरे पर जो ताजा तनाव उभरे हैं, उनकी छाप जल्दी नहीं छूटने वाली। उसके बाद जो बच जाएगा, वह शीत युद्ध ही होगा।
रूस की यूक्रेन से पुरानी अदावत है। जार और उसके बाद सोवियत दौर की वह ग्रंथि है, जो कई इलाकों को अपने अधीन देखना चाहती है। पुतिन के बारे में कहा भी जाता है कि उन्होंने अपने आप को किसी सम्राट की तरह देखना शुरू कर दिया है। पिछले सप्ताह उन्होंने जो भाषण दिया था, उसमें वह उस इतिहास का जिक्र बार-बार करते रहे। फिर रूस का एक डर यह भी है कि यूक्रेन की वजह से नाटो उसके दरवाजे तक पहंुच सकता है। लेकिन अमेरिका की दिक्कत उससे कहीं बड़ी है। वह जिस विश्व व्यवस्था को बनाने के लिए पिछले काफी समय से हाथ-पांव मार रहा है, उसके सिरे लगातार उलझ रहे हैं। अफगानिस्तान से निकलने के बाद अब उसके पास न तो ऐसा कोई मुद्दा है और न ही कोई ऐसा मंच, जहां खड़े होकर वह अपनी मुनादी पीट सके। रूस से होने वाला एक नया शीत युद्ध उसकी विदेश नीति को वह मकसद दे सकता है, जिसे वह पिछले काफी समय से चीन में ढूंढ़ने की कोशिश कर रहा है।
लेकिन क्या यह शीत युद्ध वैसा ही होगा, जैसा कि पिछला था? शीत युद्ध की शुरुआत हम 1947 से मानते हैं, जब अमेरिकी राष्ट्रपति हेनरी एस ट्रूमैन ने यह सिद्धांत दिया कि अमेरिका अपने मित्रों के साथ सोवियत विस्तारवाद को रोकने की हर तरह से कोशिश करेगा। दुनिया भर में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को बढ़ावा देने के आदर्श के साथ गढ़े गए इस सिद्धांत को ट्रूमैन डॉक्टरिन कहा गया। यह बात अलग है कि सोवियत संघ का विरोध करने के लिए अमेरिका ने लोकतंत्रों से ज्यादा तानाशाहियों को समर्थन दिया। सोवियत संघ का मुकाबला करने के लिए भारत का लोकतंत्र उसे कभी उतना मुफीद नहीं लगा, जितनी पाकिस्तान की फौजी सरकारें। इसी ट्रूमैन डॉक्टरिन के दो साल बाद नाटो का गठन हुआ, जो सोवियत संघ का मुकाबला करने के लिए बना एक फौजी गठजोड़ था। दिलचस्प बात यह है कि सोवियत संघ के विस्तारवाद का मुकाबला करने के लिए बनी यह सैनिक व्यवस्था उसके विखंडन के बाद भी बरकरार रही, जिसे अब उसकी पुरानी भूमिका वापस मिलती नजर आ रही है।
बावजूद इसके कई कारण हैं, जिनसे 21वीं सदी का नया शीत युद्ध 20वीं सदी वाले पुराने शीत युद्ध से बहुत अलग होने वाला है। उस शीत युद्ध में एक दूसरे के खिलाफ खड़ी दो अलग विचारधाराएं थीं। एक दूसरे के खिलाफ खड़ी दो राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थाएं थीं। एक तरफ, सोवियत संघ का साम्यवाद था, जो यह मानता था कि उसने दुनिया की गति के परम सत्य को पकड़ लिया है और बस कुछ समय, कुछ कदमों की बात है, फिर पूरी दुनिया उसकी मुट्ठी में होगी। दूसरी तरफ, अमेरिका था, जो यह मानता था कि खुला समाज और लोकतंत्र ही पूरी दुनिया की अंतिम नियति है। इसी के बल पर वह पूरी दुनिया का कल्याण करेगा। सोवियत संघ अगर साम्यवादी व्यवस्था में दुनिया का भविष्य देख रहा है, तो अमेरिका को लगता था कि दुनिया की खुशहाली पूंजीवाद से ही संभव है। लेकिन शीत युद्ध के 45 साल बीतते-बीतते सोवियत साम्यवाद हांफने लगा और अंत में गिरकर ढेर हो गया। उसके बाद पूरी दुनिया ने ही बहुत तेजी से पूंजीवाद को गले लगा लिया। यहां तक कि अपने आप को साम्यवादी कहने वाले चीन ने भी पूंजीवाद को दिल में बसा लिया।
यानी 21वीं सदी में अब हम जहां खड़े हैं, वहां परस्पर रंजिश पालने वाली वे विचारधाराएं नहीं हैं, जो लंबे समय तक शीत युद्ध को ऊर्जा देती रही थीं। बात सिर्फ साम्यवाद के विदा होने की ही नहीं है, अमेरिका भी लोकतंत्र के प्रति निष्ठा की बात करता नजर नहीं आता। वह उदारवाद भी अब हवा होता जा रहा है, जो लोकतंत्र के गायन का सरगम बनता था। हमें नहीं पता कि अगर विचारधाराओं की रंजिश नहीं रही, तो नया शीत युद्ध कैसा होगा? ठीक यहीं पर कार्ल मार्क्स की याद आती है। मार्क्स ने कहा था, इतिहास में घटनाएं दो बार घटित होती हैं, पहली बार त्रासदी की तरह, दूसरी बार विद्रूप की तरह।
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