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उत्तर भारत में दीपावली के आसपास वायु प्रदूषण के खतरनाक स्तर पर पहुंचने का सिलसिला पिछले लगभग दो दशकों से चला आ रहा है
संजय गुप्त : उत्तर भारत में दीपावली के आसपास वायु प्रदूषण के खतरनाक स्तर पर पहुंचने का सिलसिला पिछले लगभग दो दशकों से चला आ रहा है। चूंकि पहले प्रदूषण के घातक असर को लेकर कोई गहन अध्ययन नहीं हुआ था, लिहाजा उस पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता था। दिल्ली में प्रदूषण पर पहला वार तब हुआ, जब उच्चतम न्यायालय ने यहां चलने वाली बसों को सीएनजी युक्त करने के साथ स्थानीय उद्योगों को बाहर ले जाने के आदेश दिए। इसके बाद प्रदूषण की गंभीरता से चिंता करनी छोड़ सी दी गई। नतीजा यह हुआ कि पंजाब और हरियाणा में पराली जलना जारी रहा। अब तो अन्य राज्यों में भी ऐसा होने लगा है। चूंकि सर्दियों में हवा कम चलती है अत: घातक धुआं और धूल नमी के कारण नीचे रह जाती है। इससे प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है। यह भी ध्यान रहे कि पराली के धुएं को छोड़कर प्रदूषण के बाकी कारक पूरे साल हमेशा एक जैसे ही बने रहते हैं।
प्रदूषण नियंत्रित करने की बातें पिछले एक दशक से चल रही हैं, लेकिन उस पर कोई प्रभावी लगाम नहीं लग सकी है। दिल्ली-एनसीआर सहित उत्तर भारत में सर्दियों में सेहत के लिहाज से प्रदूषण घातक स्तर पर बना ही रहता है। अब तो उत्तर भारत के लगभग सभी बड़े शहरों में वायु गुणवत्ता सूचकांक 300 के आसपास ही रहता है। बड़े शहरों में प्रदूषण की मार इसलिए अधिक होती है, क्योंकि उनमें वाहनों का धुआं और सड़कों एवं निर्माण स्थलों से उड़ने वाली धूल कहीं अधिक होती है। सर्दियों में जब इस धुएं और धूल में पराली का धुआं मिल जाता है, तब प्रदूषण खतरनाक रूप ले लेता है। पंजाब, हरियाणा समेत उत्तर भारत के अधिकांश किसान अभी भी पराली जलाने से तौबा करने को तैयार नहीं। उनका कहना है कि उनके पास और कोई विकल्प नहीं। सरकारों को चाहिए कि जल्द ऐसे उपाय करें, जिससे किसानों को पराली न जलानी पड़े। सरकारों को इसकी भी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि हरियाणा और पंजाब में धान की खेती भूजल स्तर को नीचे ले जाने का काम कर रही है। यह भी पर्यावरण के लिए घातक है।
हमारे सारे बड़े शहर आबादी के बोझ तले दबते जा रहे हैं। आबादी का घनत्व बढ़ने के साथ शहरों में दोपहिया और चार पहिया वाहन लगातार बढ़ रहे हैं। जैसे-जैसे विकास और गति पकड़ेगा, गाड़ियों की संख्या भी बढ़ेगी। दिल्ली-एनसीआर सहित अन्य बड़े शहरों में सड़कों का संजाल बहुत ही बेतरतीब है। अधिकांश सड़कों पर अतिक्रमण का बोलबाला रहता है। नगर निकायों और राज्य सरकारों के तमाम जतन के बाद भी वह दूर होने का नाम नहीं लेता। अतिक्रमण के कारण यातायात बहुत धीरे चलता है और जब गाड़ियां धीरे चलती हैं तो वे छह से आठ गुना अधिक धुआं फेंकती हैं।
उच्चतम न्यायालय सर्दियों में दिल्ली-एनसीआर के प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए तमाम तरह की रोक लगा देता है और दिल्ली सरकार भी आड-इवेन व्यवस्था लागू करने पर विचार करने लगती है, लेकिन कोई इस पर गंभीरता से विचार नहीं करता कि सड़कों से अतिक्रमण क्यों नहीं हट पाता?
हमारे यहां आधारभूत ढांचे का निर्माण रुकने वाला नहीं है। विकास के साथ-साथ यह और तेजी पकड़ेगा, पर हम निर्माण की जो पद्धति फिलहाल अपना रहे हैं, वह दशकों पुरानी है। इस पद्धति में धूल बहुत उड़ती है और समय भी अधिक लगता है। सरकारों को चाहिए कि चाहे निर्माण लागत अधिक आए, पर उसमें आधुनिक तकनीक का प्रयोग कर धूल को नियंत्रित किया जाए। इसके लिए जरूरत पड़े तो मेट्रो के निर्माण में इस्तेमाल होने वाले प्रीकास्ट सीमेंट का उपयोग किया जाए। चाहे सरकारी आधारभूत ढांचा हो या निजी घर, सब पर यह लगाम कसी जाए कि ऐसे आधुनिक तरीकों से ही निर्माण हो, जो पर्यावरण के अनुकूल हो। साफ है कि जो ठेकेदार आधारभूत ढांचे का निर्माण कराते हैं, उनके ऊपर भी नकेल कसनी होगी, ताकि न तो निर्माण स्थलों से धूल उड़े और न ही उनके आसपास यातायात बाधित हो। इसके लिए साल भर सतर्क रहना होगा, केवल सर्दियों में ही नहीं। प्रदूषण का स्तर और दायरा लगातार बढ़ रहा है। हर व्यक्ति प्रदूषण को कम करने की बात तो करता है, पर वह अपने स्तर पर कुछ नहीं करना चाहता। अगर प्रदूषण को नियंत्रित करना है तो हमें पूरे साल उन उपायों को अपनाना होगा, जो प्रदूषण रोधी माने जाते हैं। महज सर्दियों में स्कूल बंद करने या फिर आधारभूत ढांचे के निर्माण रोकने से कुछ होने वाला नहीं है।
भारत के अधिकांश शहरों का विस्तार ग्रामीण क्षेत्रों को अधिकृत करके हुआ है। ग्रामीण क्षेत्रों की अधिकृत जमीन पर तो फिर भी नियोजित विकास हो जाता है, लेकिन शहर के बीच बसे गांवों में अनियोजित विकास होता रहता है। दिल्ली-एनसीआर में तमाम गांव शहरों के बीच बसे हुए हैं। इन गांवों में गोदाम से लेकर कारखाने तक बने हुए हैं, लेकिन कहीं भी और यहां तक कि रिहायशी इलाकों में भी प्रदूषण कम करने के ठोस उपाय नहीं किए जाते। मुश्किल यह है कि राज्य सरकारें और उनकी एजेंसियों में इसके लिए कोई इच्छाशक्ति नहीं दिखती कि शहरों के बीच बसे गांवों के विकास को नियोजित किया जाए। केंद्र सरकार ने जो स्मार्टसिटी योजना शुरू की, उसमें इन ग्रामीण क्षेत्रों को नियोजित करने के लिए कोई ठोस विचार नहीं। स्मार्टसिटी योजना शहरों के आधारभूत ढांचे को सुदृढ़ करने में भी नाकाम है।
दिल्ली देश की राजधानी है। यहां अधिकांश नीति-नियंता रहते हैं। उन्हें यह पता होना चाहिए कि दिल्ली के आधारभूत ढांचे से देश की अंतरराष्ट्रीय छवि बनती और बिगड़ती है। दिल्ली का विकास अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से होना चाहिए। यदि ऐसा किया जा सके तो अन्य शहरों को इन्हीं मानकों को अपनाने के लिए आसानी से प्रेरित किया जा सकता है। यह ठीक है कि उच्चतम न्यायालय दिल्ली-एनसीआर के प्रदूषण को दूर करने के लिए कई कदम उठा रहा है, लेकिन उसे उत्तर भारत के अन्य शहरों के प्रदूषण की भी चिंता करनी होगी। वास्तव में प्रदूषण की समस्या का सही तरह समाधान तब होगा, जब पर्यावरण के अनुकूल जीवनशैली विकसित करने पर जोर दिया जाएगा। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो पर्यावरण को दूषित करने वाले कारक रह-रहकर सिर उठाते ही रहेंगे।
[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]
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