सम्पादकीय

रचना प्रक्रिया का स्वरूप

Gulabi
5 Dec 2021 4:14 AM GMT
रचना प्रक्रिया का स्वरूप
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कुछ नाम यदि छूटे हों तो अन्यथा न लें। यह एक प्रयास है, जो पूर्ण व अंतिम कदापि नहीं है
डा. ओम अवस्थी
मो.-7018028097
कविता एक सांस्कृतिक व सामाजिक प्रक्रिया है। इस अर्थ में कि कवि जाने-अनजाने, अपने हृदय में संचित, स्थिति, स्थान और समय की क्रिया-प्रतिक्रिया स्वरूप प्राप्त भाव-संवेदनाओं के साथ-साथ जीवन मूल्य भी प्रकट कर रहा होता है। और इस अर्थ में भी कि प्रतिभा व परंपरा के बोध से परिष्कृत भावों को अपनी सोच के धरातल से ऊपर उठाते हुए सर्वसामान्य की ज़मीन पर स्थापित कर रहा होता है। पाठक को अधिक मानवीय बनाते हुए और एक बेहतर समाज की अवधारणा देते हुए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए रचनात्मकता का विश्लेषण और मूल्यांकन जरूरी है। यथार्थ के समग्र रूपों का आकलन आधारभूत प्राथमिकता है। यदि यह आधार खिसक गया तो कवि कर्म पर प्रश्न उठेंगे।…हिमाचल प्रदेश में कविता व ग़ज़ल की सार्थक तथा प्रभावी परंपरा रही है। उसी को प्रत्यक्ष-परोक्ष, हर दृष्टि और हर कोण से खंगालने की चेष्टा यह संवाद है।… कुछ विचार बिंदुओं पर सम्मानित कवियों व समालोचकों की ज़िरह, कुम्हार का चाक/छीलते काटते/जो घड़ दे एक आकार। 'हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में' शीर्षक के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण विचार आप पढ़ेंगे। जिन साहित्यकारों ने आग्रह का मान रखा, उनके प्रति आभार। रचनाकारों के रचना-संग्रहों की अनुपलब्धता हमारी सीमा हो सकती है। कुछ नाम यदि छूटे हों तो अन्यथा न लें। यह एक प्रयास है, जो पूर्ण व अंतिम कदापि नहीं है।
– अतिथि संपादक
रचना करना एक प्रक्रिया है। प्रक्रिया या प्रोसेस शब्द ही सर्वसामान्यतः सूचक है। इसमें कुछ करने की बजाय एक तरह के सार्वभौमिक 'हो जाने' का अर्थ अधिक मुखर है, जो प्राकृतिक घटना विधान का सूचक है। यद्यपि रचना प्रक्रिया ऐसा विषय है जिसकी व्याख्या सरल नहीं है। विज्ञान के समस्त दावों के बावजूद जब शारीरिक समस्याओं को पूरी तरह सुलझाया नहीं जा सका तो रचना प्रक्रिया जैसी संश्लिष्ट क्रिया के विषय के बारे में निर्णायक स्वर में कुछ कह पाना सचमुच कठिन है। परंतु यह भी सत्य है कि समीक्षा कार्य करते समय कृतियों की जिन वास्तविकताओं से हमारा साक्षात्कार होता है, उनका संबंध किसी न किसी रूप में उनकी रचना प्रक्रिया के किन्हीं बिंदुओं से अवश्य जुड़ता है। इन बिंदुओं के सम्यक रेखांकन की अपेक्षा ही हमें इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए मजबूर करती है कि आखिर रचनाएं कैसे बनती हैं? वे कौनसे बुनियादी कार्यभार अथवा सामाजिक एवं कलात्मक सरोकार हैं, जिनसे प्रेरित होकर रचना धर्मिता एक वांछनीय दिशा ग्रहण करती है। एक अभीष्ट परिणति तक पहुंचती है। और जिनकी अनुपस्थिति या अस्पष्टता के कारण रचना धर्मिता दिशाहीनता के जंगल में भटकती और भटकाती है।
रचनात्मक मौलिकता के पीछे कुछ विचारक कुछ समानता सूचक नियमों को प्रकार्यशील मानते हैं, तो कुछ साहित्यकार रचना प्रक्रिया में केवल असमानता के तत्वों को महत्व देते हैं। रचनात्मक मौलिकता को पूर्णतया वैयक्तिक मानते हैं। इस विचार के मानने वाले हर रचना को स्वायत्त इकाई मानकर चलते हैं। वे न तो कृति के सामाजिक परिवेश और कृतिकार की स्थितिबद्धता की पड़ताल करना चाहते हैं और न ही उनकी वर्ग चेतना और वर्गीय सीमाओं के अतिक्रमण को विकासात्मक महत्व देते हैं।
वे कृतियों या कृतिकारों की परस्पर निर्भरता के प्रश्न से नहीं जूझते। साहित्यिक आंदोलनों का प्रारूपात्मक अध्ययन पसंद नहीं करते। जानना नहीं चाहते कि आधुनिकतावाद की झोंक में लेखन प्रक्रिया किस वैचारिक जमीन पर खड़ी है। वे अनुभूति की तथाकथित विशुद्धता से हटकर लेखकीय पक्षधरता को रचनात्मक संकल्प का अपरिहार्य विवेक नहीं स्वीकारते। जाहिर है कि ऐसे लेखक रचना प्रक्रियाएं भी उतनी ही असंख्य मानते हैं जितनी कि कृतियों की संख्या होती है। एक प्राकल्पना है कि रचनाकारों के स्वभाव, संस्कार, मूल तात्विक संदर्भ या चरण होते हैं, जिनसे गुजर कर हर रचना अपना आकार ग्रहण करती है। उनके अभिज्ञान के बिना रचनात्मक संतुलन व श्रेष्ठता को सम्यक प्रकार से उद्घाटित करना यदि असंभव नहीं है, तो अप्रासंगिक अवश्य हो जाता है। … सामान्यतः रचना प्रक्रिया की मुख्यतः दो अवस्थाएं हैं। एक, भावन की संकुल मानसी अवस्था, जिसमें अनुभूति, विभिन्न प्रभाव ग्रहण, प्रतिक्रियात्मक घात-प्रतिघात, कल्पना, बुद्धि और निर्वैयक्तिक कामना का अदृश्य विनियोग रहता है। और दूसरी रूपाकारबद्ध अवस्था, जिसमें अभिव्यक्ति के माध्यम और विधागत वैशिष्ट्य के अनुसार रचनाओं का मूर्त भौतिक रूप उजागर होता है। हालांकि ये दोनों सर्जन व्यापार ही की अवस्थाएं हैं। परंतु कुछ विद्वान पहली को भावन और दूसरी को सर्जन कहना अधिक पसंद करते हैं। … रचनाकार अपनी बहुकारकीय व्यक्तित्व संरचना द्वारा जो जीवन से अनुभवों की शक्ल में ग्रहण करता है, उसी को कलात्मक नैपुण्य द्वारा रचना में रूपांतरित करता है। 'रचना प्रक्रिया में स्वीकृत विषय का पूर्ण अनुभव और ज्ञान आवश्यक है। रचना के समय में तल्लीनता अपेक्षित है।…साधारणीकरण तो हर हाल में चाहिए ही।' (श्रीरंजन सूरीदेव)। यहां यह जोड़ देना आवश्यक है कि ये विशेषताएं परिवेशगत समझ और उस आधुनिक बोध से संभव हैं जो रचनाकार के स्व को विस्तृत सरोकारों से जोड़ता है। रचनाकार अपने रचना कर्म को विशुद्ध अवचेतन के हवाले न छोड़कर उसके प्रति जागरूक रहते हैं और यह जागरूकता उनके लिए उपकारक है। … रचना प्रक्रिया की मनोविज्ञान सम्मत अवस्थाएं भी निरूपित हुई हैं।
सर्जनात्मक कृतियां किसी सृजनशील प्रक्रिया की परिणतियां होती हैं, जो मूलतः समस्या स्थापन से समस्या समाधान की ओर जाती हैं। मानसिक यात्रा को उद्घाटित करने हेतु कई मनोवैज्ञानिक पद्धतियां अपनाई गई हैं। एक पद्धति सर्वेक्षणात्मक है, जिसमें आत्मकथ्यात्मक सामग्री के संकलन को मनोविज्ञान की नजर से परखते हैं। दूसरी पद्धति कारकीय विश्लेषण की है, जिसमें रचना प्रक्रिया को संज्ञानात्मक तथा अभिप्रेरणात्मक उप क्रियाओं का संश्लिष्ट रूप समझ कर, प्रत्यक्षण, स्मरण, विचारण, कल्पन और निर्णयन आदि की विशेषताओं पर बल दिया जाता है।… तीसरी पद्धति व्यक्ति विश्लेषणात्मक है, जिसमें किसी को प्रदत्त परिस्थितियों में सृजन कार्य के लिए कहा जाता है। विभिन्न पद्धतियां हैं जो अर्थवत्ता की दृष्टि से परस्पर संबद्ध हैं। रचना प्रक्रिया की साहित्यिक कला सम्मत अवस्थाएं हैं, परंतु इनमें मनोविज्ञान के समीपतर होने का आग्रह प्रबल है। विवेचन मनोविज्ञान की शब्दावली में ही हुआ है।…भारतीय काव्य शास्त्र में सर्जक चित्त की पहचान के जरिए रचना कर्म का निरूपण किया गया है कि नहीं, यह एक विवादस्पद विषय है। व्याख्याकारों का मत है कि काव्य शास्त्रीय रस चिंतक मनीषा कवि के सृजन व्यापार को उद्घाटित करने में समर्थ है। वे यह भी मानते हैं कि भारतीय काव्य शास्त्र में सृजन संबंधी वे सभी बुनियादी निष्कृतियां विद्यमान हैं जो भावी सृजन का पथ भी आलोकित कर सकती हैं। ये निष्पत्तियां एक सूत्र या दो-चार पंक्तियों के भाष्य में उजागर की गई हैं। ध्वनिवादियों का काव्य विवेचन वस्तुतः सृजन विवेचन ही है।
-(शेष भाग निचले कॉलम में)
विमर्श के बिंदु : हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में -13
अतिथि संपादक :
चंद्ररेखा ढडवाल
मो. : 9418111108
कविता के बीच हिमाचली संवेदना
क्या सोशल मीडिया ने कवि को अनुभवहीन साबित किया
भूमंडलीकरण से कहीं दूर पर्वत की ढलान पर कविता
हिमाचली कविता में स्त्री
कविता का उपभोग ज्यादा, साधना कम
हिमाचल की कविता और कवि का राज्याश्रित होना
कवि धैर्य का सोशल मीडिया द्वारा खंडित होना
कवि के हिस्से का तूफान, कितना बाकी है
हिमाचली कवयित्रियों का काल तथा स्त्री विमर्श
प्रदेश में समकालीन सृजन की विधा में कविता
कवि हृदय का हकीकत से संघर्ष
अनुभव तथा ख्याति के बीच कविता का संसर्ग
हिमाचली पाठ्यक्रम के कवि और कविता
हिमाचली कविता का सांगोपांग वर्णन
प्रदेश के साहित्यिक उत्थान में कविता संबोधन
हिमाचली साहित्य में भाषाई प्रयोग (काव्य भाषा के प्रयोग)
गीत कविताओं में बहती पर्वतीय आजादी
रचना प्रक्रिया का अवस्था निर्धारण
-(ऊपरी कॉलम का शेष भाग)
भारतीय काव्य शास्त्र, सौंदर्य शास्त्र व पाश्चात्य विचारकों ने रचना प्रक्रिया की अवस्थाओं को निरूपित किया है। गुणशीलता हमेशा वैयक्तिक और विशिष्ट होती है। लेकिन इस बात से रचना प्रक्रिया को निर्धारित करने वाले वस्तुनिष्ठ गुण खारिज नहीं हो जाते, बल्कि इसमें उनकी पूर्वमान्यता निहित रहती है। सर्जन व्यापार का आरंभ पूर्व अवस्था से होता है, जिसे आंतरिक प्रेरणा कहा जाता है। जिसे प्रेरणा की पृष्ठभूमि अथवा विवेक सम्मत संज्ञान की अवस्था कहा जाता है। इसमें एक ओर कलाकार की प्राकृतिक क्षमता है, जिसे प्रशिक्षा द्वारा अर्जित नहीं किया जा सकता। तो दूसरी ओर अध्ययन और अभ्यास द्वारा विकसित गुणों का योग रहता है। अतः यह अवस्था स्वयं प्रकाश्य ज्ञान प्रधान होते हुए भी यथार्थ के सीधे प्रत्यक्षण से शून्य कभी नहीं होती है। दोनों का संबंध जीवन सत्य की प्रारंभिक जानकारी प्राप्त करने से है। स्वयं प्रकाश्य ज्ञान, सत्य की प्रतीति की प्रक्रिया में बहुत से मध्यस्थ चरणों को लांघ जाने की मानसिक योग्यता है। रचना प्रक्रिया का दूसरा चरण प्रेरणा काल है। इस अवस्था में कलाकार की मानसिक और भौतिक शक्तियां अधिकतम हो उठती हैं। वह संकल्प निरपेक्ष होकर कार्यरत रहता है। इन सुखद क्षणों में वह स्वयं को बाहरी जगत से लगभग पूरी तरह काट लेता है। और अपने रचना कर्म में संकेंद्रित रहता है।
इस दौरान बहुत सी संवेदनाएं, संदर्शनाएं और विभ्रांतियां उसमें उपजती हैं। क्योंकि भावनात्मक दबाव की वजह से वह ज्यादा देर तक प्रयोजनहीनता की स्थिति में नहीं रह सकता, इसलिए वह रचना प्रक्रिया की तीसरी अवस्था में पहुंचता है। इस चरण पर योजना का उद्गमन कार्यान्वयन होता है। इसमें उसकी संकल्प शक्ति और प्रयोजनशीलता की भी उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि स्वयं प्रकाश्य ज्ञान की। जहां कला कर्म को अथ से इति तक पहुंचाने के लिए समय सारणियां नहीं बनाई जातीं, वहां उसके आत्मानुशासन के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं होता। योजनाबद्धता, परिश्रमशीलता का मूल है। इसी से रचना प्रक्रिया में एक गति आती है। अंतिम चरण में एक भौतिक कलाकृति का आविर्भाव होता है। लेकिन इस अंतिम चरण से पूर्व यानी चौथे चरण में कला कौशल द्वारा बिंब को भौतिक कृति या तार्किक सिद्धांत में ढाला जाता है, जहां ज्ञान, कौशल तथा सांस्कृतिक रुचि की विशेष भूमिका रहती है। कुछ विचारक अंतःप्रेरणा को रचना प्रक्रिया की दृष्टि से कवि मन का बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटक मानते हैं। फिर स्मरण और फिर कल्पना तत्व को रेखांकित करते हैं। सवाल उठता है कि क्या रचना प्रक्रिया का आरंभ आत्मसंकेंद्रण से होता है? नहीं, आत्मसंकेंद्रण शून्य पर नहीं किया जा सकता। रचनाकार अनुभूत समस्या या अप्रत्याशित यथार्थ पर ही अंतःकेंद्रण करता है। यह उसके आत्म और वस्तु जगत का द्वंद्व है। यह द्वंद्व संकेंद्रण में बाधा कभी नहीं बनता, बल्कि अनुभूतिजन्य तनाव के रास्ते से उन प्रभावों को उत्पन्न करता है, जिन्हें संकेंद्रण के लिए कच्ची सामग्री कहा जा सकता है।
प्रश्न यह भी है कि क्या अंतःप्रेरणा, अंतःकंेद्रण और स्मरण आदि रचनाकार की विशेषताएं हैं अथवा रचना की प्रक्रिया के सोपानात्मक घटक हैं। निश्चित रूप से ये रचनाकार ही के व्यक्तित्व निर्धारक गुण हैं। और अभिव्यक्ति-माध्यम-बिंब, प्रतीक, अप्रस्तुत विधान इत्यादि सब संप्रेषणीयता से जुड़े हुए संदर्भ हैं। प्रेषणीयता से रचना प्रक्रिया का संबंध तभी जुड़ता है, जब रचयिता अपनी रचना के साथ-साथ आस्वादकों के बारे में सोचने लगता है। लेकिन रचना प्रक्रिया में बिंबों, प्रतीकों और अप्रस्तुत विधान की भूमिका को पाठकीय अथवा दर्शकीय संप्रेषण तक सीमित नहीं किया जा सकता क्योंकि 'भावन' के स्तर पर भी रचनाकार का सहचर्यात्मक विचारण इन्हीं के माध्यम से होता है। इसीलिए पूरी रचना प्रक्रिया को बिंब विधान का व्यापार कहा जाता है। शाश्वत सत्य यह है कि रचना करने की इच्छा का उद्भव ही संप्रेषणात्मक होता है। यही कारण है कि भारतीय काव्य शास्त्र रचना व्यापार का विवेचन सहृदय को केंद्र में रख कर करता है।
रचनाकार अभिप्रेरित करने के लिए अभिप्रेरित होता है। लेकिन कुशल रचनाकार अपनी अभिप्रेरणाओं से संबंधित समस्या स्थितियों को जानबूझ कर नियोजित करता है, ताकि सहृदयी पाठक को झकझोर सके। जिस लेखक के पास बड़ी व्यावसायिक निपुणता होती है, वही अभिप्रेरणा के दबाव को रोककर, धीरे-धीरे प्रछन्न रूप से पाठकीय चेतना में उन तत्वों का प्रवर्त्तन करता है जो भावी संश्लेषण के लिए जरूरी होते हैं। प्रतिबद्ध रचनाकारों का कहना है कि लिखना उनकी इच्छा शक्ति के अधीन है। उन्हें पता होता है कि कौनसी समस्या किस प्रयोजन से अभिप्रेरित कर रही है। लेकिन कुछ रचनाकारों के अनुसार प्रारंभिक अभिप्रेरणा अस्पष्ट होती है। … एक व्यापक सत्य यह है कि कवि को अपने वास्तविक जीवन में रचना बाह्य काव्यानुभव जीना पड़ता है। कवि केवल रचना प्रक्रिया में पड़कर ही कवि नहीं होता। वरन् उसे वास्तविक जीवन में अपनी आत्म समृद्धि को प्राप्त करना पड़ता है। बाह्य आभ्यंतरीकरण एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। कवि के लिए सतत आत्मसंस्कार आवश्यक है। सम्यक समझदारी को व्यापक मानवीय संदर्भ-प्रदान में वस्तुनिष्ठता तथा सर्वग्राह्यता का समावेश होता है।
रचनाकार तब वर्तमान केंद्रस्थ होकर भी अतीत तथा भविष्य का आकलन करता है। और एक अर्थ में समय एवं काल से ऊपर उठ जाता है। रचनाकार अपने प्रत्यक्षित का पुनर्निर्माण करता है। रचनाकार तटस्थ व्यक्ति नहीं है। उसकी कुछ भावनाएं होती हैं। कुछ विचार होते हैं और कुछ मूल्यों के प्रति वह आस्थावान होता है। वह अपनी रचना के द्वारा अपने परिवेश को बदलना चाहता है। इसलिए वह कुछ विचारों व मूल्यों का पक्षधर हो जाता है। कौनसी पक्षधरता सुंदर होती है तथा कौनसी विकृत, इसके लिए समकालीन बोध संपन्न वस्तुनिष्ठ विवेचना अपेक्षित है। लेकिन प्रत्यक्षित अनुभव से उत्पन्न सरोकार ही समस्या स्थापन, अभिप्रेरणा या अंतःप्रेरणा है, जो सामाजिक व व्यक्तिगत अनिवार्यता है। पूर्व प्रेरणा से उद्भूत यह प्रेरणा उद्गमित और कार्यान्वित होती है। और रचनाकार कल्पना के सहारे भाव बिंबात्मक विचारण को मस्तिष्क में उतारता है और शब्दों में ढालता है। जीवन सत्य सौंदर्य बोधात्मक तरीके से कलाकृति में संप्रेषित होता है।
-डा. ओम अवस्थी
पुस्तक समीक्षा : प्रकृति से जीवन का तादात्म्य दर्शाती कविताएं
'प्रकृति की ओर' प्रो. कृष्णा बंसल का तीसरा काव्य संकलन है। इससे पूर्व इनकी दो अनूदित पुस्तकें- 'संपूर्णता की ओर एक कदम' तथा 'ओपी रंचन की कुछ कविताएं' प्रकाशित हो चुकी हैं। जीवन के लंबे अनुभव और शिक्षिका होने के कारण इनकी रचनाओं में यथार्थ संंदेश के रूप में व्यक्त हुआ है। एक दृष्टि से देखने पर कविताएं सपाट बयानी लगती हैं, किंतु सरल भाषा एवं मधुर भावों से पढ़ने को प्रेरित करती हैं। संकलन में कुल चौवन कविताएं हैं जो प्राकृतिक परिवर्तनों के चिंतन, दार्शनिक भाव, नारी उत्पीड़न, करुणा, पर्यावरण, परिवार, कोरोना, जीवन संध्या आदि विषयों पर कवयित्री की संवेदनाओं को रोचकता से व्यक्त करती हैं।
नारी उत्पीड़न का आक्रोश 'चीखें', 'चंडी बनो' व 'स्मारक' कविताओं में अधिक मुखर हुआ है। बुढ़ापे में भी कवयित्री सक्रिय एवं आशावान हैं। पाखंडों से 'दिव्यता' नहीं आ सकती और कोरोना के कारणों पर भी ये प्रहार करती हैं। प्रो. कृष्णा बंसल के चिंतन का दायरा विस्तृत है। संग्रह की भाषा सहज, मधुर और प्रवाहयुक्त है। इस उम्र में साहित्य सृजन के साथ ये नालागढ़ सुधार सभा और नालागढ़ स्त्री सभा की प्रधान भी हैं। संप्रति ये नालागढ़ साहित्य एवं कला मंच की संरक्षक-संस्थापक हैं, जिसके अध्यक्ष वरिष्ठ साहित्यकार एवं समाजसेवी डा. यादव किशोर गौतम हैं। साहित्यिक मंच के माध्यम से अनेक कवि-लेखक सामने आ रहे हैं तथा वर्ष पर उस उपेक्षित से क्षेत्र में लोकसाहित्य की रचना भी कर रहे हैं। 'प्रकृति की ओर' कृति पठनीय एवं संग्रहणीय है। वरिष्ठ कवयित्री के लिए साधुवाद तथा शुभ कामनाएं।
-अमरदेव आंगिरस, साहित्यकार
विश्व ध्यानाधार का एक और सुंदर अंक
संपादक चमन सिंह जरयाल के नेतृत्व में गगल (कांगड़ा) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका 'विश्व ध्यानाधार' का अक्तूबर-दिसंबर 2021 अंक बाजार में आ गया है। धर्म, संस्कृति, अध्यात्म एवं ज्योतिष को समर्पित इस पत्रिका के नए अंक में कई मूल्यवान आलेख छपे हैं। संपादकीय 'सृष्टि क्रम और अवतारवाद' में ईश्वर की व्याख्या की गई है। सुमन कुंदरा की कविता 'नवरात्रों के नजारे' रोचक बन पड़ी है। चमन सिंह जरयाल, सर्वेश्वरानंद, वीपी अग्नि, आशुतोष कंवर, चमन प्रभाकर, हरिकृष्ण मुरारी, आरएल शर्मा, प्रभा आचार्य, सुमन शर्मा, जेपी शर्मा, सुरेश आचार्य, स्वर्गीय वेद भूषण, कुलदीप शास्त्री, नरेंद्र त्रेहन, शौरि शर्मा, स्वर्गीय डा. पीयूष गुलेरी, अनिल शास्त्री, उमेश शर्मा अरविंद दीवान व संजय शर्मा के विविध विषयक आलेख एवं काव्य पंक्तियां पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं।
आरएस राणा ने प्याज के गुण बताए हैं। जीवन कौंडल तुलसी के धार्मिक एवं औषधीय महत्त्व पर बात कर रहे हैं। ज्योत्सना ठाकुर ने बताया है कि पनीर कोरमा किस तरह तैयार किया जा सकता है। व्रत एवं पर्वों की सूची भी पत्रिका में दी गई है। अक्तूबर से दिसंबर तक का त्रैमासिक फलादेश भी इसमें दिया गया है। कांगड़ा की प्रसिद्ध गणेश घाटी पर आशुतोष कंवर का आलेख काफी रोचक है। संजय शर्मा एक महत्त्वपूर्ण विषय 'क्या ईश्वर सुलभ है?' पर बात करते हैं। कुल मिलाकर पत्रिका के इस अंक की सामग्री काफी रोचक है। 46 पृष्ठों पर आधारित इस अंक का मूल्य केवल 65 रुपए है। आशा है पत्रिका का यह अंक अध्यात्म में रुचि रखने वाले पाठकों को पसंद आएगा।
-फीचर डेस्क
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