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By: divyahimachal
देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह तक नामकरण बदलने की जरूरत क्या है? प्रधानमंत्री, अंतत:, देश का प्रधानमंत्री होता है और वह संवैधानिक होता है। यदि कैबिनेट ने किसी स्थान, भवन, संस्थान, पुरस्कार आदि का नामकरण, किसी प्रधानमंत्री के नाम पर, तय किया है, तो उसे एक अच्छी, खूबसूरत लोकतांत्रिक परंपरा के तौर पर स्वीकार करना चाहिए। यदि मौजूदा प्रधानमंत्री किसी पूर्व प्रधानमंत्री के स्मारक में हस्तक्षेप करता है और नामकरण ही बदल दिया जाता है, तो यह राजनीति की क्षुद्रता है। कमोबेश मौजूदा प्रधानमंत्री यह तो स्पष्ट करेंगे कि ऐसा क्यों किया गया? क्या सरकारें पहले की कैबिनेट के फैसलों को खारिज करने में ही जुटी रहेंगी? ऐसा करने से किसी प्रधानमंत्री स्तर के व्यक्तित्व का नाम, कद, ख्याति गुम नहीं हो सकते और न ही ऐसा जबरन किया जा सकता है। भारत में चंद्रशेखर, देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल सरीखे प्रधानमंत्री भी हुए हैं, जिनके कार्यकाल बेहद कम रहे, लेकिन प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने जो भी निर्णय लिये, वे इतिहास में दर्ज हैं। देश उनके नाम पर मिट्टी फेरकर गुम नहीं कर सकता। प्रधानमंत्री के तौर पर पंडित नेहरू की लंबी विरासत है। 1947 से लेकर 27 मई, 1964 तक वह लगातार प्रधानमंत्री चुने जाते रहे। वह कालखंड संक्रमण, संकट और अभाव का था।
आज के भारत की अर्थव्यवस्था 3.75 ट्रिलियन डॉलर की है। उसकी तुलना में तब भारत ‘गरीब देश’ ही था। यदि प्रधानमंत्री के तौर पर नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नाम पर देश की 74 सडक़ों और भवनों, 98 शैक्षणिक संस्थानों, 52 राष्ट्रीय पुरस्कारों, 39 अस्पतालों, 15 राष्ट्रीय अभयारण्य, 28 खेल मुकाबलों, 19 स्टेडियम, 15 फेलोशिप, 09 हवाई अड्डों, 12 केंद्रीय और 52 राज्य योजनाओं तथा 37 अन्य संस्थानों के नामकरण किए गए थे, तो आज उन्हें खुरचने या मिटाने अथवा बदलने के औचित्य और तर्क क्या हैं? इन नेताओं को भरपूर जनादेश मिले और उन्होंने देश का नेतृत्व किया था। इन नामकरणों को ‘वंशवाद’ की परिधि में तब बांधा जा सकता था, यदि वे किसी साम्राज्य की पीढ़ी-दर-पीढ़ी ईकाई होते और उनका ‘राजतिलक’ शाही परंपराओं के मुताबिक किया जाता। ब्रिटेन के महाराजा किंग चाल्र्स की हालिया ताजपोशी लोकतांत्रिक नहीं है, लेकिन भारत में नेहरू-गांधी नामधारी प्रधानमंत्रियों के अलावा, असंख्य नेताओं के नामकरण पर सार्वजनिक स्थल और स्मारक हैं। यह सूची बहुत लंबी है। देश बखूबी जानता है। प्रधानमंत्री मोदी ने ‘नेहरू मेमोरियल एंड लाइब्रेरी’ का नामकरण बदल कर ‘प्रधानमंत्री स्मारक एवं पुस्तकालय’ कर दिया है।
इसका तर्क क्या हो सकता है? प्रधानमंत्री के रूप में यह भवन 16 साल तक नेहरू का आधिकारिक आवास था। उनकी स्मृतियां हैं। स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़ी यादें और कुछ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज यहां हैं। देश के दिवंगत प्रधानमंत्रियों की स्मृति में राजधानी दिल्ली में सैकड़ों एकड़ के भूखंड आवंटित किए गए हैं। उन्हें पर्यटन-स्थल भी बनाया गया है। जिन आवासों में नेतागण रहते थे, उन्हें स्मारक भी बनाया गया है और उन्हीं के नाम पर…! नेहरू के नाम पर क्या दिक्कत है? परेशान करने वाली यह प्रवृत्ति है कि ऐसे फैसलों पर प्रधानमंत्री मोदी चुप्पी साध लेते हैं, जबकि खुद उनके ही फैसले होते हैं। सवाल है कि क्या नेहरू-गांधी के नामकरण वाले स्मारकों का नाम बदलना ही भाजपा की राजनीति है? ये नामकरण प्रधानमंत्री मोदी को क्यों चुभते हैं और उन्हें बदल कर भाजपा कौन-सा लंबा-चौड़ा जनादेश हासिल कर सकती है? इस विषय पर मोदी को चुप्पी तोड़ते हुए स्पष्टीकरण देना चाहिए।
Rani Sahu
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