सम्पादकीय

पेट पर लात मारने वाला आंदोलन: लोगों की रोजी-रोटी छीनने वाला हरगिज नहीं हो सकता अन्नदाता

Triveni
4 Aug 2021 5:25 AM GMT
पेट पर लात मारने वाला आंदोलन: लोगों की रोजी-रोटी छीनने वाला हरगिज नहीं हो सकता अन्नदाता
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कृषि कानूनों के विरोध में जब किसान संगठन अपने लोगों के साथ सड़कों पर उतरे थे,

भूपेंद्र सिंह| कृषि कानूनों के विरोध में जब किसान संगठन अपने लोगों के साथ सड़कों पर उतरे थे, तब उन्हें अन्नदाता कहकर संबोधित किया गया था-न केवल समर्थकों की ओर से, बल्कि सरकार की ओर से भी, लेकिन बीते आठ महीनों में किसान संगठनों ने आम नागरिकों के समक्ष जैसी समस्याएं खड़ी की हैं, उसे देखते हुए उन्हें मुसीबतदाता ही कहा जा सकता है। किसान संगठन न केवल दिल्ली की सीमाओं को घेरकर बैठे हैं, बल्कि उनके धरना-प्रदर्शन दिल्ली की सीमाओं के अलावा भी जारी हैं। उनके कारण भी लोगों को समस्याओं से दो-चार होना पड़ रहा है। संकट केवल यह नहीं कि लोगों को आने-जाने में परेशानी का सामना करना पड़ रहा है, बल्कि यह भी है कि बहुत से लोगों की रोजी-रोटी के सामने भी संकट खड़ा हो गया है। दिल्ली से सटे बहादुरगढ़ के उद्योगों के सामने तो कहीं बड़ी मुसीबत खड़ी हो गई है। हाल की एक खबर के अनुसार बहादुरगढ़ के उद्योगों का कुल टर्नओवर करीब 80,000 करोड़ रुपये का है। किसान आंदोलन की वजह से उन्हें अब तक करीब 20,000 करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है।

बहादुरगढ़ के उद्यमियों की मानें तो दिल्ली को जोड़ने वाला टिकरी बार्डर बंद होने से इस क्षेत्र की फैक्ट्रियों के वाहनों को खेतों के कच्चे रास्ते से होकर दिल्ली जाना पड़ता है। इस रास्ते से एमसीडी को टोल देना पड़ता है और रास्ता देने के लिए खेतों के मालिकों को प्रति वाहन सौ-सौ रुपये भी। अब बारिश के कारण खेतों के रास्ते में पानी भर गया है और वाहनों का निकलना मुश्किल हो गया है। बावजूद इसके किसान संगठन सड़क खाली करने को तैयार नहीं। बहादुरगढ़ चैंबर आफ कामर्स एंड इंडस्ट्रीज के अनुसार किसान संगठनों की रास्ताबंदी के कारण करीब सात लाख लोगों का रोजगार प्रभावित हो रहा है। करोड़ों रुपये के राजस्व का नुकसान अलग से हो रहा है। इसके अलावा लोगों के लिए टिकरी बार्डर आना-जाना भी दूभर है।
सिंघु बार्डर पर किसानों का कब्जा होने से लगभग 40 गांवों के लोग परेशान
यही कहानी सिंघु बार्डर पर भी है। दिल्ली-हरियाणा को जोड़ने वाली यहां की सड़क पर कब्जा होने की वजह से आसपास के लगभग 40 गांवों के लोग परेशान हैं, लेकिन उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है। इसी तरह उनकी भी नहीं सुनी जा रही, जो गाजीपुर बार्डर यानी यूपी गेट बाधित होने से आजिज आ चुके हैं। सड़कों को बाधित करना गुंडागर्दी के अलावा और कुछ नहीं, लेकिन क्षोभ और लज्जा की बात यह है कि न तो पुलिस के कान पर जूं रेंग रही है, न सरकार के और न ही उस सुप्रीम कोर्ट के, जिसने कहा था कि सार्वजनिक स्थलों पर अनिश्चितकाल के लिए कब्जा नहीं किया जा सकता।
लुधियाना: अदाणी समूह का लाजिस्टिक पार्क बंद, अन्नदाताओं ने मारी लोगों के पेट पर लात
तथाकथित अन्नदाता किस तरह लोगों के पेट पर लात मारने का काम अन्यत्र भी कर रहे हैं, इसका एक और उदाहरण है लुधियाना में अदाणी समूह की ओर से अपने लाजिस्टिक पार्क को बंद किया जाना। इस पार्क का उद्देश्य पंजाब के उद्योगों को आयात और निर्यात के लिए रेल और सड़क मार्ग से कार्गो सेवा उपलब्ध कराना था। इस साल जनवरी में कृषि कानूनों के विरोध में किसान संगठनों ने लाजिस्टिक पार्क के बाहर ट्रैक्टर ट्राली लगाकर रास्ता बंद कर दिया। यह काम इस दुष्प्रचार की आड़ में किया गया कि कृषि कानूनों से तो असल फायदा अदाणी और अंबानी को होगा। प्रदर्शनकारियों की घेराबंदी के कारण लाजिस्टिक पार्क का काम ठप हो गया। कंपनी की तरफ से पंजाब सरकार को कई बार धरना हटाने के लिए कहा गया, लेकिन प्रदर्शनकारियों को उकसाने और बरगलाने वाली सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। मजबूरी में अदाणी समूह ने हाईकोर्ट की शरण ली। हाईकोर्ट ने अमरिंदर सरकार को इस मामले का हल निकालने के आदेश दिए, लेकिन उसने कुछ नहीं किया। थक-हारकर अदाणी समूह ने अपने इस पार्क को बंद करने का फैसला लिया। आखिर कोई कंपनी कब तक खाली बैठे लोगों को वेतन देती? लाजिस्टिक पार्क बंद करने के फैसले से चार सौ से अधिक लोगों की नौकरी चली गई। इसे इस तरह समझें कि तथाकथित अन्नदाताओं के कारण सैकड़ों लोगों के पेट पर लात पड़ गई। जो दूसरों के पेट पर लात मारने का काम करे, वह कुछ भी हो सकता है, पर अन्नदाता हरगिज नहीं हो सकता।
किसानों की आड़ में राजनीति चमकाते लोग
किसी को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि किसान संगठनों और कुछ राजनीतिक दलों के बहकावे में आकर सड़कों पर बैठे लोग आम किसान हैं। ये किसान नहीं, छुटभैये नेता, फुरसती लोग या फिर आदतन आंदोलनबाज हैं, जिन्हें किसानों का नेता बताया जा रहा है, वे भी वास्तव में किसान नेता नहीं, बल्कि किसानों की आड़ में अपनी राजनीति चमकाने और नेतागीरी का शौक पालने वाले लोग हैं। शायद ही कोई किसान नेता ऐसा हो, जो सचमुच खेती-किसानी का काम करता हो। आखिर योगेंद्र यादव जैसे लोग किसान नेता कैसे हो सकते हैं? किसान नेता और उन्हें हवा दे रहे राजनीतिक दल कुछ भी दावा करें, यह निरा झूठ है कि आम किसान धरने पर बैठा हुआ है। आम किसानों के पास न तो इतना समय है कि वह अपना काम-धाम छोड़कर धरने पर बैठा रहे और न ही वह इतना निष्ठुर-निर्दयी हो सकता है कि जाने-अनजाने औरों की रोजी-रोटी छीनने का काम करे। चूंकि कई लोग और समूह राजनीतिक कारणों अथवा अन्य किसी स्वार्थवश कृषि कानून विरोधी आंदोलन को आर्थिक-मानसिक खुराक देने में लगे हुए हैं, इसलिए लगता नहीं कि उनका धरना-प्रदर्शन आसानी से समाप्त होगा। वह भले ही अनंतकाल तक जारी रहे, लेकिन उसे लोगों को परेशान करने, उनकी दिनचर्या बाधित करने और उनकी रोजी-रोटी छीनने की इजाजत नहीं दी जा सकती। यह सरकारों और उनके प्रशासन का नैतिक-आधिकारिक दायित्व है कि वे किसानों का भेष धारण किए नकली अन्नदाताओं से आम लोगों के हितों की रक्षा करें।


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