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मध्यवर्ग के लिए बजट का दिन दो चीजों का हिसाब जोड़ने का दिन होता था। क्या-क्या सस्ता या महंगा हुआ
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। आलोक जोशी, वरिष्ठ पत्रकार: मध्यवर्ग के लिए बजट का दिन दो चीजों का हिसाब जोड़ने का दिन होता था। क्या-क्या सस्ता या महंगा हुआ, और इनकम टैक्स का क्या हुआ? जीएसटी आने के बाद से वस्तुओं के दाम घटने-बढ़ने की कहानी तो बजट में अब करीब-करीब नहीं ही होती है। अब बचा इनकम टैक्स, तो हर साल ही लोगों को उम्मीद रहती है कि सरकार उन्हें कुछ राहत देगी। और इस साल तो बहुत सारे लोग यह आस लगाए बैठे थे कि वित्त मंत्री नीचे के स्लैब में टैक्स भरने वालों को कुछ न कुछ राहत जरूर देंगी।
यह उम्मीद बेवजह भी नहीं थी। पिछले आठ साल से इनकम टैक्स की लिमिट, यानी वह आमदनी जरा भी नहीं बदली है, जिसके बाद आपको अपनी कमाई पर आयकर चुकाना पड़ता है। साल 2014 में मोदी सरकार का पहला बजट पेश हुआ था, जिसमें तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने यह सीमा सालाना दो लाख रुपये से बढ़ाकर ढाई लाख रुपये की थी। बुजुर्गों के लिए इसे ढाई लाख से बढ़ाकर तीन लाख रुपये किया गया था। तब से अब तक करमुक्त आय की सीमा बिल्कुल नहीं बदली है। हालांकि, कुछ छूट को जोड़ लें, तो पांच लाख रुपये तक की कमाई पर टैक्स नहीं भरना पड़ता और टैक्स की शुरुआत उससे ऊपर की कमाई पर ही होती है।
वैसे, टैक्स बचाने के लिए सरकार ने कुछ रास्ते दे रखे हैं। आयकर कानून की धारा 80 सी के तहत कुछ खास योजनाओं में डेढ़ लाख रुपये तक के निवेश पर आयकर में छूट मिलती है। यह सीमा भी आखिरी बार 2014 के बजट में ही बढ़ाई गई थी। इसे एक लाख से बढ़ाकर डेढ़ लाख रुपये किया गया था। और घर कर्ज के ब्याज पर मिलने वाली छूट की सीमा भी डेढ़ लाख से बढ़ाकर दो लाख रुपये की गई थी। उसके बाद इसमें हल्का-फुल्का फेरबदल होता रहा है। मसलन, साल 2015 में वित्त मंत्री ने नेशनल पेंशन स्कीम में पैसा लगाने वालों को 50 हजार रुपये तक की छूट अलग से देने का एलान किया और स्वास्थ्य बीमा के प्रीमियम पर छूट की सीमा भी 15 हजार से बढ़ाकर 35 हजार रुपये कर दी।
तब से अब तक बस इंतजार ही चल रहा है। बल्कि बजट के बाद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जो कहा, उससे तो बात और पेचीदा हो गई है। उन्होंने बताया कि इस साल के बजट में आयकर में कोई बदलाव क्यों नहीं किया गया। भारतीय अर्थव्यवस्था अभी कोरोना के झटके से उबरने का प्रयास कर रही है और वित्त मंत्री का कहना है कि ऐसे में वह लोगों पर भार नहीं बढ़ाना चाहती थीं। इसका मतलब तो यही हुआ कि अगर कोरोना का संकट न होता, तो शायद वह इनकम टैक्स का भार बढ़ाने पर भी विचार कर सकती थीं?
खैर, जो हुआ ही नहीं, उस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। लेकिन यह समझना बहुत आसान है कि लोग इस बजट में इनकम टैक्स पर राहत की उम्मीद क्यों कर रहे थे। आठ साल से बदलाव नहीं हुआ। जाहिर है, कमाई बढ़ी, इसीलिए टैक्स भी बढ़ा, लेकिन साथ में खर्च भी तो बढ़ा है और कोरोना की मार ने तमाम परिवारों का गणित बिगाड़कर रख दिया है। ऐसे में, उन्हें उम्मीद थी कि वित्त मंत्री उनके जख्मों पर मरहम लगाने के लिए कुछ न कुछ तो करेंगी ही। उन्हें विश्वास था कि इस बार वित्त मंत्री आयकर में राहत का एलान करेंगी।
कंसल्टिंग फर्म केपीएमजी के एक सर्वे में शामिल 64 प्रतिशत लोगों ने उम्मीद जताई थी कि वित्त मंत्री कर मुक्त आय की सीमा ढाई लाख से बढ़ाकर तीन लाख रुपये सालाना कर सकती हैं। सर्वे में शामिल ज्यादातर लोगों की राय थी कि वह सीमा भी दस लाख रुपये से बढ़ाई जानी चाहिए, जिसके बाद आपको 30 प्रतिशत, यानी सबसे ऊंची दर पर कर चुकाना पड़ता है। सबसे ज्यादा लोग यह उम्मीद कर रहे थे कि काफी मोटी कमाई वाले अति धनाढ्य लोगों पर थोड़ा सा टैक्स बढ़ाकर नीचे के बहुत सारे लोगों को राहत पहुंचाने का रास्ता निकाला जा सकता है।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का यह चौथा बजट था, इसलिए भी लोगों को लग रहा था कि शायद इस बार तो वह कुछ ऐसा करेंगी कि लोग उनके कार्यकाल की कुछ अच्छी यादें भी साथ रख पाएं। लेकिन हुआ नहीं। उल्टे अब लोगों को याद आ रहा है कि दो साल पहले वह इस बात के संकेत दे चुकी थीं कि आयकर के मोर्चे पर राहत देने में वह यकीन नहीं रखतीं। उन्होंने नई कर व्यवस्था का एलान किया था, जिसमें करदाताओं को यह विकल्प दिया गया कि आप चाहें, तो कमाई पर टैक्स और निवेश पर छूट की मौजूदा व्यवस्था जारी रखें या दूसरा रास्ता चुन लें, जिसमें आपको किसी भी निवेश पर कोई छूट नहीं मिलेगी और बदले में आपकी कमाई पर टैक्स की दर बदल जाएगी, जो मौजूदा दर से कम होगी।
वित्त मंत्री ने इस बजट में महाभारत के शांतिपर्व से एक श्लोक भी सुनाया, जिसका मतलब यह था कि सरकार को कर वसूली करते हुए जनता के हित के साधन जुटाने चाहिए। लेकिन जो एलान उन्होंने किए, उनसे करदाताओं को कोई ऐसी राहत नहीं मिली, जिसकी उम्मीद थी। उन्होंने एक बात यह भी कही कि करदाताओं को अनिश्चितता से बचाने की कोशिश है, ताकि सबको पता रहे कि उन्हें आगे की योजना कैसे बनानी है और किसी पर अचानक कोई बोझ न आ पडे़।
इसी बात को पकड़कर आगे बढ़ें, तो सरकारों को यह सोचना ही पड़ेगा कि आखिर आयकर की सीमा बढ़ाने या टैक्स में राहत के लिए निवेश की सीमा पर भी हर बार लोगों को बजट का ही इंतजार क्यों करना पड़ रहा है? सरकार ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं बना सकती, जिसमें इन चीजों का फैसला एक तय फॉर्मूले के हिसाब से हो जाए और लोगों को सचमुच पता रहे कि आगे की योजना कैसे बनानी है। जैसे, सरकारी कर्मचारियों के महंगाई भत्ते का फॉर्मूला तय है; संपत्ति की खरीद-बिक्री पर 'कैपिटल गेन्स टैक्स' कैसे लगेगा, इसका फॉर्मूला तय है। उसी तर्ज पर आयकर की सीमा, करमुक्त आय की सीमा, सबसे कम और सबसे ज्यादा दर पर टैक्स भरने वाले लोगों की आय की सीमा, यानी टैक्स-स्लैब, यह सब भी महंगाई-दर या खुदरा मूल्य सूचकांक के साथ जोड़कर अपने आप तय कर दिए जाएं, तो फिर जीएसटी की तरह ही इस मामले में भी बजट का इंतजार करने की जरूरत खत्म हो जाएगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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