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महंगाई को भुलाता मिडिल क्लास
शंभूनाथ शुक्ल।
धनतेरसपर 75,000 करोड़ का व्यापार हुआ. कोरोना से जूझते व्यापारियों के लिए यह दीपावली वाक़ई ख़ुशी की खबर है. उनके चेहरे खिल गए हैं. इतनी भीषण महंगाई के बावजूद उपभोक्ता की खुले हाथों ख़रीद वाक़ई चमत्कार है. अकेले 7500 करोड़ के तो सोने-चांदी के गहने बिके. इसके बाद दस से बीस लख रुपए क़ीमत की कारें और फिर इलेक्ट्रानिक के सामान. दरअसल बाज़ार अब हमारे घर में घुस चुका है.
हम बाज़ार से आकर्षित होते हैं और बाज़ार को अपने घर बुलाने लगते हैं. बाज़ार पहले भी घर में मौजूद था किंतु सोवियत संघ के विघटन और नरसिंह राव, मनमोहन सिंह की टोली ने इसे बढ़ावा दिया. अब तो हालात ये है, कि बाज़ार हमें ही घर से बेदख़ल कर रहा है. और हम घर फूंक तमाशा देखने की स्थिति में हैं.
अब बचत की फ़िक्र किसी को नहीं
सोचिए, आज से एक दशक या दो दशक पूर्व देश के मध्य वर्ग की आर्थिक स्थिति मज़बूत थी. नौकरियां पक्की थीं और बोनस भी मिला करता था. लेकिन तब न ऐसी कारें बिकती थीं न इतना गहना. क्योंकि भारतीय मध्य वर्ग सदैव बचत की ओर अग्रसर रहा. यही कारण था कि 2008 की मंदी वह झेल गया. तब क़र्ज़ लेकर घी पीने की प्रवृत्ति नहीं थी. अब वह सिर्फ़ वर्तमान में जीता है. जीवन का एक दर्शन इसके अनुकूल है लेकिन अगर भविष्य की चिंता नहीं की तो आगे क्या होगा! अगर मध्य वर्ग इसी तरह जीता रहा तो किसी भी दिन कोई मंदी उसकी सारी अर्थ व्यवस्था को ध्वस्त कर देगी. 2008 की मंदी के बाद 2020 का कोरोना तो उसने झेल लिया किंतु आगे?
महंगाई पर चर्चा भी नहीं
इसीलिए अब महंगाई पर चर्चा नहीं होती, कोई सड़क पर नहीं उतरता, किसी को कोई बिलबिलाहट नहीं होती. सबको पता है, कि ईंधन के दाम बढ़ने से हर चीज़ को आग लग जाएगी लेकिन किसी भी राजनेता ने इस पर सिवाय ट्वीट करने के और कुछ नहीं किया. यानि विरोध प्रदर्शन के लिए भी बाज़ार. दूध, सब्ज़ी, खाने के तेल भी अब तक के सारे रिकॉर्ड तोड़ चुके हैं. पर इसके विरोध में कोई विरोधी दल खड़ा होने का दम नहीं भर रहा. मज़े की बात है कि दूध की क़ीमतें बढ़ने का कोई कारण नहीं है. कोरोना का भय अभी बना है, तब यह माल जाता कहां है!
अकूत मुनाफ़ा कमाने को आतुर कंपनियां हर तरह के छल, छद्म पर उतारू हैं. व्यवस्था ऐसी कम्पनियों का पोषण करती है. वह देख रही है कि जब व्यक्ति किसी भी वृद्धि पर आपत्ति नहीं कर रहा, तो जो चाहो सो करो. कोई रोक-टोक करने वाला नहीं. बाज़ार के लिए यह बहुत मज़े की स्थिति होती है. लोकतंत्र में जब विपक्ष विरोध की पहल न करे तो मान लीजिए कि उसने विपक्ष में बैठना अपनी नियति मान लिया है.
क्या भारत जैसे देश के लिए यह बेफ़िक्री ठीक है?
पूंजीवादी लोकतंत्र खुली अर्थ व्यवस्था को बढ़ावा देता है. यह किसी कम आबादी वाले देश के लिए तो सही हो सकता है किंतु इतनी विशाल आबादी वाले देश के लिए बहुत घातक होता है. इसके चलते एक विशाल मध्यवर्ग तथा किसान व मज़दूर अपने-अपने अधिकारों से वंचित हो जाते हैं. वे एक मशीनी ज़िंदगी जीने को विवश हो जाते हैं. हर एक ने स्वीकार कर लिया है कि महंगाई का तो काम ही है बढ़ना.
महंगाई नहीं बढ़ेगी तो देश विकास कैसे करेगा? बहुत-से मध्य वर्गीय लोग तर्क देते हैं, कि महंगी कारें, महंगे मोबाइल और विलासिता की सामग्री तो लोग ख़रीद ही रहे हैं फिर कैसे माना जाए कि लोग महंगाई से त्रस्त हैं. वे गांवों या छोटे शहरों में रह रहे लोगों को क़ाहिल और नाकारा समझते हैं. वहां से हो रहे पलायन को मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति मानते हैं. उनको समझ नहीं आता कि ग़रीबों की ज़िंदगी कितनी पीड़ा दायी हो गई है.
घर में घुसा बाज़ार
इस चीज़ पर भी गौर किया जाए कि आख़िर बाज़ार हमारे घर में घुसा कैसे? आज़ादी के बाद जो संविधान बना, उसमें बेलगाम बाज़ार को दूर ही रखने की कोशिश की गई थी. यूं भी पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू में गांधीवादी सहजता व सरलता थी तथा समाजवादी रुझान भी. तब भला कैसे बाज़ार को खेलने की अनुमति दी जाती. इसीलिए किसानों और मज़दूरों के लिए कई क़ानून केंद्र सरकार ने बनाए थे, ताकि राज्य सरकारें बेलगाम न हो सकें. इंदिरा गांधी का अपना झुकाव सोवियत संघ की तरफ़ था, मगर उनके समय से ही मज़दूर क़ानूनों से छेड़छाड़ होने लगी और ज़्यादातर कारख़ाने इसी काल में बंद हुए. मज़दूर-यूनियनों पर इंटक या कुछ स्वतंत्र माफिया टाइप नेताओं ने क़ब्ज़ा किया और इन लोगों ने प्रबंधन के साथ सौदेबाज़ी की नई परंपरा शुरू की.
मिल मालिक अपनी पुरानी हो चुकी मिलों को बंद करने की फ़िराक़ में थे. शहर के भीतर आ चुकी इन मिलों की ज़मीन का भू-उपयोग बदलवा कर उनके व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए मिल मालिक सत्तारूढ़ दल के नेताओं को पैसा देने लगे. मिलें बंद हो जाने से कारख़ाना मज़दूर बेकार हो गए. उनके समक्ष दो ही विकल्प थे, अपने गांव लौट जाएं या किसी बड़े शहर की राह पकड़ें. बड़े शहरों में स्थिति कोई भिन्न नहीं थी.
बाज़ार का ग़ुलाम मिडिल क्लास
इसलिए संगठित क्षेत्र का यह मज़दूर दिहाड़ी का काम करने लगा. जिसमें मज़दूरी न के बराबर थी और सरकारी सुविधाएं शून्य. संगठित क्षेत्र का मज़दूर होने के नाते उसे कर्मचारी राज्य बीमा निगम की स्वास्थ्य सेवाएं, राज्यों के श्रम विभाग से आवंटित क्वार्टर आदि सब कुछ मिलता था. मगर बड़े शहरों में आकर वह फुटपाथ पर ज़िंदगी गुज़ारने को मजबूर हो गया. उधर छोटी होती कृषि जोतों और परिवार के विस्तार के चलते लाखों लोगों का पलायन प्रति वर्ष होता है. ये सब मज़दूर शहर आकर पूंजीपतियों को आराम पहुंचाने लगे.
मज़दूरों के आधिक्य के चलते उनको सस्ती लेबर मिलने लगी. यहां तक कि ड्राइवरी, प्लंबरी और इलेक्ट्रीशियन जैसे कौशल के कामों के लिए मज़दूर बहुत सस्ते मिल जाते. और यह सिलसिला यहीं नहीं रुका, बल्कि निजी क्षेत्र में चल रहे स्कूल के अध्यापकों की स्थिति भी ऐसी हो गई. यानि एक तरह से बाज़ार ने मिडिल क्लास को अपना ग़ुलाम बना लिया. सरकारी कम्पनियों को विनिवेश के नाम पर निजी क्षेत्रों को सौंपा जाने लगा. इसी की चरम परिणिति है आज की स्थिति. बाज़ार हमें ही हमारे घर से बाहर कर रहा है. और हम विरोध तक नहीं कर पा रहे.
ट्वीट करो और सो जाओ
किसी भी देश में सिर्फ़ मिडिल क्लास ही विरोध के लिए आगे बढ़ता है. परंतु भारत का मिडिल क्लास अभी सत्ता-मद में चूर है. उसे कॉर्पोरेट की नौकरियां लुभाती हैं. और ये नौकरियां पाने के लिए वह हर तरह का समझौता करता है. देश की समस्याओं को समझने की उसमें कूवत नहीं है. वह न्यूज़ और व्यूज से बेख़बर है. उसको सिर्फ़ अपने करियर की चिंता है. और जो लोवर मिडिल क्लास है वह धर्म के उन्माद में डूबा है. नतीजा यह है कि महंगाई बढ़ती है, बढ़ने दो. नौकरियां ख़त्म हो रही हैं, ख़त्म होने दो. उसे बस अपनी चिंता है. लेकिन जब तक एक निज़ाम कल्याणकारी नहीं बनता, सामाजिक नहीं बनता तब तक लूट-खसोट और निजी लाभ के लिए चल रहे खेल को रोका नहीं जा सकता. सच बात तो यह है कि भारत में पढ़ा-लिखा बौद्धिक मिडिल क्लास कॉफ़ी हाउसों या क्लबों में जाकर बस बहस करता है.
बाज़ार और सामाजिक संबंध! मौजूदा ख़ामियों के लिए शासन की लानत-मलामत करता है और फिर ट्वीट कर सो जाता है. विरोधी दलों के नेता भी यही करते हैं. आख़िर वे सब इस लूट में हिस्सेदार जो रहे हैं. उन्हें लगता है, कभी जब उनकी सरकार आएगी तब लूट का ऐसा खेल खेलने के लिए उन्हें नज़रें नहीं चुरानी पड़ेंगी. तब वे कह सकते हैं कि यह तो सनातन परंपरा है. उधर बिना पढ़ा-लिखा मिडिल क्लास इसमें खुश है कि हमने चीन को हड़काया हुआ है. पाकिस्तान हमसे डरता है और आज विश्व में हमारा डंका बज रहा है.
पलायन करती जनता
जब तक मिडिल क्लास इसी तरह सोता रहेगा, कुछ नहीं हो सकता. उसे बढ़ती महंगाई, कुछ हाथों तक पहुंचती अर्थ व्यवस्था के विरुद्ध खड़े होना पड़ेगा. वह खड़ा होगा तो उससे छोटा आदमी भी आ जाएगा. उसे भी पता चल जाएगा, कि खोखला घमंड या गर्व की अनुभूति से रोटी नहीं मिलती. हमारा देश तब सिरमौर होगा जब हम आत्म निर्भर होंगे. हमारे यहां से पलायन रुकेगा. रोज़ी-रोटी के लिए लोग परदेश जाना बंद कर देंगे. अभी तो हमारी स्थिति एक लेबर सप्लायर देश की बनी हुई है. भले वह लेबर स्किल्ड हो या अनस्किल्ड. यह स्थिति तब ही बदलेगी जब हम ग़लत बात का विरोध करना सीखें. महंगाई और बेरोज़गारी जैसी समस्याओं को समझें. अन्यथा बाज़ार हमारे घर में घुसता रहेगा और हमारी सामाजिकता को नष्ट करता जाएगा.
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