सम्पादकीय

बिहार से जो संदेश जाएगा

Gulabi
1 Nov 2020 3:14 AM GMT
बिहार से जो संदेश जाएगा
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मैं दुनिया के अन्य देशों से आए दिन हिन्दुस्तान की तुलना नहीं करना चाहता।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। मैं दुनिया के अन्य देशों से आए दिन हिन्दुस्तान की तुलना नहीं करना चाहता। वजह? हर देश के हालात अलग होते हैं और वैसे भी तुलनाएं कभी संपूर्ण नहीं होतीं, लेकिन पिछले ढाई दशक से समूची धरती पर कुछ समान प्रवृत्तियों ने आकार ग्रहण किया है। इस दौरान बहुत से लोकतांत्रिक देशों में बड़बोले नेताओं ने सत्ता हथिया ली। इन नेताओं के चेहरे भले ही अलग रहे हों, पर चाल और चरित्र में हैरतंगेज समानता नजर आती है। ऐसे राजनेताओं की सफलता का सिलसिला देश-दर-देश बढ़ता गया। उनका रंग-ढंग ऐसा था कि बरसों से चली आ रही शालीन सियासी परंपराएं हाशिए पर चली गईं। बहुत से लोगों को डर सताने लगा कि कहीं यह लोकतंत्र के खात्मे की मुनादी तो नहीं?

यही वजह है कि पिछले दिनों छपी एक खबर ने बरबस मेरा ध्यान खींच लिया। यह समाचार एक सर्वे के बारे में था, जो लोक-लुभावन वायदों के जरिए राजनीतिक दुकानदारी करने वालों की कलई खुरचता है। सर्वेक्षणकर्ताओं के अनुसार, पिछले एक दशक में यूरोप, अमेरिका और एशिया के कई बड़े देशों में लच्छेदार वायदे और दावे करने वाले नेताओं की लोकप्रियता कम होती जा रही है। 'यू-गॉव ग्लोबलिज्म प्रोजेक्ट' के तहत यह सर्वे 25 से अधिक देशों में किया गया। ब्रिटिश मूल के प्रतिष्ठित अखबार द गार्जियन ने इसे प्रकाशित किया है। सर्वे के अनुसार, यूरोप के जिन आठ देशों में चिकने-चुपड़े वायदों वाली सरकारें हैं, वहां लुभावनी बातें करने वाले राजरथियों के प्रति लोगों के आकर्षण में भारी कमी आई है। ऐसे सियासी महारथियों के लिए पिछला दशक स्वर्णकाल सरीखा था। उस दौरान ऐसे राजनीतिक दलों और राजनेताओं की लोकप्रियता सात से बढ़कर पच्चीस प्रतिशत तक पहुंच गई थी। इनमें अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी शामिल हैं। उनकी जनप्रियता में चुनावी साल से ऐन पहले भारी गिरावट देखी गई। वह इस सूची के शीर्ष पुरुष भी हैं, पर इससे बेपरवाह वह अपनी विशिष्ट अदा के साथ चुनावी मैदान में हैं। उनकी जीत-हार बहुत कुछ तय करने जा रही है।

ट्रंप साहब के साथ-साथ फ्रांस के पॉप्युलिस्ट राजनीतिक दल की प्रमुख मरीन ले पेन, इटली में विपक्षी दल के नेता माटेओ साल्विनी, हंगरी में प्रधानमंत्री विक्टर ओरबॉन और स्वीडन के नेता जिमी एकेसन की लोकप्रियता भी घटी है। इनमें से ज्यादातर नेता दक्षिणपंथी विचारधारा से जुड़े हैं। डेनमार्क में मौजूदा राजनीति को लोक-लुभावनवाद से जोड़कर देखा जाता है, पर सबसे ज्यादा 11 प्रतिशत गिरावट यहीं दर्ज की गई। ब्रिटेन और जर्मनी में नौ प्रतिशत, फ्रांस में आठ प्रतिशत, इटली में छह प्रतिशत और पोलैंड में चार प्रतिशत की गिरावट देखी गई। साथ ही, कुछ देशों में इस बात को लेकर जबरदस्त गुस्सा है कि हमारी सरकारें जनता की जरूरीयात से जुड़े आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं कर रही हैं। पारदर्शिता का यह अभाव राजनेताओं की नीयत पर संदेह पैदा करता है।

कोरोना महामारी ने इस चिनगारी को और हवा दे दी है। कई विकसित देशों के मतदाताओं का मानना है कि हमारे नेता विज्ञान में भरोसा करने के बजाय भावनाएं भड़काने वाली बातें करते रहे हैं, जबकि ऐसी आपदाओं से निपटने के लिए वैज्ञानिक उपादानों की आवश्यकता होती है।

इन निष्कर्षों के आलोक में जरा एक बार अपने देश की हकीकत पर भी गौर फरमाएं। चुनाव दर चुनाव हमारे नेता झूठे वायदों की भरमार करते आए हैं। कभी वे किसी छद्म शत्रु को खड़ा कर देते हैं, तो कभी उन्हें दूसरे दलों में ऐसी कमियां नजर आने लगती हैं, जिनका कभी कोई अता-पता ही न था। चूंकि सभी दल इस दलदल को लगातार विस्तार देते आए हैं, लिहाजा मतदाता के सामने भी विकल्प सीमित होते रहे। यही वजह है कि जाति, धर्म और संप्रदाय जैसे मुद्दे विकास, रोजगार, सेहत या शिक्षा जैसे जरूरी विषयों पर हावी होते रहे। इसका खामियाजा आंख मूंदकर नेताओं पर भरोसा करने वालों को उठाना पड़ा।

दूर क्यों जाएं, बिहार चुनाव को ही ले लें। तेजस्वी यादव चुनाव की घोषणा के समय तक उतने दमक नहीं रहे थे, जितने आज। बीच चुनाव में उन्होंने वायदा किया कि सरकार बनाते ही वह पहला आदेश दस लाख लोगों को नौकरी देने का जारी करेंगे। इस एक वाक्य ने सियासी रूप से बेहद संवेदनशील इस सूबे के चुनावी विमर्श को झकझोर कर रख दिया। अगले दिन जारी भारतीय जनता पार्टी के घोषणापत्र में 19 लाख लोगों को रोजगार देने की बात कही गई। अब हर दल की मजबूरी हो गई है कि वह बेरोजगारी और पलायन के शिकार इस प्रदेश के नौजवानों के सामने इसी तरह के वायदे करे। क्या ये वायदे पूरे होंगे? तेजस्वी यादव ने लगता है कि पहले से होमवर्क कर रखा था। वह और उनके समर्थक इसका हिसाब भी देते नजर आए। हालांकि, इस मामले में राजनेताओं का रिकॉर्ड बेहद खराब रहा है। पहले भी नौकरियों के वायदे भुनाए और भुलाए जा चुके हैं।

बिहारी मतदाताओं के लिए यह सिलसिला गम और गुस्से का सबब बन चुका है। 28 अक्तूबर को पहले दौर के मतदान के दौरान जब विभिन्न समाचार माध्यमों के संवाददाताओं ने मतदाताओं की नब्ज जानने की कोशिश की, तो तीन शब्द अधिकांश लोगों के मुंह से निकले - नौकरी, राशन और विकास। यानी मतदाता बेरोजगारी और बदहाली से तंग आ चुके हैं। दुर्भाग्य से यह हाल अकेले बिहार का नहीं है। पिछले महीने जारी हुए आंकड़ों में राजस्थान और हरियाणा उससे भी आगे पाए गए। अपनी हीरक जयंती की ओर बढ़ते भारत को दम-खम बनाए रखने के लिए जो दाना-पानी चाहिए, उसकी कमी साफ तौर पर नजर आती है। इन हादसाखेज हालात के लिए कौन जिम्मेदार है?

अब 10 नवंबर को साबित होगा कि यह मुद्दा चुनाव पर कितना और कैसा असर डाल सका। कौन जीतेगा, यह भविष्यवाणी करना पत्रकारों का काम नहीं है, पर एक बात तय है कि आने वाले दिनों में बदहाली और बेरोजगारी का मुद्दा राजनेताओं का पीछा करता रहेगा। हो सकता है, अगले साल के पूर्वाद्धर् में असम, केरल, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु आदि राज्यों में होने वाले चुनाव इसकी मुनादी करते नजर आएं। अगर ऐसा होता है, तो यह लोकतंत्र के लिए बेहद शुभ संकेत होगा। मतदाताओं के मौन ने ही राजनेताओं को निरंकुश बनाया है। उनकी मुखरता उन्हें उनके अहंकार से बाहर निकालेगी। वे जनहित के काम करने और अपने वायदों का हिसाब देने के लिए बाध्य होंगे।

कृपया याद करें। बिहार की धरती से ही संसार में सबसे पहले लोकतंत्र की कोपलें फूटी थीं। यदि अक्तूबर-नवंबर, 2020 का चुनाव यह संदेश अपने पीछे छोड़ जाए कि अब नेताओं के निरर्थक वायदे नहीं, बल्कि सार्थक काम चुनाव का रुख तय करेंगे, तो इससे बेहतर भला क्या हो सकता है? यह संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे अच्छा जनतंत्र बनने की शुरुआत भी होगी।

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