सम्पादकीय

सुनहरी धरोहर की स्मृति धौलावीरा-1 : देश का वह तीर्थ जिसकी स्मृतियों को हमें दुनिया याद दिला रही है..!

Gulabi
5 Aug 2021 4:37 PM GMT
सुनहरी धरोहर की स्मृति धौलावीरा-1 : देश का वह तीर्थ जिसकी स्मृतियों को हमें दुनिया याद दिला रही है..!
x
सुनहरी धरोहर की स्मृति धौलावीरा

उस दिन कई लोग आपस में फ़ोन करके पूछ रहे थे- "यह धौलावीरा क्या बला है?" विश्व विरासत की सूची में। हिन्दुस्तान का चालीसवां स्मारक। यक़ीन मानिए,उस दिन तक हज़ारों पढ़े- लिखे लोगों ने धौलावीरा का नाम तक नहीं सुना था। जब पता लगा कि खुदाई में सिंधु सभ्यता की कड़ी में एक और सशक्त दस्तावेज़ मिला है तो फिर ख़ामोश और उदासीन हो गए। कुछ ऐसी प्रतिक्रिया, मानों कह रहे हों - "क्या खुदाई उदाई की बात करते हो, इसमें क्या बड़ी बात है।"



हमारे गांव में भी एक मकान की नींव खोदने पर एक मूर्ति निकल आई थी।हमने मंदिर में रख दी- यही है हमारे समाज की अपनी विरासतों के प्रति संवेदनशीलता। पुरातात्विक धरोहरों के प्रति इतनी उपेक्षा शायद ही किसी और मुल्क़ में हो। दरअसल, इस निष्कर्ष के साथ कोई बात शुरू करना लोगों को अटपटा लग सकता है,लेकिन यह सच है।

हम हिन्दुस्तानियों की ज़िंदगी में धौलावीरा जैसे तीर्थ कोई ख़ास अहमियत नहीं रखते। संसार भर में धौलावीरा को प्रतिष्ठा मिल रही है और हिंदुस्तान में पूछा जाता है कि यह क्या बला है ? फिर भी धौलावीरा के बारे में आज जानना हमारे गर्वबोध को ही बढ़ाएगा। दरअसल धौलावीरा का महत्त्व समझने के लिए उससे पहले के कुछ क़िस्से जानना ज़रूरी है ।
भारतीय पुरातत्वविद उपेक्षित
हम सभी भारतीय सिंधु घाटी की सभ्यता से ही अपने इतिहास को पढ़ते आए हैं। इस बात को अभी सौ बरस भी नहीं हुए हैं,जब दुनिया के नक़्शे पर 1924 में इस सभ्यता ने अपनी धमाकेदार हाज़िरी लगाईं थी। उस समय हिंदुस्तान का बंटवारा नहीं हुआ था और सिंधु नदी के किनारे मोहेंजोदड़ो (याने मुर्दों का टीला) के आसपास अंगरेज़ अफ़सर जॉन मार्शल तथा भारतीय पुरातत्वविद राखाल दास बनर्जी ,पंडित माधो स्वरुप वत्स ने खुदाई अभियान चलाया। हालांकि दो बरस पहले राखाल दास बनर्जी 1922 में एक बौद्ध स्तूप की खुदाई कर रहे थे तो उनके हाथ मोहेंजोदड़ो का यह ख़ज़ाना हाथ लगा था। उन्हें कुछ मुद्राएं हाथ लगी थीं। लेकिन उनकी रिपोर्ट जैसे ठन्डे बस्ते में डाल दी गई।

दरअसल, अंगरेज़ इसका श्रेय ख़ुद लेना चाहते थे। भारतीय और गोरे जानकारों के बीच यह रस्साकशी तो अठारहवीं शताब्दी में ही शुरू हो गई थी। उस सदी में रामकृष्ण गोपाल भंडारकर,राजेंद्र लाल मित्रा, भगवानलाल इन्द्रजी जैसे अनेक इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता रहे ,जिन्होंने गोरे इतिहासकारों के निष्कर्षों को उस समय चुनौतियां दीं, जब कोई सोच भी नहीं सकता था।

एक तरह से कहा जाए तो हम मान सकते हैं कि भारतीय ज्ञान की मुख्य धारा में अंगरेज़ गोते लगाकर श्रेय लूटते रहे और भारतीय विद्वान उपेक्षित रहे। भारतीय पुरातत्व में हिन्दुस्तानियों ने शानदार दस्तक तो बहुत पहले दे दी थी। लेकिन ग़ुलामी के दिन थे। परदेसी शासक उनकी उपलब्धियों को बौना करके देखते थे और अपने आधे अधूरे तथ्यों को भी संपूर्ण ज्ञान का लेबल लगाकर बेचते थे। यह द्वंद्व आज़ादी से पहले तक चलता रहा।

बहरहाल, जब मोहेंजोदड़ो के निष्कर्ष सामने आए तो विश्व भर में तहलका मच गया। यह साबित हुआ कि हिन्दुस्तान की सभ्यता प्राचीनतम है।इससे पहले मिस्त्र ,मेसोपोटामिया ,यूनान,चीन ,बेबीलोन और रोम की सभ्यताओं को ही मान्यता मिली थी। सिंधु सभ्यता उन सबसे जेठी निकली। लिहाज़ा सारे जगत में इस सभ्यता की धूम मच गई।
भारतीय समाज की श्रेष्ठता
सिंधु सभ्यता की ख़ास बात यह थी कि हिन्दुस्तान ने अपनी सामाजिक परंपराओं और रहन-सहन को हज़ारों साल बाद भी सुरक्षित रखा था और वह कुछ बदलावों को छोड़कर उसी तरह रहता था। अंगरेज़ इतिहासकार ए.एल. बाशम अपने ग्रन्थ द वंडर दैट वाज़ इंडिया में लिखते हैं-
मिस्त्र ,मेसोपोटामिया और यूनान की सभ्यताओं से वहां का वर्तमान समाज पूरी तरह कटा हुआ है मगर भारत ने आज भी अपने वैदिक और पौराणिक ज्ञान को सुरक्षित रखा है। चूंकि अंगरेजों ने सत्ता के सारे सूत्र अपने हाथ में ले रखे थे इसलिए बाद का इतिहास भी कमोबेश उनको श्रेय देते हुए बढ़ता है। पर मेरी कोशिश होगी कि भारतीय विद्वानों की अनदेखी नहीं हो।

इसके मुताबिक़ 1783 में विलियम जोन्स ने इस सिलसिले की शुरुआत की। वे कलकत्ता उच्च न्यायालय में न्यायाधीश थे। वे हिन्दुस्तानी संस्कृति से वाकई प्रभावित थे। उन्होंने हिन्दुस्तान आकर हिंदी,संस्कृत,अरबी,फ़ारसी ,तुर्की और हिब्रू जैसी एक भाषाओँ का ज्ञान प्राप्त किया। जोन्स ने ही 1784 में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की। उनके ही प्रयास थे ,जिस कारण यूरोप में संस्कृत के ग्रंथों में दिलचस्पी बढ़ी। एशियाटिक सोसायटी से बाद में एक नौजवान अफसर जेम्स प्रिंसेप जुड़ा। वह सोसायटी का सचिव था और कलकत्ता की टकसाल का प्रभारी था। उसने पहली बार ब्राह्मी लिपि का अध्ययन किया और सम्राट अशोक के शिलालेख पढ़ने में क़ामयाबी पाई।

इसी जेम्स प्रिंसेप की टीम में एलेक्ज़ेंडर कनिंघम थे ,जिन्हें भारतीय पुरातत्व का जन्मदाता मान लिया गया। जब अंगरेज़ हुकूमत ने 1862 में याने कोई एक सौ उनसठ साल पहले भारत के पहले पुरातत्व निरीक्षक का पद बनाया तो उस पर एलेक्ज़ेंडर कनिंघम नियुक्त हुए। यहां से भारतीय पुरातत्व का विधिवत सफ़र शुरू होता है। कनिंघम के कार्यकाल में प्राचीन इमारतों को पढ़ा गया ,शिलालेखों का अनुवाद हुआ और हिन्दुस्तान में पुरातात्विक खुदाई का आग़ाज़ हुआ।

जब कर्ज़न वाईसरॉय बने तो 1901 से पुरातत्व खोज में कुछ सुधार और विस्तार हुआ। उन्होंने ही विभाग के प्रधान संचालक के पद पर जॉन मार्शल को नियुक्त किया। इन्हीं मार्शल महोदय ने माधोस्वरूप वत्स की मदद से सिंधु सभ्यता को दुनिया के सामने प्रस्तुत किया। राखाल दास बनर्जी का योगदान हाशिए पर चला गया।

सिंधु सभ्यता के केंद्र मोहेंजोदड़ो से 1922 में आर डी बनर्जी ने कुछ मुद्राएं प्राप्त कीं। खुदाई चलती रही। अवशेष मिलते रहे। लगभग इसी समय कनिंघम ने हड़प्पा में भी कुछ मुद्राएं हासिल कीं। अब इन दोनों के बीच के संबंध और ज़मीन में दबी सभ्यता के मिल रहे अवशेषों का अध्ययन कर निष्कर्षों पर काम करना बाक़ी था। ( जारी )

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।

Next Story