सम्पादकीय

प्रखर राष्ट्रचिंतक वीर सावरकर की स्मृतियां लंबे समय से हमारे राष्ट्रजीवन को उनके त्यागपूर्ण जीवन की याद दिलाती रहेंगीं

Gulabi
28 May 2021 7:18 AM GMT
प्रखर राष्ट्रचिंतक वीर सावरकर की स्मृतियां लंबे समय से हमारे राष्ट्रजीवन को उनके त्यागपूर्ण जीवन की याद दिलाती रहेंगीं
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प्रखर राष्ट्रचिंतक वीर सावरकर की स्मृतियां

प्रो. संजय द्विवेदी। Veer Savarkar Jayanti 2021 विनायक दामोदर सावरकर की पूरी जिंदगी रचना, सृजन और संघर्ष का उदाहरण है। आजादी के आंदोलन के वे अप्रतिम नायक हैं। उनकी प्रतिभा के इतने कोण हैं कि किसी एक पक्ष का भी अभी ठीक से मूल्यांकन होना शेष है। वे क्रांतिकारी, सामाजिक चिंतक, समाज सुधारक, इतिहासकार, उपन्यासकार, कवि, राजनेता एवं संगठनकर्ता थे। सावरकर भारतीय स्वातंत्र्य समर के प्रथम क्रांतिकारी हैं जिन्हें दो बार काला पानी की सजा सुनाई गई। सावरकर पर अंग्रेज अफसर की हत्या की साजिश रचने और भारत में क्रांति की पुस्तकें भेजने के दो अभियोगों में 25-25 वर्ष यानी कुल 50 वर्ष की सजा सुनाई गई थी। वर्ष 1911 में उन्हें अंडमान निकोबार की सेलुलर जेल में भेज दिया गया। इसी जेल में उनके बड़े भाई गणेश भी थे, किंतु दो साल तक दोनों भाई आपस में मिल भी नहीं सके।

उनके व्यक्तित्व का गलत आकलन और उनकी मृत्यु के इतने वर्षों बाद भी उनका उपहास उड़ाने वालों की एक लंबी सूची है। किंतु काला पानी की भयावह सजा का अनुमान उनके आलोचकों को नहीं है। यदि होता तो वे वीर सावरकर की पूजा करते, आलोचना नहीं। काला पानी की विभीषिका, यातना और त्रासदी किसी नरक से कम नहीं है। सावरकर ने न सिर्फ इसे भोगा, बल्कि उन्होंने इस अनुभव से 'काला पानी' नामक एक उपन्यास भी लिखा। यह उपन्यास अंडमान की जेल में बंद सश्रम कारावास काट रहे बंदियों पर हो रहे अत्याचारों और क्रूरतापूर्ण व्यवहार के बारे में त्रासद वर्णन करता है।
वीर सावरकर का जन्म आज ही के दिन यानी 28 मई को 1883 में महाराष्ट्र के नासिक जिले के ग्राम भगूर में हुआ था। बीए पास करने के बाद वह वर्ष 1906 में इंग्लैंड चले गए और लंदन के इंडिया हाउस में रहते हुए क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ लेखन कार्य में जुट गए। इंडिया हाउस उन दिनों राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र था जिसे पंडित श्यामजी चला रहे थे। सावरकर ने 'फ्री इंडिया' सोसाइटी का निर्माण किया जिससे वह भारतीय छात्रों को स्वतंत्रता के लिए लड़ने को प्रेरित करते थे। उनकी एक लेखक के तौर पर यहीं से पहचान बननी प्रारंभ हुई। वर्ष 1907 में '1857 का स्वातंत्र्य समर' नामक पुस्तक लिखनी प्रारंभ की। उनके मन में आजादी की अलख जल रही थी। अपने जीवनकाल में संघर्षों के बाद भी उन्होंने विपुल लेखन किया।
गांधीजी की हत्या के बाद नाथूराम गोडसे के अलावा सावरकर को भी गिरफ्तार किया गया था, क्योंकि गोडसे भी हिंदू महासभा का कार्यकर्ता था जिसके सावरकर 1943 तक अध्यक्ष रह चुके थे। हत्या की साजिश में शामिल होने का उन पर भी आरोप लगाया गया। हालांकि नाथूराम गोडसे ने हत्या की योजना के लिए खुद को ही जिम्मेदार बताया। बाद में आरोप मुक्त करते हुए सावरकर को रिहा कर दिया गया। तमाम उपलब्धियों के बावजूद जब सावरकर का नाम महात्मा गांधी की हत्या के आरोप से जुड़ गया, तो सावरकर की छवि को भी धूमिल करने का निरंतर प्रयास किया गया। देखा जाए तो सावरकर अकेले ऐसे नहीं हैं जिन्हें इतिहास में उपेक्षा मिली। ऐसे अनेक क्रांतिवीर हैं जो अंग्रेजों से लड़े, किंतु स्वतंत्र भारत की बदली राजनीति ने उन्हें अप्रासंगिक कर दिया। बावजूद इसके इससे सावरकर का संघर्ष और त्याग कहीं से कम नहीं होता। कई बार उनकी भगत सिंह से तुलना की जाती है कि आखिर भगत सिंह ने माफी क्यों नहीं मांगी। सावरकर अपने माफीनामे को रणनीति की तरह इस्तेमाल करते हैं। वे शायद यह मानते रहे होंगे कि यहां से निकलकर वे देश के लिए कुछ कर पाएं।
हिंदुत्व की विचारधारा के विरोधी जनों ने उनके स्वतंत्रता संग्राम में योगदान को भी लांछित करना प्रारंभ किया, ताकि उन्हें अंग्रेजों का पिट्ठू बताकर हिंदुत्व को भी लांछित किया जा सके। निशाने पर दरअसल सावरकर नहीं, हिंदुत्व का विचार है। सावरकर की सारी तपस्या पर पानी फेरने के यह जतन तब किए जा रहे हैं, जब महात्मा गांधी भी उन्हें 'वीर' कहकर संबोधित करते थे। सरदार भगत सिंह भी सावरकर को 'आदर्श' के रूप में देखते थे। 'मतवाला' के नवंबर 1924 के एक अंक में भगत सिंह का लेख बलवंत सिंह के छद्म नाम से छपा है। 'विश्व प्रेम' शीर्षक से छपे इस लेख में भगत सिंह लिखते हैं, 'विश्व प्रेमी वह वीर है जिसे भीषण विप्लववादी, कट्टर अराजकतावादी कहने में हम लोग तनिक भी लज्जा नहीं समझते- वही वीर सावरकर। विश्व प्रेम की तरंग में आकर घास पर चलते-चलते रुक जाते कि कोमल घास पैरों तले मसली जाएगी।' हालांकि वर्ष 1966 में इंदिरा गांधी ने सावरकर के बलिदान, देशभक्ति और साहस को प्रणाम करते हुए अपनी श्रद्धांजलि र्अिपत की थी। वर्ष 1970 में इंदिरा सरकार ने सावरकर के सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया था।
इतिहास में वह पत्र भी दर्ज है जो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सावरकर राष्ट्रीय स्मारक को लिखा था। 20 मई 1980 को श्रीमती इंदिरा गांधी ने स्मारक के सचिव को लिखे पत्र में कहा था, 'मुझे आपका आठ मई 1980 को भेजा पत्र मिला। वीर सावरकर का अंग्रेजी हुक्मरानों का खुलेआम विरोध करना भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में एक अलग और अहम स्थान रखता है। मेरी शुभकामनाएं स्वीकार करें और भारत माता के इस महान सपूत की 100वीं जयंती के उत्सव को योजनानुसार पूरी भव्यता के साथ मनाएं।' ऐसे प्रखर राष्ट्रचिंतक वीर सावरकर की स्मृतियां लंबे समय से हमारे राष्ट्रजीवन को उनके त्यागपूर्ण जीवन की याद दिलाती रहेंगीं।
[महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली]


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