सम्पादकीय

ऐसी भीड़ के मायने

Triveni
13 April 2021 12:45 AM GMT
ऐसी भीड़ के मायने
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कोरोना जब विकराल रूप धारण करता जा रहा है

कोरोना जब विकराल रूप धारण करता जा रहा है, जब शारीरिक दूरी जीवन की एक शर्त है, तब कुंभ में तीस लाख से अधिक लोगों ने सोमवार को स्नान किया है। न केवल दुख, बल्कि चिंता होती है कि कोरोना दिशा-निर्देशों के बारे में वहां लोग क्या सोच रहे हैं? उच्च न्यायालय ने कोरोना जांच के बाद ही लोगों को मेला क्षेत्र में जाने देने का आदेश दिया था, लेकिन क्या प्रशासन के पास ऐसी क्षमता है कि वह तीस लाख से ज्यादा लोगों की कोरोना जांच कर सके? सोमवार को कुंभ में एक महत्वपूर्ण शाही स्नान था, तो साधुओं और नागाओं की घार्मिक भावना समझ में आती है और उन पर प्रशासन ने फूल भी बरसा दिए हैं, लेकिन आम लोगों को लाखों की संख्या में क्यों जाने दिया गया? कोरोना फैलने की स्थिति में आखिर कौन अपनी जिम्मेदारी मानेगा, ज्यादातर सरकारों और प्रशासन को ही कोसा जाएगा? प्रशासन और सरकार की जमकर आलोचना हो रही है, तो इसे भला कौन गलत कह सकता है? क्या प्रशासन ऐसी भीड़ के लिए तैयार बैठा था, अब वह उच्च न्यायालय में क्या जवाब देगा? कोरोना को भूलकर श्रद्धा ऐसी उमड़ी कि नियम तार-तार हो गए और कुंभ मेला क्षेत्र के आईजी को कहना पड़ा, 'हम लोगों से लगातार कोविड नियमों के पालन का आग्रह कर रहे हैं, लेकिन भारी भीड़ के कारण यह व्यावहारिक रूप से असंभव है। यहां घाट पर सामाजिक दूरी जैसे नियम का पालन करा पाना नामुमकिन है। अगर हमने ऐसा कराने की कोशिश की, तो भगदड़ जैसी स्थिति पैदा हो सकती है।' कोरोना की शुरुआत में तबलीगी जमात की ख्ूाब आलोचना हुई थी, ठीक वैसी ही आलोचना अब हो रही है, तो आश्चर्य नहीं। भारत में सदियों से चले आ रहे कुंभ का आयोजन कभी भी आसान नहीं था। हरिद्वार में 1915 में भी कुंभ मेला लगा था, जिसमें गांधी जी भी शामिल हुए थे और उन्होंने अपना पूरा ध्यान वहां साफ-सफाई करने, व्यवस्थाएं ठीक करने पर लगा दिया था। उन्होंने सत्य के प्रयोग में लिखा है, 'कुंभ का दिन आया। मेरे लिए वह धन्य घड़ी थी। मैं यात्रा की भावना से हरिद्वार नहीं गया था। तीर्थक्षेत्र में पवित्रता की शोध में भटकने का मोह मुझे कभी नहीं रहा। किंतु 17 लाख लोग पाखंडी नहीं हो सकते थे। कहा गया था कि मेले में 17 लाख लोग आए होंगे। इनमें असंख्य लोग पुण्य कमाने के लिए, शुद्धि प्राप्त करने के लिए आए थे, इसमें मुझे कोई शंका न थी। यह कहना असंभव नहीं, तो कठिन अवश्य है कि इस प्रकार की श्रद्धा आत्मा को किस हद तक ऊपर उठाती होगी।' गांधी जी की 106 साल पुरानी इस अभिव्यक्ति में कई प्रश्न हैं, जो आज भी कुंभ क्षेत्र में भटक रहे हैं। हमें जवाब खोजना चाहिए। यह खुद को परखने का वक्त है। हर समाज की बुनियादी मजबूती लोगों के साथ समान व्यवहार पर टिकी होती है। ऐसा हो नहीं सकता कि कहीं एक मोटरकार के भीतर मास्क न लगाने वाले व्यक्ति को जुर्माना भरना पड़े और कहीं कुंभ या चुनावी रैली में जुटे हजारों-लाखों लोगों से कोई सवाल भी न करे। यह सफलतापूर्वक भीड़ जुटा लेने और अपने प्रबंधन की पीठ थपथपा देने का समय नहीं है, यह समय है, जब भीड़ से बचा जाए और कोई खतरा मोल न लिया जाए। शायद आज के समय अपनी और सबकी जान व जीविका बचा लेना ही सबसे बड़ा पुण्य है।



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