सम्पादकीय

समस्याओं से जूझती विवाह संस्था, शादी को लेकर युवा पीढ़ी का घटता मोह चिंताजनक

Rani Sahu
9 Sep 2022 4:22 PM GMT
समस्याओं से जूझती विवाह संस्था, शादी को लेकर युवा पीढ़ी का घटता मोह चिंताजनक
x
सोर्स- Jagran
डा. ऋतु सारस्वत : बीते दिनों केरल उच्च न्यायालय की इस टिप्पणी ने सारे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा कि 'नई पीढ़ी विवाह को बुराई के रूप में देखती है और आनंद से जीने के लिए इससे बचना चाहती है। लिव इन रिलेशनशिप का चलन बढ़ रहा है।' यह समाज के लिए चिंता का विषय है। उच्च न्यायालय ने इस चलन को वैवाहिक संबंधों के मामले में 'यूज एंड थ्रो' वाली संस्कृति की संज्ञा दी। उसने विवाह के प्रति युवा पीढ़ी के घटते मोह पर भी अपनी चिंता प्रकट की। यह चिंता स्वाभाविक भी है, क्योंकि विवाह संस्था पर ही समाज की आधार भूमि खड़ी है। अगर यह प्रभावित होगी तो स्वाभाविक रूप से इसका प्रभाव सामाजिक संरचना पर भी पड़ेगा।
विवाह संबंधों के बिखराव पर अमूमन पश्चिमी संस्कृति को दोष देने की मानसिकता दृष्टिगोचर होती है, परंतु क्या पश्चिमी देशों को उलाहना देने मात्र से भारत में बिखरते वैवाहिक संबंधों की समस्या से मुक्ति मिल सकती है? अगर ऐसा होता तो यह समस्या इतनी तीव्रता से भारतीय समाज को नहीं जकड़ती। इसलिए यह आवश्यक है कि हम यह जानने का प्रयास करें कि क्यों युवा पीढ़ी को विवाह रास नहीं आ रहा? वह क्यों उन्मुक्त जीवन जीना चाह रही है?
रक्तसंबंधों के अतिरिक्त वे रिश्ते जिनका चुनाव स्वयं करना होता है, उसके पीछे मुख्यतः 'आवश्यकता' का सिद्धांत कार्य करता है। विवाह सदैव भावनात्मक एवं मानसिक संबलता का पर्याय माना जाता रहा है। वैवाहिक संबंधों की सबसे बड़ी खूबसूरती अंतर्निर्भरता है, जो उसके स्थायित्व का मूलभूत तत्व भी है। दंपती अपनी दैहिक, भावनात्मक एवं भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं, परंतु दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तब उत्पन्न हुई, जब ये आवश्यकताएं वैवाहिक संबंधों की परिधि से बाहर प्राप्त होने लगीं। यहीं से विवाह की आवश्यकता को नकारा जाने लगा और विवाह उत्तरदायित्वों का अंतहीन बोझ प्रतीत होने लगा।
जो युवा येन-केन प्रकारेण विवाह संबंधों में बंध भी गए, उनमें से कुछ को यह निर्णय गलत प्रतीत होता है और इसका एक बहुत बड़ा कारण स्व-श्रेष्ठता का भाव है। यह स्त्री और पुरुष दोनों में ही समान रूप से व्याप्त होता दिखता है। स्वयं की विचारधारा, मूल्यों और जीवन जीने के तरीकों को श्रेष्ठ मानते हुए अपने साथी के प्रति हीन भाव रखना या उसे अपने मनोनुकूल जीवन जीने के लिए विवश करना संघर्षपूर्ण पारिवारिक रिश्ते का आरंभ है। 'एंथ्रोपोमोर्फिज्म सिद्धांत' वैवाहिक संबंधों में बिखराव को समझने में सहायक है। यह सिद्धांत ऐसे व्यक्ति या लोगों को संदर्भित करता है, जो स्वयं के मूल्यों के आधार पर दूसरों का मूल्यांकन करते हैं। यह स्थिति आत्मकेंद्रितता की अभिव्यक्ति है और दूसरों के साथ लोगों के संबंधों को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। इस संदर्भ में एमजे कामेली का शोध स्पष्ट इंगित करता है कि 'स्वार्थ का बढ़ना और दांपत्य जीवन में दूसरे व्यक्ति की इच्छाओं और आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं देना परिवार के टूटने का एक बड़ा कारण है।'
विवाह संबंधों के स्थायित्व में सबसे महत्वपूर्ण घटक एक-दूसरे की भावनाओं को समझना है और इसका महत्वपूर्ण साधन सकारात्मक संप्रेषण यानी वार्तालाप है, परंतु अपनी अंतहीन भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के पीछे भागती युवा पीढ़ी उस संप्रेषण को समय की बर्बादी समझती है, जिसकी परिणति 'अविश्वास' और 'भावनात्मक अलगाव' है। एक अन्य शोध के अनुसार दंपतियों के मध्य नकारात्मक संवाद या उसका अभाव संबंध विच्छेद का एक बड़ा कारण है। दो अलग पारिवारिक पृष्ठभूमि से आए लोगों के मध्य विचारों का टकराव स्वाभाविक है, परंतु बीते दशकों में वैवाहिक समस्याओं को हल करने का तलाक के एक स्वीकृत विकल्प के रूप में उभरना समझौते के हर रास्ते को बंद कर रहा है।
युवा पीढ़ी को कठघरे में खड़ा करना सहज है, परंतु क्या कभी यह विचार करने का प्रयास किया गया कि मानव मशीनीकृत निर्माण प्रक्रिया की उत्पत्ति नहीं, अपितु हाड़-मांस के पिंड को सामाजिक प्राणी बनाने की प्रक्रिया है, जिसमें समाजीकरण की विभिन्न संस्थाओं की भागीदारी होती है। क्या ऐसे में यह जरूरी नहीं हो जाता कि समाजीकरण की इन संस्थाओं की भूमिकाओं का आकलन किया जाए? समाजीकरण की प्रथम संस्था परिवार है, जहां व्यक्तित्व निर्माण की आधारशिला रखी जाती है।
बीते दो-तीन दशकों में सफलता की परिभाषा भौतिक सुखों की प्राप्ति तक सीमित होकर रह गई है। इसी सफलता को जीवन का अंततोगत्वा उद्देश्य मानने की सीख बाल्यकाल से ही बच्चे के भीतर रोप दी जाती है। सफलता के लिए गुरु मंत्र दिया जाता है 'साम, दाम, दंड, भेद' की नीति का पालन करना। मानवता, दयालुता और धैर्य जैसे मूल्य कमजोर हो रहे हैं। आर्थिक एवं राजनीतिक संस्थाएं भी अपनी व्यवस्थागत कार्यप्रणाली से किशोरावस्था से युवावस्था की ओर अग्रसर पीढ़ी को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से यही पाठ सिखा रही हैं। इन पर सबसे बड़ा कुठाराघात समाजीकरण के सशक्त माध्यम 'जनसंचार साधनों' ने किया, जहां 'उन्मुक्तता' को ऐसे महिमामंडित किया गया कि उसके समक्ष नैतिकता, समर्पण, त्याग, दायित्व-बोध जैसे मूल्य पिछड़ेपन के प्रतीक बन गए हैं।
सफलता एवं आधुनिकता की छद्म परिभाषा के इर्द-गिर्द वर्तमान युवा पीढ़ी को जिन संस्थाओं ने गढ़ा है क्या वे उनसे अधिक दोषी नहीं हैं? वे आत्ममंथन करें? यदि नहीं किया गया तो अदालती टिप्पणी सत्य सिद्ध होगी, 'जब संघर्षरत जोड़े, परित्यक्त बच्चे और हताश तलाकशुदा हमारी आबादी का बड़ा हिस्सा होंगे तो यह सामाजिक जीवन की शांति पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा।'
Rani Sahu

Rani Sahu

    Next Story