सम्पादकीय

विश्व सिनेमा की जादुई दुनिया: ब्रिटिश सिनेमा में मिल जाएंगी दुनिया की चुनिंदा बेहतरीन फिल्में, क्या आपने देखी?

Neha Dani
10 Sep 2022 1:41 AM GMT
विश्व सिनेमा की जादुई दुनिया: ब्रिटिश सिनेमा में मिल जाएंगी दुनिया की चुनिंदा बेहतरीन फिल्में, क्या आपने देखी?
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आप कुछ अच्छी ब्रिटिश फ़िल्मों से अपना मनोरंजन अवश्य करें।

जब हम इंग्लिश फिल्मों की बात करते हैं तो ज्यादातर हमारे मन में हॉलीवुड की फिल्में ही होती हैं, हॉलीवुड माने अमेरिकन फिल्में। अगर मैं इन फिल्मों– 'द ब्रिज ऑन द रिवर क्वाई', 'ओर्लेंडो', 'द लेडी वेनिशेस', 'ग्रेट एक्स्पेक्टेशन्स', 'डॉक्टर जिवागो', 'सेंस एंड सेंसिबिलिटी' के नाम लूं तो आप तत्काल कहेंगे कि ये इंग्लिश में बनी फिल्में हैं।




अगर फिर पूछूं किस देश में बनी फिल्में हैं तो शायद सब लोग सही उत्तर नहीं दे पाएंगे। असल में अंग्रेजी भाषा में अमेरिका के अलावा भी कई देशों में फिल्में बनती हैं। वे तकरीबन हर उस देश में बनती हैं जो कभी ब्रिटिश उपनिवेश था। इसी नाते भारत में भी इंग्लिश भाषा में फ़िल्में बनती हैं। अपर्णा सेन की '36 चौरंगी लेन', प्रदीप कृष्ण की 'इन व्हिच एनी गिव्स इट दोस वन्स', 'इलैक्ट्रिक मून', देव बेनेगल की 'इंग्लिश, अगस्ट', मिलिंद सोमन की 'ए माउथफ़ुल ऑफ़ स्काई' ऐसी ही कुछ फ़िल्में हैं।


ऊपर जिन फ़िल्मों का नाम लिखा है वे न तो भारत में बनी हैं और न ही अमेरिका में। वे अंग्रेजी भाषा के मूल देश ब्रिटेन में बनी फ़िल्में हैं। 'गांधी' फिल्म जिसके हम सब प्रशंसक हैं वह भारत के विषय में होते हुए भी बनी ब्रिटेन में है। अगर हम ब्रिटेन की सिनेमा इतिहास को देखें तो यहां भी प्रारंभ में मूक फिल्में बनीं।
एक सूत्र के अनुसार दुनिया की पहली चलती-फ़िरती तस्वीर लुई ले प्रिंस ने 1888 में लीड्स में ली थी और पहली मूविंग पिक्चर लंदन के हाइड पार्क में 1889 में सेल्युलाइड डेवलप हुई थी और इसका अन्वेषक विलियम फ़्रेसे ग्रीन था जिसने 1890 में इसका पेटेंट भी करा लिया था।


यूरोप का इतिहास प्रथम विश्वयुद्ध के पहले और बाद में बिल्कुल भिन्न है। ब्रिटेन का इतिहास भी, ब्रिटेन का फिल्म इतिहास भी। 1900 तथा 1914 के बीच ब्रिट्रिश सिनेमा तेजी से फ़ला-फ़ूला। पहले जहां फ़िल्म चर्च या म्युजिक हाल में दिखाई जा रही थी, अब उसके लिए जगह-जगह विशेष थियेटर हाल बने। वहां के फिल्म निर्माताओं तथा निर्देशकों ने ब्रिटेन फिल्म इंडस्ट्री का निर्माण किया उसे खूब मजबूत बनाया। बीसवीं सदी के प्रथम दशक में लंदन और इसके आस-पास करीब 30 फिल्म स्टूडियो स्थापित हुए।

फिल्मों में बढ़ने लगा निवेश

लोग इस उद्योग में रकम निवेश करने लगे। फिल्म के बढ़ते क्रेज ने साहित्य के लिए खतरा पैदा कर दिया। कुछ लोगों को लगने लगा कि अब साहित्य के दिन लद गए, क्योंकि सिनेमा में नए पन के कारण लोगों पर उसका प्रभाव था, वह लोगों को आकर्षित कर रहा था। लोग समय बिताने और मनोरंजन के लिए सिनेमा की ओर जा रहे थे।

डर था कहीं लोगों की पढ़ने की आदत छूट न जाए। सिनेमा ब्रिटेन की संस्कृति में प्रमुखता से हस्तक्षेप कर रहा था। प्रेस भी इसे प्रमुखता से स्थान दे रहा था। इस समय ब्रिटेन की सिनेमा में कॉमेडी की बहुलता थी। 1916 तक फिल्मों को 'फोटो-प्ले' कहा जा रहा था। मगर जल्द ही यह सारा कुछ घटने लगा, अमेरिकी फिल्मों ने ब्रिटिश फिल्मों से बाजी मार ली। ब्रिटेन का दर्शक अपनी फिल्मों की अपेक्षा अमेरिकी फिल्में अधिक पसंद करने लगा। पहले ब्रिटेन में सालाना करीब 150 फिल्म बना रहे थे अब घट कर यह 40 फिल्म सालाना पहुंच गई। रही-सही कसर प्रथम विश्वयुद्ध ने पूरी कर दी।
ब्रिटिश सरकार को सिनेमा ने अच्छी आमदनी की अपेक्षा थी उसने 1816 में इस पर भी टिकट के मूल्य पर 25-50% मनोरंजन टैक्स लगा दिया। जल्द ही उसे इसका प्रतिशत कम करना पड़ा। 1927 में पारित एक्ट के कारण एक बार फिर से ब्रिटेन में फिल्म निर्माण ऊपर उठा। इसी समय वार्नर'स स्टूडियो, फॉक्स'स स्टूडियो की स्थापना हुई।

विश्व सिनेमा की जादुई दुनिया: ब्रिटिश सिनेमा में मिल जाएंगी दुनिया की चुनिंदा बेहतरीन फिल्में, क्या आपने देखी?

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटिश सिनेमा में साहित्याधारित फिल्मों की बहार थी। लॉरेंस ओलिविएर ने 'हेनरी फिफ्थ', 'हेमलेट', 'रिचर्ड थर्ड' (शेक्सपियर), डेविड लीन ने 'ग्रेट एक्स्पेक्टेशन्स', ओलिवर ट्विस्ट' (चार्ल्स डिकेंस) बनाई। कई और फ़िल्म निर्देशक भी अपनी फ़िल्म के लिए साहित्य का सहारा ले रहे थे। इसी समय लिंडसे एंडरसन (ओ ड्रीमलैंड), टोनी रिचर्डसन (मोमा डोन्ट अलाउ) जैसे निर्देशक कम बजट वाली डॉक्यूमेंट्री बना रहे थे।
ये नवयथार्थवादी शैली में तत्कालीन समाज को प्रस्तुत कर रहे थे। इसी समय ब्रिटेन के वर्ग-संघर्ष को दिखाता हुआ 'फ्री सिनेमा' जैसा सामाजिक आंदोलन चला। इसके तहत 'सटरडे नाइट एंड सनडे मोर्निंग' फिल्म बनी। 'एंग्री यंग मैन' ने अंतरराष्ट्रीय दर्शकों को आकर्षित किया। रिचर्डसन की 'ए टेस्ट ऑफ़ हनी', 'टॉम जोन्स' तथा 'द लोनलीनेस ऑफ द लोन्ग डिस्टेन्स रनर' तथा एंडरसेन की 'दिस स्पोर्टिंग लाइफ' को लोग आज भी याद/पसंद करते हैं।

अब ब्रिटेन दूसरे देशों से खूब फिल्में आयात कर रहा था। रोमन पोलांस्की की 'रिपल्सन' त्रूफ़ो की 'फ़ेरनहीय़ 451', स्टेनली क्यूब्रिक की '2001: ए स्पेस ओडिसी', 'ए क्लॉकवर्क ओरेंज' जैसी फ़िल्में ब्रिटिश दर्शकों को खूब भा रही थीं, लेकिन जल्द ही ब्रिटिश अर्थव्यवस्था में गिरावट आई और 1980 के दशक में यह सबसे अधिक निम्न स्तर पर पहुँच गई।

इसी समय ब्रिटेन के कई फ़िल्म निर्देशकों ने हॉलीवुड का रुख किया। ब्रिटेन फ़िल्म इंडस्ट्री को ऑस्ट्रेलिया से भी इसी काल में चुनौती मिलनी शुरू हुई, पर इसी समय टेलीविजन नेटवर्क के चैनल 4 की शुरुआत हुई और ब्रिटेन के सिनेमा को एक नया जीवन मिला। चैनल 4 के कारण 'ए रूम विद अ व्यू' (1986), 'द क्राइंग गेम' (1992), 'फ़ोर वेडिंग्स एंड ए फ़ुनरल' (1994), 'सिक्रेट्स एंड लाइज' (1996) तथा 'द फ़ुल मोन्टी' (1997) जैसी फ़िल्में दुनिया भर के दर्शकों तक पहुंचीं और सराही गईं।

माइक ली तथा केन लोच जो पहले टेलीविजन के लिए फ़िल्म बन रहे थे, इक्कीसवीं सदी में वे फ़िल्म निर्माण की ओर लौटे। माइक ली ने 1999 में 'टोप्सी-टर्वी', 2004 में 'वेरा ड्रैक', 2008 में 'हैप्पी-ग-लकी', 2010 में 'अनदर ईयर', 2014 में 'मिस्टर टर्नर तथा 2018 में 'पेटरलू' बनाई। इसी तरह केन लोच ने 2006 में 'द विंड दैट शेक्स द बार्ले', 2012 में 'द एंजेल्स' शेयर' तथा 2016 में 'आई, डैनियल ब्लैक' बनाई।

इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक तक ब्रिटेन में कई बहुत अच्छी फ़िल्में बनी हैं। '28 डेज लेटर', 'डन्किर्क', 'गॉड'स ओन कंट्री', 'डैनियल ब्लैक', 'सिंग स्ट्रीट', 'हंगर', 'स्नैच', 'इन दिस वर्ल्ड', 'लव, एक्चुअली', 'एटोनमेंट' ऐसी ही फ़िल्में हैं, यदि नहीं देखी हैं तो देख लें।

'ड्राकुला', 'गाँधी', 'सेंस एंड सेंसिबिलिटी', डॉ जिवागो', 'लॉरेंस ऑफ़ अरेबिया', 'फ़ोर वेडिंग्स एंड ए फ़ुनरल' तो आप देख चुके होंगे और हाँ, यदि 'द ब्रिज ऑन द रिवर क्वाई', 'मोन्टी पायथन एंड द होली ग्रेल' फ़िल्मों को यदि नहीं देखा है तो इन्हें झटपट देख लीजिए। आप कुछ अच्छी ब्रिटिश फ़िल्मों से अपना मनोरंजन अवश्य करें।


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सोर्स: अमर उजाला

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