सम्पादकीय

विश्व सिनेमा की जादुई दुनिया: फ्रांस के महान फ़िल्म निर्देशकों के सफर पर एक नजर

Neha Dani
17 Sep 2022 1:45 AM GMT
विश्व सिनेमा की जादुई दुनिया: फ्रांस के महान फ़िल्म निर्देशकों के सफर पर एक नजर
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फ्रांस में सिनेमा का प्रारंभ हुआ। अगर फ्रांस के प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशकों की बात करें तो सबसे ऊपर नाम आता है फ्रांसुआ त्रुफ़ो का। 1932 में जन्में त्रुफ़ो न केवल फ़िल्म निर्देशक थे वरन फ़िल्म लेखक, अभिनेता, समीक्षक तथा प्रोड्यूसर भी थे। प्रतिदिन 5-7 फ़िल्म देखने वाले त्रुफ़ो की मृत्यु 1984 में 21 अक्तूबर को ब्रेन ट्यूमर के कारण हुई। त्रुफ़ो का बचपन नानी के यहाँ बीता। बाद में उन्हें महान फ़िल्म समीक्षक आंद्रे बाजाँ और फ़िल्म संग्राहक हेनरी लेंगलुआ, दो संरक्षक मिले। त्रुफ़ो 'काइए न्यू सिनेमा' (सिनेमा की डायरी) के संपादक थे।




'सिनेमा जीवन से अधिक आवश्यक है' कहने वाले त्रुफ़ो फ़िल्म समीक्षा के साथ फ़िल्मे भी बनाने लगे। परीक्षण के लिए 1954 में उन्होंने लघु फ़िल्म बनाई। 1957 में उन्होंने प्रमुख फ़िल्म डिस्ट्रिब्यूटर की बेटी मेडेलिन मोर्गेन्स्टेर्न से शादी की और इसी साल अपनी प्रोडक्शन कंपनी बनाई तथा 28 फ़िल्में बनाई। 16 फ़िल्मों में उन्होंने अभिनय भी किया।

एल्फ़्रेड हिचकॉक के प्रशंसक फ्रांसुआ त्रुफ़ो की फ़िल्मों के कथानक जुनून, औरत, बचपन तथा विश्वास होते हैं। 'फ़ोर हंड्रेड ब्लोज', 'ले मिस्तो', 'द सॉफ़्ट स्किन', 'शूट द प्यानो प्लेयर', 'जूल्स एंड जिम', 'फ़ेरेनहीट 451', 'स्टोलेन किसेस' आदि उनकी कुछ प्रसिद्ध फ़िल्में हैं।


'फ़ोर हंड्रेड ब्लोज' के अंतिम दृश्य में कैमरे का फ़्रीज़ होना महज एक संयोग होते हुए भी सिनेमा की दुनिया का अविस्मरणीय दृश्य है, जिसका अध्ययन किया जाता है। इस फ़िल्म ने उन्हें कान फ़िल्म समारोह में सर्वोत्तम निर्देशक का पुरस्कार दिलाया। अपनी फ़िल्म 'ले मिस्तो' (नटखट बच्चे) को काट-छांट कर 26 मिनट से 17 मिनट का कर दिया, जिसमें पांच किशोर लड़के एक युवती का पीछा करते हैं, उसके प्रेम में बाधा डालने का प्रयास करते हैं। बाल मनोविज्ञान की यह फ़िल्म अवश्य देखनी चाहिए। 'सिटिजन केन' देख कर त्रुफ़ो ने कहा, पक्का है मैं किसी व्यक्ति को इतना प्रेम नहीं करता जितना इस फ़िल्म से करता हूँ।

फ्रांसीसी निर्देशकों में ज्याँ ल्युक गोदार्द का नाम बहुत ऊँचा है, अध्ययन-अध्यापन के लिए उनका प्रयोग किया जाता है लेकिन आम दर्शकों में वे बहुत लोकप्रिय नहीं हैं। 30 दिसम्बर 1930 को एक धनी फ़्रेंको-स्विस परिवार में जन्मे गोदार्द को अपने जुनून यानि फ़िल्म बनाने केलिए कई तरह के काम करने पड़े। 'मैं टाइमपास केलिए फ़िल्म बनाता हूँ' कहने वाले गोदार्द ने हैन्स लुकास छद्म नाम से लेखन किया।

गोदार्द ने 'ऑपरेशन कॉन्क्रीट', 'ऑल द ब्यॉज आर कॉल्ड पैट्रिक', 'शार्लट एंड हर ब्यॉफ़्रैंड', 'ए वूम इज ए वूमन' आदि छोटी-बड़ी मिला कर करीब 131 फ़िल्में बनाई जिनमें से कई कभी रिलीज नहीं हुई। उनकी फ़िल्म 'ब्रेथलेस' (एक छोटे-मोटे चोर की कहानी) को समीक्षकों का खूब ध्यान मिला तथा इसे कई पुरस्कार भी मिले। इसी फ़िल्म से 'जम्प-कटिंग' एवं 'इग्नोरिंग द 180 डिग्री लाइन' का प्रारंभ माना जाता है। उनका एक प्रसिद्ध वाक्य है-
फ्रांसीसी अभिनेता, स्क्रीनप्ले राइटर, निर्देशक ज्याँ रेनुआं से हिन्दी सिने-दर्शक भली-भाँति परिचित हैं। वही रेनुआं जिनकी फ़िल्म 'टोनी' से सत्यजित राय के अलावा कई फ़िल्म निर्देशक प्रेरित हुए। वे भारत आए और भारत पर 'द रिवर' नामक फ़िल्म बनाई। इसके अलावा 'द गोल्डेन कोच', 'द रूल्स ऑफ़ द गेम', 'ग्रैंड इल्युशन' उनकी अन्य फ़िल्में हैं।

फ्रांस के ही हैं रॉबर्ट ब्रेसन। ब्रेसन ने भी फ़िल्म लेखन तथा निर्देशन दोनों किया। 17 फ़िल्मों का लेखन करने वाले ब्रेसन ने 'फ़ोर नाइट्स ऑफ़ ए ड्रीमर', 'ए जेंटल वूमन', 'मुस्टैच', 'द ट्रायल ऑफ़ जॉन ऑफ़ आर्क', 'पिकपॉकेट', 'ए मैन स्केप्ड' जैसी तमाम फ़िल्में बनाई। इनकी निर्देशित फ़िल्म 'डायरी ऑफ़ ए कंट्री प्रीस्ट' खूब सराही गई। जॉर्ज बेर्नानोस के उपन्यास पर आधारित यह फ़िल्म पेट की रहस्यमयी बीमारी से ग्रसित एक युवा पादरी को अपनी ड्युटी निभाने का प्रयास करते हुई दिखाती है। समीक्षकों के द्वारा इसे खूब सराहा गया, इसे कई पुरस्कार प्राप्त हुए।

मशहूर निर्देशक लुइस माल

34 फ़िल्मों के निर्देशक लुइस माल ने सदा जिंदगी का अर्थ जानने और जिंदगी की खोज करने केलिए फ़िल्में बनाईं। फ्रांस के नोर्ड में जन्में माल का परिवार नहीं चाहता था कि वे फ़िल्म बनाएं, लेकिन बाद में उन्हें इसकी पढ़ाई की अनुमति दे दी। उन्होंने सिनेमाटोग्राफ़ी की शिक्षा ली। प्रारंभ में उन्होंने कैमरामैन का काम किया लेकिन शीघ्र को-डॉयरेक्टर और फ़िर डॉयरेक्टर बन गए। उन दिनों परदे पर प्रेमासक्ति दिखाना वर्जित था मगर माल ने 'द लवर्स' बना कर इस निषेध को समाप्त किया।
'एटलांटिक सिटी', 'क्राकर्स, एलेवेटर टू द गेलोस', 'माई डिनर विथ एंड्रे', 'द थीफ़ ऑफ़ पेरिस' जैसी फ़िल्म बनाने वाले लुइस माल छ: महीने भारत में रहे और उन्होंने 1969 में 'कलकत्ता' नाम से फ़िल्म बनाई। इसके साथ ही उन्होंने सात भाग में 'फ़ैंथम इंडिया' नाम से एक टीवी शृंखला बनाई, जिसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली। 'द फ़ायर विदइन' आत्महत्या को चित्रित करती है, तो 'मर्मर इन द हार्ट' माँ-बेटे के वर्जित संबंध पर आधारित है।

फ़्रेंच सिनेमा और हॉलीवुड दोनों में काम करने वाले माल की फ़िल्मों का एक अन्य कथानक सामाजिक अलगाव की भावना तथा वीरानापन रहा है। उन्होंने लेखकों, नाटककारों के संग मिल कर एवं उनके काम पर फ़िल्में बनाईं। लुइस माल ने अपने बचपन की एक स्मृति के आधार पर एक फ़िल्म फ़्रेंच भाषा में बनाई 'अउ रिवोइर लेस एनफ़ैंट्स' जिसका इंग्लिश में तर्जुमा होगा 'गुडबाई, चिल्ड्रेन'। उन्होंने स्कूली दिनों में स्वयं नाजी सैनिकों का अत्याचार देखा था।

फ़िल्म की घटना उनकी आखों के सामने स्कूल में घटी थी। इस फ़िल्म में एक पल में चार जिंदगियां बदल जाती हैं। स्व-अनुभूति आधारित इस फ़िल्म को उन्होंने खुद लिखा था और इस फ़िल्म का प्रीमियर देखते हुए वे रो रहे थे। इस अति सुंदर फ़िल्म में 12 साल का जूलियन लुइस माल का प्रतिरूप है।

फ्रांस में कई अन्य फ़िल्म निर्देशक हुए हैं पर सिने-प्रेमी जॉर्ज मिलिएस को भला कैसे भुला सकते हैं। 1861 में जन्मे सिनेमा के पीछे पागल इस व्यक्ति ने सिनेमा के शुरुआती दौर में कई तकनीकि और कथानक विकास किए। इसने स्पेशल इफ़ैक्ट्स, मल्टिपल एक्सपोजर, टाइम-लैप्स फ़ोटोग्राफ़ी, डिजॉल्व, हैंड पेंटेड कलर आदि तमाम चीजों का सिनेमा में विकास किया। लेकिन आज भी इसे 1902 में 'ए ट्रिप टू द मून' तथा 'द वोयज एक्रॉस द इम्पोसिबल' (1904) केलिए याद किया जाता है। दोनों फ़िल्में अनोखी अतियथार्थवादी यात्रा तथा प्रारंभिक साइंस फ़िक्शन फ़िल्म्स के लिए जानी जाती हैं। मार्टिन स्कॉरसेसि ने 2011 में 'ह्यूगो' फ़िल्म बना कर जॉर्ज मिलिएस को श्रद्धांजलि दी है।

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सोर्स: अमर उजाला

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