सम्पादकीय

सौ फीसदी मार्क्स का पागलपन इस पीढ़ी पर सबसे बड़ा आघात है

Gulabi
7 Oct 2021 12:07 PM GMT
सौ फीसदी मार्क्स का पागलपन इस पीढ़ी पर सबसे बड़ा आघात है
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इस पीढ़ी पर सबसे बड़ा आघात है

बिक्रम वोहरा।

दिल्ली के कॉलेजों में दाखिले के लिए शत प्रतिशत कट ऑफ मार्क्स अगर दुखद नहीं है तो बेहद हास्यास्पद जरूर है. हमारी पीढ़ी में 99 फीसदी मार्क्स के बावजूद एडमिशन नहीं मिल पाने की बात सपने में भी नहीं सोची जा सकती थी. खास तौर पर आर्ट्स में तो इसकी कल्पना भी नहीं जा सकती थी.


मुझे याद आता है जब एक टेस्ट में मुझे 62 फीसदी मार्क्स मिले, तो मेरे माता पिता इतने खुश हुए कि बतौर इनाम हम सबने स्टीव मक्वीन की फ़िल्म 'द ग्रेट एस्केप' देखी. उस शाम सभी पड़ोसियों को चाय की दावत दी गयी ताकि हम इसका दिखावा कर सकें. हममें से जो सबसे तेज़ था, उसे 60 फीसदी या उससे थोड़ा ज्यादा आते थे, और वो फर्स्ट डिवीज़न से पास होता था. बाकी हममें से ज्यादातर मुश्किल से 50 फीसदी के दायरे में आ पाते थे और खुश रहते थे.

सौ फीसदी मार्क्स कई बार डिप्रेशन की वजह बन जाता है
जबकि आज का बेतुका आकलन शिक्षा का मजाक उड़ा रहा है. यह सच्चाई से इतना परे है कि वास्तव में इससे छात्र-छात्राओं का नुकसान हो रहा है. क्योंकि आगे वो इस मुगालते में रहेंगे कि वो हर तरह से मुकम्मल हैं, जो कि बाहरी दुनिया की क्रूर असलियत का सामना करने में उनके लिए खतरनाक साबित होगा. 100 फीसदी अंक लाने वाले इन बच्चों को तब जोर का झटका लगेगा जब उन्हें पता चलेगा कि ये मार्क्स उन्हें आगे जीवन में किसी तरह की सुरक्षा या गारंटी नहीं देते. जीवन में मुश्किल हालातों का सामना करने पर आगे वो हताश हो सकते हैं, उन्हें गहरी चोट लग सकती है, जो कई बार डिप्रेशन की वजह बन जाती है. यह तो महज पहला पायदान है. क्योंकि सिस्टम ने उन्हें जीवन की शुरुआत में ही बता दिया है कि उनमें कोई कमी नहीं है, और आगे ज्ञान हासिल करने की आकांक्षा रखने के लिए कुछ भी नहीं बचा है.

ना तो कोई परफेक्ट होता है, ना ही आगे कोई होगा
ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि ये परीक्षक कौन हैं जो सौ में सौ अंक देते हैं. एक निबंध का आकलन करने में आखिर वो किन पैमानों का इस्तेमाल करते हैं कि इतने सारे परीक्षार्थियों को 100 फीसदी मार्क्स आ जाते हैं. और फिर एक नंबर कम पाने वाले छात्रों के लिए विश्विद्यालय का दरवाजा बंद हो जाता है. फिर जीनियस की बनावटी भीड़ तैयार करने की होड़ में लगे स्कूल खोखले रिजल्ट का दिखावा कर कुछ देर के लिए जरूर इतरा सकते हैं, लेकिन क्या वो यह समझते हैं कि इन बच्चों को परफेक्ट बताकर वो उनका कितना बड़ा नुकसान कर रहे हैं? क्योंकि ना तो कोई परफेक्ट होता है, ना ही आगे कोई होगा.

अच्छे मार्क्स लाने वालों को नजरअंदाज किया जा रहा है
अब वक्त आ गया है कि इस सिस्टम को दुरुस्त किया जाए. आप देश के उन हज़ारों बच्चों को देखिए जो 80 और 90 फीसदी के दायरे में अच्छे मार्क्स लेकर आए लेकिन उन्हें नजरअंदाज किया जा रहा है. उनकी आकांक्षाएं कांच की तरह टूट गई हैं. ये प्रतिभा की बर्बादी नहीं है तो क्या है? जो विश्वविद्यालय अपने दायरों का विस्तार करने के बदले खोटी मार्क्सशीट को तवज्जो देते हैं उस पर दुर्भावना और नुकसान पहुंचाने के इरादे का मुकदमा होना चाहिए.

ऐसे सिस्टम में मां-बाप भी बलि का बकरा बनने को मजबूर हैं. कल्पना कीजिये कि आपके बच्चे ने 96 फीसदी मार्क्स हासिल किया लेकिन वो फूट-फूट कर रो रहा है क्योंकि उसे लगता है कि वो नाकाम हो गया है. और वो बच्चे जिन्हें 80 फीसदी मार्क्स आए, वो कॉलेज की पढ़ाई के लिए किसी साईकल रिपेयर शॉप के ऊपर बने 'इंस्टीट्यूट' में दाखिला लेने को मजबूर होंगे.

79 फीसदी छात्र चिंता से पीड़ित होते हैं
मेलबॉर्न विश्वविद्यालय के एक सर्वे में पाया गया कि 79 फीसदी छात्र चिंता से पीड़ित होते हैं, तो 75.8 फीसदी छात्र खराब मनोदशा के शिकार होते हैं और 59.2 फीसदी छात्र निराशा और हीनभावना से घिर जाते हैं. भले ही इनमें से कुछ ही छात्रों की खराब दिमागी हालत के लिए उनके स्कूल जिम्मेदार हों, लेकिन ये चुनौतियां उनके जीवन के दूसरे पहलुओं पर भी बुरा असर डालती हैं: जिनमें उनका सामाजिक और घरेलू जिंदगी, शारीरिक स्वास्थ्य, कैरियर और पढ़ाई भी शामिल है. हम यहां पर उनकी बात कर रहें हैं जिन्होंने 90 फीसदी अंक हासिल किए हैं.

जब 50 फीसदी और 90 फीसदी अंक लाने वाले छात्रों में कोई गुणात्मक अंतर नहीं रह जाता, तो जाहिर है कि हमारा सिस्टम पटरी से उतर चुका है. हालात ऐसे ही रहे हैं तो आगे क्या होगा? 100 में 120, 100 में 130, क्या भविष्य में सिर्फ ऐसे बच्चे ही दाखिले के लिए आवेदन कर सकेंगे जो 100 फीसदी से ज्यादा मार्क्स पाएंगे? क्या ऐसा कोई भी नहीं है जो इसे मौजूदा पीढ़ी को मिला वरदान नहीं, बल्कि उन पर किया गया घातक हमला मानता हो?


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