- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- "The law is a ass… a...
x
यह केस 17 सितंबर, 2017 का है. एक 10 साल की बच्ची अपने घर से बाहर ब्रेड खरीदने के लिए गई.
कुछ दिन पहले पॉक्सो कानून और उसकी एक विचित्र किस्म की व्याख्या मुख्यधारा मीडिया की चर्चा में थी. इसी कानून के तहत अब बॉम्बे कोर्ट का एक नया फैसला पॉक्सो (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस, 2012) को नए रूप में परिभाषित कर रहा है. इस फैसले में कहा गया है कि किसी नाबालिग बच्चे के पृष्ठभाग (नितंब) को छूना भी पॉक्सो के तहत अपराध है और ऐसा करने वाले व्यक्ति को कोर्ट ने पांच साल कैद की सजा सुनाई है.
क्या है पूरा मामला
यह केस 17 सितंबर, 2017 का है. एक 10 साल की बच्ची अपने घर से बाहर ब्रेड खरीदने के लिए गई. दुकान के बाहर चार लड़के बैठे हुए थे. उन लड़कों ने लड़की को देखकर उस पर फब्तियां कसीं, उसके साथ छेड़खानी की. फिर उसके बाद जब वो अपनी एक सहेली के साथ मंदिर की तरफ जा रही थी तो उनमें से एक लड़का आया और उसने लड़की के पृष्ठभाग (नितंब) को दबोच लिया. उस लड़के की उम्र 21 साल थी.
प्रतिवादी की दलील
यह देखना काफी रोचक है कि लड़के के वकील ने कोर्ट में अपनी सफाई में क्या दलील पेश की. उसने कहा कि पॉक्सो में नाबालिग के प्राइवेट पार्ट को यौन इरादों से छूने की बात कही गई है. लेकिन पृष्ठभाग (नितंब) तो प्राइवेट पार्ट नहीं है.
इसके जवाब में कोर्ट का जवाब जानने से पहले याद करिए बॉम्बे हाइकोर्ट की नागपुर बेंच की जज पुष्पा गनेडीवाला का 19 जनवरी का वो फैसला, जिसमें उन्होंने कहा, "लड़की के ब्रेस्ट को जबरन छूना भर यौन उत्पीड़न नहीं है. अगर कपड़े के ऊपर से छुआ गया है और 'स्किन टू स्किन टच' नहीं हुआ है तो यह पॉक्सो कानून के सेक्शन 7 के तहत यौन उत्पीड़न और सेक्शन 8 के तहत दंडनीय अपराध नहीं है."
इन दोनों मुकदमों पर एक ही कानून के तहत सुनवाई हो रही थी, लेकिन इस केस में कोर्ट ने पॉक्सो की बिलकुल अलग व्याख्या की. कोर्ट ने कहा, "बच्ची के नितंब को छूना बिना यौन इरादों के किया गया कृत्य नहीं है." कोर्ट ने पॉक्सो एक्ट के सेक्शन 7 की व्याख्या इस तरह की कि किसी नाबालिग के नितंब भाग को छूना अपने आप में ही हमलावर के यौन इरादों को स्पष्ट करता है. इस तरह के कृत्य की कोई और संभव वजह नहीं हो सकती. कोर्ट ने ये भी स्पष्ट किया कि पृष्ठभाग पॉक्सो की परिभाषा के तहत प्राइवेट पार्ट की श्रेणी में ही आता है. कोर्ट ने 21 साल के लड़के द्वारा की गई इस हरकत को गंभीर बाल अपराध मानते हुए उसे 5 साल कारावास की सजा सुनाई है.
जज पुष्पा गनेडीवाला के फैसले के बाद कोर्ट के इस नए फैसले का स्वागत करते और इस पर राहत महसूस करते हुए भी इस पूरे प्रकरण से कुछ गंभीर सवाल खड़े होते हैं. जाहिरन कानून हमारी रक्षा के लिए और न्याय को सुनिश्चित करने के लिए बनाए गए हैं, लेकिन कानून मानो कोई अंतिम सत्य नहीं है. कानून में इतने लूपहोल और चोर दरवाजे हैं कि उसकी सौ तरीकों से सौ अलग-अलग व्याख्याएं की जा सकती हैं. वरना ऐसे कैसे मुमकिन है कि एक केस में जज उसी पॉक्सो कानून की व्याख्या कुछ इस तरह करती है कि अगर एक 39 साल का मर्द एक 12 साल की बच्ची की छातियों को कपड़े के ऊपर से दबोच रहा है तो वो अपराध नहीं है क्योंकि 'स्किन टू स्किन टच' तो हुआ ही नहीं है. उन्हीं जज महोदया ने 14 जनवरी को चाइल्ड सेक्सुअल अब्यूज के एक दूसरे मामले में ऐसा ही विचित्र फैसला सुनाया, जिसमें उन्होंने कहा कि एक नाबालिग बच्ची (इस केस में जिसकी उम्र पांच साल थी) का हाथ पकड़ना और उसके सामने अपने पैंट की जिप खोलना पॉक्सो के तहत यौन हमला नहीं है, बल्कि भारतीय दंड संहिता की धारा 354 ए के तहत सेक्सुअल हैरेसमेंट है. यह केस था 'लिबनस बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र,' जिसमें एक 50 साल के पुरुष पर एक 5 साल की छोटी बच्ची का यौन शोषण करने का आरोप था.
कानून के चोर दरवाजे
हालांकि गनेडीवाला के फैसलों की आलोचना करते हुए कई कानून के जानकारों ने पॉक्सो की व्याख्या करने की भी कोशिश की, जैसेकि 'स्किन टू स्किन टच' की जो जज बात गनेडीवाला कह रही थीं, यह शब्द उस कानून में कहीं नहीं लिखा है. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए नागपुर कोर्ट के फैसले को खारिज भी कर दिया, लेकिन फिर भी यह सवाल ज्यों का त्यों है कि कानून में ये छिपे हुए चोर दरवाजे कहां है, जिससे निकलकर कोई अपराधी भाग सकता है, किसी गंभीर अपराध को मामूली अपराध में बदला जा सकता है या किसी मामूली अपराध को जघन्यतम अपराध की तरह पेश किया जा सकता है.
कानून रबर की वो गेंद है, जिसे जज अपनी सोच, अपने विचार, अपने आग्रहों और पूर्वाग्रहों के हिसाब से जैसे चाहें वैसे उछाल सकते हैं. कोई तरीका नहीं है कि कानून के इस ओवर या अंडर इंटरप्रिटेशन पर लगाम कसी जा सके. उसे रेखांकित किया जा सके या उस पर सवाल किया जा सके.
यह भी कानून का एक हास्यास्पद चेहरा नहीं तो क्या है कि एक रेप केस में निचली अदालत आरोपी को जेल भेज देती है तो ऊपरी अदालत कहती है, 'महिला की कमजोर (फीबल) ना ना नहीं होती.' न्याय कोई अंतिम सत्य की तरह मिला भरोसा नहीं है. ऐसा नहीं है कि हर जगह से हारकर न्याय का दरवाजा खटखटाएंगे तो न्याय मिल ही जाएगा. न्याय कितना होगा और कैसे होगा, यह इस पर निर्भर करेगा कि माननीय न्यायमूर्ति की नजर में न्याय का अर्थ क्या है. वो कानून को किस तरह परिभाषित कर रहे हैं.
ऐसे में चार्ल्स डिकेंस का वो उपन्यास याद आता है- 'ओलिवर ट्विस्ट.' कामगार मजदूरों के बीच जन्मे एक अनाथ बच्चे ओलिवर की कहानी, जिसे बाद में बेच दिया जाता है और वो किस तरह अपराधियों की संगत में पड़कर अपराध के रास्ते पर बढ़ जाता है. उस उपन्यास में एक जगह मि. बीडल (उस अनाथालय के अधिकारी जहां ओलिवर का जन्म हुआ था) कहते हैं, "लॉ इज ए ऐस, एन इडियट." (कानून बददिमाग है.)
हमारी सोशल ट्रेनिंग भले इस तरह की हो कि न्यायिक संस्थाएं सब सवालों और आलोचनाओं से परे हैं, लेकिन इतिहास गवाह है कि ये सच नहीं. न्याय के ये मंदिर भी सत्ता समीकरणों को बनाए रखने वाली उन तमाम संस्थाओं की तरह हैं, जिनका काम है जितना न्याय करना, उससे कहीं ज्यादा इस भ्रम को बनाए रखना कि न्याय किया जा रहा है.
बात पॉक्सो कानून और उसकी विविध प्रकार की व्याख्याओं से शुरू हुई थी. यह मामला इसलिए भी ज्यादा संवेदनशील है क्योंकि यह बच्चों से जुड़ा है. अगर अपने बच्चों को सुरक्षित रखने वाले कानून को इतना तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है तो बाकी कानूनों की क्या ही हालत होगी.
Next Story