सम्पादकीय

ओमिक्रॉन वैरिएंट की ताजा लहर : कोरोना से जंग के बीच चुनावी बिसात

Gulabi
7 Jan 2022 4:40 AM GMT
ओमिक्रॉन वैरिएंट की ताजा लहर : कोरोना से जंग के बीच चुनावी बिसात
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इन दिनों भारत समेत पूरी दुनिया कोरोना महामारी के ओमिक्रॉन वैरिएंट की ताजा लहर के चलते युद्ध जैसी स्थिति झेल रही है
इन दिनों भारत समेत पूरी दुनिया कोरोना महामारी के ओमिक्रॉन वैरिएंट की ताजा लहर के चलते युद्ध जैसी स्थिति झेल रही है। भारत में एक तरफ जहां तेजी से कोरोना का संक्रमण फैलने लगा है और महामारी की तीसरी लहर ने दस्तक दे दी है, वहीं पांच राज्यों-उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर और गोवा में विधानसभा चुनाव की भी बिसात बिछ गई है। पिछले दो साल से राष्ट्र कोरोना महामारी की विभीषिका झेल रहा है। इसके अलावा पिछले कुछ वर्षों में किसानी का संकट भी गहरा गया है। हालांकि विवादास्पद कृषि कानूनों को अब निरस्त कर दिया गया है।
ऐसी विपरीत सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के बीच पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इनमें से सबसे ज्यादा चर्चा उत्तर प्रदेश के चुनाव को लेकर हो रही है, क्योंकि 403 विधानसभा सीटों वाला यह राज्य केंद्र में शासन के दरवाजे भी खोलता है और इसी राज्य के वाराणसी संसदीय क्षेत्र से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी सांसद हैं। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव को आगामी लोकसभा चुनाव का ट्रेलर माना जा रहा है। इस चुनावी समर में एक तरफ पूर्ण बहुमत के साथ सत्तारूढ़ भाजपा है, तो दूसरी तरफ सपा है, जिसकी विधानसभा में मात्र 47 सीटें हैं।
हैरानी की बात है कि 2012 के विधानसभा चुनाव में इसी समाजवादी पार्टी को 224 सीटें मिली थीं और अखिलेश यादव लोकप्रिय नेता बनकर उभरे थे। पिछले चुनाव में भाजपा ने जहां राम मंदिर निर्माण को लेकर प्रतिबद्धता जताई, वहीं सामाजिक ताने-बाने को भी काफी बदला। जो पिछड़ा समुदाय सपा, बसपा से जुड़ा था, उसका काफी बड़ा धड़ा भाजपा की तरफ उन्मुख हुआ। भाजपा ने विभिन्न समुदायों को अपनी तरफ आकृष्ट कर छोटे-छोटे दलों के साथ गठबंधन किया, जिसका फायदा उसे पूर्वी उत्तर प्रदेश में मिला।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समुदाय के बीच एक लकीर खिंच गई और जाट समुदाय ने भाजपा का समर्थन किया। लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों में इस सामाजिक समीकरण में काफी बदलाव देखने को मिला है। किसान आंदोलन के चलते पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट अब भाजपा से उतने खुश नहीं है और पूर्वी क्षेत्र में ओमप्रकाश राजभर ने भाजपा का साथ छोड़ दिया है। बेशक बड़ी विकास योजनाओं के मामले में योगी आदित्यनाथ सरकार की सफलता मानी जाती है और व्यक्तिगत रूप से मुख्यमंत्री योगी पर भ्रष्टाचार के आरोप भी नहीं हैं, लेकिन उनके खिलाफ विरोध के स्वर भी सुने जा सकते हैं।
जनता जिन मुद्दों पर अपना रोष प्रकट करती है, उनमें किसानी और महंगाई के मुद्दे सबसे ऊपर हैं। समय पर खेती के लिए खाद न मिल पाना, उपज की बाजार में सही कीमत नहीं मिल पाना और रोजमर्रा की जरूरत की चीजों का महंगा होना ग्रामीण इलाकों में असंतोष का मुख्य कारण है। लेकिन राजनीतिक पर्यवेक्षकों का यह भी मानना है कि राम मंदिर निर्माण के चलते हिंदुत्व की पकड़ कायम है और अगड़ी जातियां भाजपा के पूरे समर्थन में हैं।
हालांकि कुछ लोग भाजपा के अंदर ठाकुर-ब्राह्मण संघर्ष की भी बात करते हैं, लेकिन यह स्पष्ट है कि कोरोना की मार के बावजूद लोग चुनावी प्रक्रिया को अहमियत देते हैं और अपने मत का उपयोग करने के इस अवसर को वे आशा भरी निगाहों से देखते हैं। अब देखना है कि एक ऐसे माहौल में, जहां ओमिक्रॉन का संक्रमण बढ़ रहा है और बड़े नेता भी इससे बचे नहीं रह पा रहे हैं, वहां रैलियों का दौर कब तक चल पाएगा। कौन जीतेगा और कौन हारेगा, यह तो चुनाव के बाद ही पता चल पाएगा, लेकिन मौजूदा माहौल को देखते हुए यह स्पष्ट है कि बड़े आयोजनों पर पाबंदी लगाई जानी चाहिए।
अब अगर हम पंजाब की बात करें, तो यहां के किसानों ने भी कृषि सुधार कानूनों का पुरजोर विरोध किया था। एक तरफ तो जाट सिख समुदाय है, जिसका पंजाब की राजनीति में काफी दखल है, वहीं दलित सिख समुदाय भी लगभग एक तिहाई हिस्से का दावेदार है। लेकिन किसानी पर उभरे संकट को देखते हुए सभी समुदायों ने केंद्र सरकार के प्रति असंतोष जताया। इस बीच सत्तारूढ़ कांग्रेस के अपने ही मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बगावत का बिगुल फूंका और पार्टी का साथ छोड़ चले।
कहा जाता है कि अमरिंदर सिंह के ही सुझाव पर प्रधानमंत्री ने गुरु पर्व की पूर्व संध्या पर कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की और भाजपा ने अमरिंदर सिंह द्वारा गठित नए राजनीतिक दल के साथ अपने गठबंधन का एलान किया। लेकिन पंजाब में जहां लोग केंद्र सरकार से नाराज हैं, वहीं राज्य में सत्तारूढ़ कांग्रेस में भी विरोध है। इस बात की काफी चर्चा है कि विरोधी दल के रूप में आम आदमी पार्टी कितनी बढ़त बना पाएगी और शिरोमणि अकाली दल की बिसात कितनी रह जाएगी। लोगों में राजनीतिक उत्साह है, लेकिन राज्य में दलगत व्यवस्था में काफी उथल-पुथल है।
उत्तराखंड की बात करें, तो इस छोटे राज्य में भी भाजपा को पूर्ण बहुमत था, लेकिन पांच वर्षो में उसे अपने ही तीन मुख्यमंत्रियों को बदलना पड़ा है। वहां चुनाव से पहले पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया गया। इस राज्य में हिंदुत्व का जोर है और सैन्य बलों के सेवानिवृत्त अधिकारी भी बड़ी तादाद में हैं। इसलिए उत्तराखंड में सामाजिक समीकरण जहां भाजपा के पक्ष में है, वहीं उसकी राजनीति में कई कमजोरियां हैं। उधर कांग्रेस पार्टी के पास हरीश रावत जैसे अनुभवी नेता तो हैं, लेकिन उसकी राष्ट्रीय राजनीतिक स्थिति मजबूत नहीं है। कुल मिलाकर जहां जनता कोरोना और आर्थिक कारणों से परेशान है और इन चुनावों को अपनी आवाज दर्ज कराने के मौके के रूप में देख रही है, वहीं राजनीतिक दलों में काफी उथल-पुथल है। ऐसे में देखना यह है कि चुनाव आयोग जान-माल का संरक्षण करते हुए कैसे ये चुनाव निष्पक्ष ढंग से करवा पाता है!
अमर उजाला
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